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अकाममन- 522
अकुवस्तत्तथा 678
अकुर्वतस्तु 541
अक्रमोटाषतं- 862
अक्रमोटाएुतत्छु- 868
अक्रो मधुरः 65
अङ्किशेना- 22
अङ्च्छेदी 968
अद्भुच्छेदे 9९4
अचोराद् 891
अजातश्चास्मि 169
अजतिष्वैवं 666
अजाशङ्ख- 446
अन्ञाननाशितं 596
अक्नानेक्तौ 741
अतःक्रिया 211
अतथ्यं तथ्य 295
अतथ्यं श्रावितं 778.
अतश्च छुत- 641
अरिक्रमे 119
अतिक्रान्ते 194
तोन्यथा 383
अतोन्येषु विवादघु 405
अरोन्येधरु सभथा-438
अतोन्यैष्त् 68
अतो बदन्यद् 898
अतोवाक् 695
अथ कार्य- 609
अथ चेत् प्रतिमू- 117
अथ चेतस 908
अथ दैवविसं- 456
अथ पञ्चव- 285
अथ प्रागेव 649
अथवा कितवो 959
-अध्। २शति- 800
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अथ स्वहस्तैना- 370
अधावेद् 768
अदत्तव्यक्तं 614
अदत्वा तु 566, 654
अदथैयन्स 535
अदाेक 981
अदुष्टमेव 686
अद्ष्टस्यवं 774
अदुष्ट योषिहं 806
अदे रकाल- 48
अधमोत्तम- 665
अधर्मतः 74
अधमय 78
अधिकान् 180
अथिक्ारो- 90
अधिष्ठाता ऋणं 568
अध्यरन्यध्या- 894
अध्यावहूनिकं 896
अनभिज्ञो 9०41
अनाकारग्तौ 781
अमःक्षारित- 804
अनाथास्ते 962
अनप्रदिस्थः 729
अनाम्नातानि 951
अनियम्यांश- 65
अनियुक्तस्तु 658
अनिरुद्धा यथा- 7535
अनेर्णःते 70
अनिर्दिष्टं च 519
अनिर्द्ष्टितु 491
अनिर्दश ‰48 _
अन्षिद्ा- 884
अनीशाः ल्लीधन- 915
अयुकुयौ- {68
भनुक्तमेत 181 #
अनुत्तीणाश्च 108
अ वुपर्थाप- 819
अनुमानाद् 815
अतुमार्गेण 611
अनृताख्यान- 778
अनेकपद~ 186
अमेकाथौ- 4१8 `
अनेन् विधिना 43
अनेन् वरिथिना 264
अनेन् विधिना 447
अमेन विधिना 645
अमेन विधिना 945
अन्तर्वैरमनि 867
अन्यक्षेत्रे 781.
अन्युत्रे रजक 570
अन्यथा कारिता 498
अन्यथा तुल्ये 777
अन्य॒त्र द०१३- 168
अन्यथा द्रतुः 295
अन्प्रथान् 689
अन्यथा नव 80
अन्यथा बाधनं 43
अन्ृदुक्तं 182.
अन्यपक्षा- 195
अन्युव्रादौ 202
अन्युवाघादि 263
अन्यसक्ता 778
अन्यहृस्तात् &11
अन्यापदेश्च- 1१7५
अन्यायेन 19
अन्यायेनापि 15
अन्यायोपा- 971.
अन्येन हारयेत् 486
अन्ये पुन-38 `
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अन्येषां 628
अन्येषु चाति 98
अन्परोन्याप~ 886
न्वःधव तदु- 899
अपचार- 928
अपास्य श्रोत्रिय 981.
अपिच द्रत्रिणं &65
अप्रुत्रस्याथ 9.
अपुत्रा चयनं 921
अधृष्टः सवे 402
मप्रजायाप~ 919
अप्रपनल्लापि 547
अग्रवरत्तं 51
अप्रसिद्धं 140
अप्रसिद्धं धरिरद्धं 178
अग्रःपव्मरुतर- 645
अप्राप्नव्यत्हरश्ेत्
अप्राप्रध्र- 684
अप्राप्त वं 69
अश्रियिस्य च 955
अष्टु प्रवेशने 4५4
` अबाघल्याम्- 161 |
अयक्यमक्षणे 9
अभादयन्धनं 384
अभावे ठद्~ 920
अभावथहूरा 982
अभियुक्त तु 456
आभियुक्तख 111.
` आभेयुक्ताय् 244
आभियुक्ताय.दाततव्यृ 411
सयक्तो- 163
आभय॒त्ताम-187
आमय्क्ता ध्न 618
भेयाक्चरभिं 260 ` `
आधिवन्यु 54
अभिशपे १55
अभीक्ष्णं चैद्यं 258
अभुतैवाथ770
अमोगभुक्तिः 782
` अभ्यन्तरस्तु 3858
अमतनेव 571
अप्मेभ्यं शोध 758
अग्रःसन्दान 8१5
यथोक्त 489
अयुक्तं 206
अगृक्तं चव 671
अयुक्तदेसो- 248
अयुक्त करज 878
अरलिनद्रय- 754
अराजदवि- .598
अभैक्राल 287
अथतः रन्दतो {68
अथंशाघ्लो- 20
अथस्योपरि 389
अधोथीं चान्य 831
आर्थना प्रहितः 5858
भुन्ाभ्य्र 336
धना सं- 91
अर्थना सय-~ 871
अर्थना स्वाथं- 314
अर्धिप्रल्ार्थं 388
अथिप्रस्रथ 848
जर्थप्रत्यर्थिं 259.
अर्थी तृतीय- 218
अर्थ यत्र (1
अधं द्यो- 622
अधाधक्रे १11 `
अदुन्धा 71 .
अलेख्या क्षिके २4
अष्पवाब्हु भ
अव्रक्युलखि 711
अवशेन 959
अव्रष्टम्पाभि- 454
अविज्ञातं तु 688
अविज्ञातक्रयो 623
अविज्ञाता त्रयात् 681.
पेन्ञात)प- 6५4
अत्िदरान् 828
` अभक्त 922
आग्रेमक्तनुञजे 855
(र 4५44 ८ $ 4. प
ञ्ग् 824
अक्रीच 9
ञअवृरधेन 669
वश्य वीनं 723
व्यापक {{4
ठगराप्यु्ःर् 181
अग्यृाहूता 815
अशक्तप्रेतं 765 `
अशाक्तितो न 764
अर्ता इन्ध - 479
ॐ
4
अशक्य आगमा 5852. | |
अयत्नात् 96 .--
जसाघ्नविदितं 952;
अश्चेरांसिच 414 ..
अश्ञीतेस्तु 418
अष्टादश २9
अपसःसदितिं 405
अप्तपाहार्य- 618.
अमोहाय 985
असवणवपूतश् 868 _
असाध्रु जननं 988
असाक्षिसत् 249 :
असाध्य वा 140
अस्ारमिति 186 ` :.
अस्वृरयपूते- 788
लस्प्र्याधम्- 433
अस्मातनु- 521
असमं दत्तं 182 १,
अस्वतन्तहृतं 468 - `:
अस्ठतन्ताः 467
अस्वतन्त्रेण 699.
अस्वग्यो 44
अष्वस्थ्तौ- 985.
अस्वामि विक्रयं 612. र
अस्वाभ्यतु - 762 . . :
अहीनक्रम- 26
अहौनक्रम- 258
कस्य 118
-आकारेद्धत 885
अआक्राज्ञभूतं 520.
॥।
(-' .
आ्चिपो निष्ठरं 769
आचतुदैरक्ा- 468
आचार्य 160
अचरिणव- 1171
आचायेस्य 481
आश्यापि 701
आद्यस्य निट 291
आततायिनि 801.
आथर्वैणेन 802
अ1ददीतार्थ- 586
अददाद् 726
आदध्यात्तत्- 521.
आदाने दा 911
दों ठु कारण 529४
दय!दह्वी 69
जातु वितथं 538
आधातायव 529
आधानं विक्रयो 518
आधानस्दितं 802
आयि दुष्ेन 528
आधिक्यं न्यूनता 782
आधिमोग- 501
जाधिपन्यं ६२५
आधिमेकं दयो- 51
आधीकृतं तु 428
पत्कार्छता 498
आपत्काले तु 689
आपच्छतादते 569
पाः शुद्धा 847
आभीषणेन 780
आल्ह्मद्धि 412
आरमार्थं विनि- 674
आत्मय 9
आयुत्रीज44 `
आारक्षक्श्र 818
अरम्भकरत् 882 . `
आरम्भासंप्रहं 110
आरम्भे थमं 960
आद्य सर्य 876
| हेतंसेग- 681
` सए
0 4.88
आवेदयति 88
अवि तु 104.
अवेद्य प्रयु~ 210
अः श्रय ल 83 |
अ{भ्रितस्तघ्र्मं 574 _
असिम
प्राङ्मुखः 55 `
आसुरादिषु 920 .
आपेधयं 110
आेधये- 106.
अआपेधणोग्व 105.
रेल 617
आहदां भुक्त 328. `
आहूता लसते 319
आदारक!ठे 582
अहरतप्र = 02४
आद्रतस्सच- 100.
अआषटूय साक्षिणः 345
आहूध्य पर- 944
आहृत्य ख्रीधन 573
आहु नादनु- 199
ह् तरप्यभे- 90 :
इन्द्रस्थाने 484 `
उन्ती वष्िकरं 565
उक्तादव्पतरे 709
उत्त'तु 592 |
उक्तथं घाक्षिणो 879
उक्तान्यथा 406
उच्छेदः सत 62.
उः जाति- 84 `
रत्तरान्तथैतं 193.
उत्तमेषु 286 ~ ` `
उत्तमेषु च 281
उत्तरत 586
` . ` उत्पत्तिजाति- 251
उःपन्चे च्।रसे 8857
` उत्पादयति.28
` उतादयात वा 108
उत्साहवा- 65 |
उदक चव 882
उदद्सुखान् 844
9.
दितः स्यात् 884 ^
उद्गूरणं तु 765
उद्धरन्ति ततो 745
उद्धरादेक- 591
उद्यतानां तु 800 `
उद्यतासिः 849 ..
उयुक्तः कषकः 110
न्मत्तनैव 46४
उपधौ कट 151.
उपन्यस्ते त॒ 868
उपष्वनिभित्ते 542
उपकन्धिक्रिया- 6५५ `
उपश्रवर्ण~ 745 . ˆ ` ;
उपहुन्धेत वा 690
उपाये: सौम- 982
उपःयश्चोदय 194
उवेक्षाकाव॑- 888
उपेक्षमाणाः 7५. . `
उमयौ &डितै 206 `
उ्टप्यं यस्प्ं 86.
ऊढया कन्यया 901.
ऊनसम्यधिक. 401 ˆ`
ऊनाधेके तु 498
ने बाप्य्।धङ 396
ऊर्ध्वं सास 509
ऊध्वं. लन्धः-तु 900 `.
ऊध्वं संबतरात् 502:
क्रणं च कारयेत् 6४7. `
क्रणं तु.दपयेत् 557
करणे पुतरङतं 544 .:
क्रणं श्रीति- 850. ध
तरणमेव्ःवधं 546...
क्रणमत्रःवव. 849
करणमेवब्विध.पुत्रान् 549
` क्रणादिवे दषु 408 |
क्रणादिगरुः परी 365
करणादिषु- पिव. 396
५
` क्रणाधैमराहत् 52
8 41
कणिकेन तु 495
कणिसाक्षि- 284
ऋाणिसाक्षटख-- 268
कणिस्वहृक्त 2६6
करणे लेख्यं 283
` क्रतुत्रय- ६07
कलि इन्यायेनं 842
एक् एव् भरप्राणं 354
एकं चेदूवहुष 198
एकक्रिया-~ 518
कच्छा याप्र- 588
एकच्छायःश्रिते ऽ
एकद्वित्रि- 682
एकपत्रे च 673
एकभागा- {06
एकरूपा 9५६४
एकशाश्चे- 68
एक्थाना 829
एकान्तेनैव 499
एकाटउव्ययं 112
एकाह छिद्ितं 513
एककं वादमेत् 895
एका यद्रन्यन् 747
एको ह्यनीशः &54
एतव्वं {पता £66
एतःसवं प्रदा- 548
एतत्छवें वैमा 877
एद. ८-- 185
एतद्द्रयं 68
एतयथाक्षरं 260
एतद्वि्याधनं 878 `
एतानि वादि- 205
एत;न्दश्चप~- 948
एताश्च: 950
एतष्वेवाभियाग- 367
` ` एतेषामप- 481 `
एतेष्वतरामियोगे- 429
एतै सनमव- 882.
एतैः समप 969
` एतैरेव गुणै- 11
एतरव नियुक्तानां 486
एवं चरेत्दा 973
एवं ठत 4४
एक दृष्ट 279
एवं धरान 475
एवं धं 684
एवं पुष्टः 87
एवं अद्यध- 377
एवं परव- 18
एवं विचारयन् 421
एवमाद्यान् 808
एष एव विध 319
एष दण्डां हि 963
एषामन्यतमो 588
एषु वादषु 459
क्ण्डकेरा चरः 529
कनिष्ठ कवा 466
केन्युकःनां 858
कन्यागतं तु 879
कन्याया दूषण 151
कन्याय॒स्तद्धनं 881
दन्यरविवःहिक 5498
व.म्ः स्वदोधथ 586
कर्ं करद {०५
कर्णोहघाण- 781
वतंव्यं तेन 8
कतेव्य्। न 740
कर्मणा क्षत्र-5866
कमणा व्य्रव- €85
कपीरम्म॑त् 65
कृषकान् क्षत्र- 480
कल्पक्ो.टश्त् 644
कल्पितं मूल्य- {06
कत्पिती यस्य 102, 490
काकणी तु 498.
कक्स्य दन्ता 186
काम तदपि 187
कामक्राधा- 647
कऋामात्त सथिता 72
कामात्परी१् 75१
एवष .५4. छवि # ४५४4 प्र.
कामत। लरिणी 831
करणं भुक्ति-
कारणात् 211
कारये दघ 718
कःरपेत्छङने ~ 489
कायं त् कार्थिणा- 81
क्यं त् साधवेत् 954
यं हि सःध्य- 218
कय॑स्य निणेयं 80
सा्यणां निर्णयो 475
कार्याणां निर्ण 86
कायाथ 971
कारयष्वभ्य 884
काषःपभो- 494
कलं तते न 149
कां त्रिवादे 145 `
कटं शक्तं 147
कल पत्र 156 =
काटः प्रमाणं 326
काटदेशव्रिरेषे 496 `
काटहीनं 601
काङातीतिषरु 153
काठे कायो 86
काले तु विधिना 552
ञेन हीयते २२५
कारे व्यतीते 538
क कायुं का 86
क्रि चिभ्यून 591
15 तमत्र 183
कोतिते यद्वि 741}
ठुटुम्बाधंम- 542
कुप्यं पच्च 512
कुय।च्छान्न 60
: कमाण €45
कुयुभगरद् 750
कु युसतेऽग्यभि- 625
कुर्वीति जीतन 855
कुरुधम् 85
कुङ्शीङ~ 58
कुकादि भ- 496
ऊनि 89
कूटीनायै- 965
टे विनीत ~ 8174
कल्याः कु 387
कृत्याः घब~ 569
कव्यानां वचनं 858
कटरा बजये- 425
कूटसक्ष्यपि ६68
कुटक्त 90
कृतप्र्युप- 658
कतसप्यदूतं 710
इृतमस्वाभिमा %10
कृताकृत 288
कृताध्ययन् ~ 29
छता बादितं 579
छृःवोद्ध!र- 508
कृष्णङेश्ोक्त- 492
केन कृरिमन् 87
कोशाः प्राज्न 426
क्रमात् पितणां 1%6
क्रयप्रोषित~ 59
क्रयदिक्रय- {02
कयविक्रयणे 707
क्रियापाद- 8१
क्रियां बट्वतीं 241
क्रियाकरिषु 890
क्रिया न् दैविकी 223
क्रियाप्षपूह- 415
क्रियास्थित्य- 148
क्रीतं तास्वाभिने 688
करवा गन्डन्तु- 687 `
क्रीरवादुकश्चय- 686 _
क्रीत्वा प्रप्र 783
[त्वा मूर्स्यन् 698
क्रेतारश्चैव 827
छद्धीबं विहाय 860
क्षतं भगो- 801
क्षत्रविदटुशुद्र 718
क्षमालिद्घानिं 126.
क्षयातिसार- 458
| , 4
12रएष्ठःर
क्षिप्ते घु 448
त्रं चद्टिडघत् 765
सेतर माधारणं 889
चेतर कुप- 749
्षेत्रवास्तु- 784
क्षेत्रादा 469
स्षेतारमगरहय- १05
शेत्रारामदिवी- 664
क्षेत्रिकस्य 859.
रगोमहि- 789
खज्र₹- 822 ^
ख्यापितं चेद् 272
गच्डेत्सस्य- 10
गेणपाषण्ड- 689
गणमुदिरय 674
गणानां प्रेणि- €75
गृपने त्वागमः 448
गमेस्य पत्तने 806
ग्यैः घ पापो 6760
गां च कम्पते 455
गुरं अ्योति- 58
एुरुकायेघु 101
गुवाचःयै- 756
गूढुचारी स 876.
` गृटद्रव्याभ- 841
गृहुयाद- 280
गृदास्तु प्रकटः 275
गृहं गृहस्य 186
गह् भषादाव- 749.
गरहवायौ- 663
गरहारोषः 500
गरहीतम्रहणो 1:06
गृहीतमिति 179
गृद्ीघा तस्यं 407
गृहीत्वा तस्य 826
गृर्हत्वा बन्धक 584
गृहे तु मुषितं 813
गृडाघयान- 169
गृहोपस्करवाह्यानां 898 `
युहापस्करवाह्याश्च 842
0 प: 17-पए८85
श्प
शरी य्त् 815
गोकुमार- 79]
गोत्राश्थातैस्तु 85
गे प्रचारश्च €84
गोब्राह्मण 948
गारक्षकान् ५2४
गोतमनाम- 828
हण तत् 664
ग्रहणं रक्चणं 518
ग्रहीता प्रति- 595
ग्रहीतुः सह 598
ग्रामश्च प्राड् 356
ग्राससीमसु 788
म्रामादयश्च 5१४
ग्रामान्तरे 814
ग्रामो मामस्य {86
प्रासाच्छादनमत्यन्तं 864
म्रासाच्छादनवासा- 909
प्राहुकस्य हि 600
ग्राहकेण 250
ग्राह्यं स्याद् 509
म्राद्यस्तप- 601
घृतेन योजितं 450
च कवु दुवा 719
चतुणौमपि 4९4
चतुर्थेन न 560
चतु षदेष्वयं 389
चतुच्लिद्रवेक- 461
चर्नल- 819
षव भपतस्या- 508
न्ण्ड!ठश्वप- 681
्वातुरदियय- 254
वित्तापनयनं 389
चिरकलेोप- 824
चिर्तनमपि- 825
चिदहाकार-~ 176. |
चोदना प्रतिकाङ 284
चोदनाश्रतिघति 286
शेरतः सकिछात् 681.
१9.02,
४4
चराणां §ख्य- 684 |
नेम् ता 81]
चर्वन्छस~ 132
रहं 816
छन्पभ्येन &99
छद् मरन 784
छिन्धदङ्क 822
दने चोत्तमः 781
जङ्खमं स्थावर 518
जन्मन{पि- 890
जयपत्रं ततो 476
जयद्वा~ 3४
जातिः सज्ञा 197
जाति्शकरी 7;
जास्यन्ध- 550
जित वं सभिक- 940
जितः पुरा 1
नितश्चवे 112
जत्र 75
जीवद्विभागे 848
जी्रन्स्याः पति- 916
जादन्वापरि 116
लतुर्दधात् 98
जेहयेन वत~ 162
` ज्ञात्तिसंकन्धि- 628
ज्ञव्य्ादननयु- 7102
ज्ञा(वा दन्य 5099
ज्ञत्वा निघुष्टे 914
ज्ञाघ्ा संख्यां 418
तं ततोकारितां 504
तं प्रतीक्ष्य 164
तात्क तामरषं 184
तच्छरद्ध तत् 28
` तच्छेषपा्रु 819
तटकचिन- {58
` तण्डुरनं 42५
तते रविश्षति- 298 `
त्छताचार- 948
| ४ तच्िया ५.
तत्तदेवा- 514 `
ए + (१४ 0 ८.४ ए.
तारय 22
तत्तुयं 708
ततपत्रपुप- 74
ठेस्पराशिद्धानि 483
तफरस्य ई 16
तत्र कम च 714
तच कालो 158
त॒न्नणं सोदयं 523
त॒त्र छष्धं तु 86
त॒त्र समभ्ा 78
तत्र साक्षिक्ृतं 779.
तत्र खाधु- 14
तत्र स्वमाददीत 9५9
तत्रापि ब॒ञ्चुमं 719
तत्रभिवाक्ता 121
तस्संसक्तस्तु 789
तत्स] ध्य साधनं 18
तसिद्धवयथं तु 254
तलत भुःकै- 323
तर्क्ीणाश्चुप- 567
त्स्वदस्तकते - 286
तःस्वहृस्तादिभि 285
तथाजाविक- 687
त॒था तस्स्यात् 278
तथातथा दमः 798
तथा तथा विधा- 859
त॒था तुष्टिकरं 78१¶
तथा दोषाः 276
तथा लेख्यस्य 808
तथेव दण्ड~ 786
तथेव भोज्य- 676
तद धौन- 98
तदध्य॒भ्निशृतं 895
तदन्यत्छार्येत् 818
तदन्वयध्याग~ 89,
दप्ययक्ते 401
तदभावे तु 391
तदभावे तु मल्यं 516
तद्भवे तु दुहिता 9१6
तदभवे नियुक्त 88
तदभवे पिता [
तदधं योषिक्ते 487 ॥
पदधाधस्य नशेत् छ 41
तदध्।धस्य नारे त॒ स्पृच
4८0
तर याग~~ {64
तदष्टभागाप-- 76१7
तदाकवियुकती- 967 |
तदा तच्र 68 | #
तदा दण्ड 955 |
तदापेधं 104.
तद्व स्थाप- 608
तदं धनिने 84
तदेव ययनु- 918
तदोपिति 129
तद्गृहं चत्र 803
तदग्र्यं साक्षिणा 246
तद्टरयमानं 8५8
तद् द्रव्यं सद्यं 594.
द् द्रव्यग्धणि- 515
तद्धनं पुत्र- 558
तद्तन्धुपहदा 361
तदन्त सवं 845
तद॒क्तप्रति- 504
तद्रयस्याग- 889
तद्बुच्तिजीविना 361
तन्भूढ सवातत 748
तपरर्विनां तु 88
तप॒ माधक ~ 469
तद्धता तच्छतं 470
तमटमाय- 451
तन्मोक्षणाथं 685 ४
तया प्राप्तं धनं 867 4
तयोः एूवे- 517 ¦
तयेरन्ते 121
तवाद पिति 7859
न १.५८ वि ४ ~ । अ ५. £ १ 4 £ द ९ 3, - ठ ~ स ग अ ~ "
तस्माच्चिवं 5. |
` ` तस्माच्छाल्ला-- 45
तस्मात्तत् 50
तसमादथात् 589.
तस्मदेवविधं 556
तस्थाद्रह्व 66
तस्मात्तेन 7
तस्मःदयथोक्त ~ 459
धस्पादाजा 9854
तस्थ्ेख्यस्य %88
तस्मान ठमते 184
तिच् 818
तास्मन्कमेणि 8176
तस्मिल्पि 648.
तश्िननष्टे 600, 607
तस्मिन् श्रते न 826
तस्मिन् भोगः 7393
तस्य कुयौ- 100
तस्य दोषाः 801
तस्य पुत्राः 165
तस्य वा तत् 120
तर्याश्ो 631
तस्यां पौन्मैवौ 860
तस्यानुरूपं 79४
तस्यार्थिवादो 128
तस्यास्तु साधनं 225
तस्येह भागेन 859
तस्येकस्य 457
तस्यैवाचरणं 669
तां क्रियां 198
ताडनं बन्धनं 968
तालन्ञो रभते 686
तावत्सा बन्धने 489
तासो 828
` तिष्ठति द्विगुणा 510.
तिष्द्धवै- 916.
तीरितः सोनु-495
तुकादीनि 418
तु कामन 819
तृतीयः पश्चमो ६90
तृतीयः चपथः ४8५
ते द्वादश्च 494 `
, तिन चेरक्षत्र 485
तेन इं 280
117 © पच 8- $1९49
तेन भूयोपिष्
तेन ऊेस्पेन 800
तेनाप्यंशेन {10
तेपि तत्र 6
तेपि तद्धागेन- 75
तेषां चेश्र- 685
तेषां तु तत्परा 570
तेषां वादः 850 `
तेषां वेस्व- 820
तेषां स्वसम- 47
तेषामभावे 787
तेषभेको 359
तकानां चैव 511
तौल्यगमिम-- 890
त्यक्ला दु्र॑ष्तु 742
ध्यजेत्यथि 660
त्रपुषे वर्क 829 ^
त्रिः चतुः पश्च- 285
त्रिचतुः पञ्च- 336
त्रिपक्षपक्ष- 751
तरिपक्ष त् परत; 589
तरिपूर्षी वा
नरिभिरते- 318
त्रिभिरेव तु 327
न्निर हू त-208
त्रिपरिधस्यापि %84
त्रिषु वणेषु 715
नैविदयप्रहितं 352
व्यहं दोद्यं 698
दक्षं कुरीन-64
दक्षिणस्तन्र 462
दण्डं चैक।दर-649
दण्डस्तत्र तु 482
दत्तं टेख्ये 282
दत्तस्व्राषप- 416
दत्तादत्तेथ शश्च
दत्तान्यपि 488
दतते वृत्ते 810.
द्रा धनं 972
द्वायक्ष- 148
श श्श्
ददयात्तमथवाः 817
टदयाश्टवपिति 614
दमदानर्ता 925
दपणस्थं 308
दरोनभ्रति- 581
दशेनाद्बृत्त- 680
दर्चेतं भति 805.
दरक तु 936
साहं स्वै- 694
दातव्यस्तन्न 185
दाता न ख्यते 497
दानं प्रज्ञापना- 897
दानक 144
दानेहतुस्तथा 8%8
दानोपस्थान 580
दापये च्छिल्पि- 604
दापयेत्पण- 667
हायादानां 840
दाराः पुत्रश्च 688
दासचारण- 850
दापख्रीमातृ 545
दास्य तु 724
दासाः कमै- 92
दासेनादा 795
दास्यायैव {२2
दिगन्तर- 157
दिनं मासा्धं~ 148
दिवः पुनरि- 886 `
दिवसस्वा- 61
दिव्यं प्रकस्प- 429
दिव्यमाङम्बते 282
दिव्येन शुद्धं 454
दिव्येन शोध- 238.
दीयमानं न 691
दीधेप्रवाि- 575
दु ःखनेह 666 `
दुष्टस्यापि 21
दुष्टं 7५
दुहितृणाममवे 918
ष्ट 144 0१ 9४९ त 414
दटोपच्!र &29
द्वण स्व् म्यो- 247
दुषयेस्िद्- 759
दुषिते त्रके 288
टरयते च 988
टस्यमानं 841
दयमानः 849
टृ्टान्तः्वेन 945
टिप 758
ट्टे पत्रे 298
द्य तद्धानकं 55४
देयुं पुत्रकृतं 579
देयं प्रतिश्रुतं 544
देयं भार्याज्त- 578
दय मवति 189
देयाप्रदानं 0 `
देवतास्नान- 458
देवव्राह्मण~ 544
देशं रं धनं 399
देशकाठविदीनश्च 138
देरकाल्वयः -118
देसकालार्थं 286 `
द् रापत्तन- 47
देशश्वैव 127
देरास्थिः्या 6
देशस्य जातेः &84 4
देशस्याचर- 5
| देञ्चस्याु- 48
देद्याचारवेरद 270
देराचःरस्थिति- ‰5% `
दशाचारयुत १68
देशाचोरेण चान्वस्तु 477
देश चरेण दध्याः 588
देहेद्रिय- 78
देवराजकृतं दोषं 162
` दैवराजकृता- &98
देवराजकृतो 161
देवषाध्ये २५
दैविकी वा 288
दोषाय 8;
६,
5 +
दाषानुरूपं 206
चरतं मैव तु 988
दयते समहय ४8
द्विणा६श 554
दभ्यं गृह्ीध्वा यटेख्यं 309
द्रभ्यं ग्रहीपवा बद बधं 516
द्रव्यस्वं {090 |
द्रभ्यहन् 876
दयोर्विदादे 734
दरद दाहः 6६5
दारमागे 226
दविगुणं द 699
दहिरणास्तृत्तरा 746
दहिजाति; 118
दिजानां 15
द्वितीयेहनि 200
दवितीयेहि ददत् 699
दरेपभो दरादश्च 790
दविपदायध- 694
द्विपदे 9
दविमेदा सा 216
दौ साक्षिणो 93
व्यं घरों 851
धनं पृत्र- 882
धनदानासहं 4१9
धनमवदिधं 8६9
तकस्योप- 273
ध्¦र् केन् 2६1
ध्मेञाञ्नविचरिण €
धमेलान्लाथं 82
धमशाद्धाथकुश- 57
धमध्तु 89
धमाथ पीति- 848
धर्मोत्छुका- 96
धायोवरद- 580
धुत वख 888
थेनावनडहि 1६0
धरुवे बूतात् 984
ध्वजाष्टुतं 818
न् कृषक 109
न कथिदाभे-. 244, 411
न कालह्रण् 889
ने कुग्रदयद 92
स् क्षेत्रगरह- 461
नखिनां दृद्धिणां 805
नगरप्राम- 364
न च (कारणं 379
न च भयकृत 569
ने च याचेत 680
ने च्ारके 584
च [थ्साद्ध- 190
न पद्ध्ान्क्- 524
न चेत्प्र्यभे- 870
न चेकस्मिन् 190
नं जतु ब्राह्मण 489
न तत्र रोप- 756
न त॒तरन्या 616
न तत्सिद्धि- 292
न तस्य 13
न तस्यान्येन 111
नतु दप्यो 659
न दग्धं तु 44५1
न् टदाटण~ 648.
न दाता तत्ते 551
न दिव्यैः पक्षिभि 306:
न देयं तेरु 48}
न प्रजान 21
न त्रग्रदक्षर- 4-9
न भता नैव 911
न भत्रं 465
न भोगं कस्पये 580
न मयारहितं 196
न भूतं 861
नयेच्छुदधिं 290
नराजातुश्
नतैकानदेष 636
न लेखकेन 2¶ `
न ठेखयति 189
न लोहशिल्पि- 424
न रङ्कु 414
वित 0 पशष `
नश्स्थान्वे- 589
नस्तं ष्रा्रु- 780
न् साक्ष्यं तेषु 868
न सायं साक्षिभि- 868
न कछीभ्यो 497
न स्वाप्रीनच 114
न हीनपक्षं 97 ।
नाज्ञानेन हि 741
नात््येने 278, 880
नान्ण्तप~- 514
नादधान्न 694
ननापौर्- 678
नानायुध 678
नानश्न्देह- 6
नन्यथा तत् 51
नाप्राप्ठव्यव- 559
नारी खल्वन-- 980 `
नाैयेत्ृत- 662
नादिज्ञातो 116 _
नाविधानां व 875
नाशक्तौ 116
नाशिकस्तु 614
नास्वतन्त्राः 488 `
नाहमेवं ११५
निक्षिप्तं यस्य 598
निक्षिप्तं बृद्धि~- 506
निगूढां 184
नित्यकर्षो- 119
निधिर्निष्फल-- 950 =
निबन्धमवहैत् 581
निमज्ञ्योत्छुवते 445
नियुक्तेरपि 68
नियुक्तो यस्तु 652
निरस्ता तु 264
निरूढो 114
निण॑यः ख~ 289 `
निणेवंत् ५]
` निर्णयश्च 259 = `
निर्दिषटेष्वथ- 400
निदोषं दशै- 649 `
§
क कि
निदाध नद्धत 555
निदोषं ब्रथितं 297
निधना बन्धने 966
निधना प्राप्त- 970 `
निधनेरन- 56
निमीजयेन्न 848 `
निवासं कारये- 72}
निवत्यं तत् 295.
निवृत्तास्तु 800
निवेचक्षपया- {53
निवेद कालं 124
निश्चयं स्मृति- 261
निश्चितं ठोक- 141
निष्ठुरा याश्च 98
निष्कृतीना~ 949
नै 8र{ंढ 769
निष्पाधयपानं 744
निसृष्टाः कष्य - 469
नियुष्टथेस्तु 479.
चषद्राहु 484
पस्य 34
द्पापराधिनां 884
नूपेणैव 84
क्पे परयति 855
पो दमं 528 .
नेच्छन्ति 480
नेत्रण 458
नेगमस्थेस्त् 49
नव याचेत 298
नेव रिक्थी 115
नोच्कृषटश्वाव- 848 ` `
नोपमोगे 816
नोपश्थाता 02 _
नोपस्थितो 160
न्यग्भावकरणं 771
न्यतेयुर्बन्धु- 846
न्यायमागा- 76 _
न्यायश्चाखंमति 72
न्यायशाघ्लावि 88 .
न्यायस्थं ने- 159 ` `
न्यायेनाकम्य -28
न्यासदाषाद् 604 `
न्याचादिकं ` 596
न्याप याचित्के ५58 `
पक्ष्य 229 ४
पक्षेकदशव्युप्येव 188
पक्षकदेशे 189 |
पश्चनघुः: 494 |
पृ्चप्रकारं 220
पश्चरात्नर- ‰48 =
पश्चधिकश्य 420 =
पच्चारदा- 382
पणानां ग्रहणं न 109,490
पण्यं गृहीता 507 ``
पतनीये- 769
पतिजुश्रष- 856
पत्या चान्यवि- 835
पत्ना भतु~ 926
पतस्थः 282 =.
पत्रे विलिख्य 382 ` `
परं निरस 871
परतन्त्राश्च 96 ` “
परत्र भीह 64
परदेश।द् 826 : .
परभक्तोप- 86 .` ..
परराषटात् 688
परपूर्वैक्लिये 564
पराजयश्च 246 ` `
परिचारकं- 728 `
परिभुक्तं तु 696
परीक्ष्य का-ॐ8
परोक्तः स्यातं 2:6
पं दिरसत- 605
पठयना- 208 . `
पठायिते तु 704 `
पवित्रं 5.
प्ी- 316
पश्चाःकारो 264
पश्चात्कारनिजदध 294
पश्र 886
न
1;
पुश्चादत्म- 615
प्राण्डुठेः न 181
वायुयो [ करि 459 `
पाषष्य कट~ 98
पार्थिवैः 412
पित्रो अ!तर~ 888
पिता बन्धुः 568
पिता स्वतन्वः 466
पित्तश्चेष्पवतां 425
पितृपैतामहं 128
पितम्यां चेव 919
पितुमातृपति- 902
पितणां सूदभे- 551
विश्यं पिच्यणे- 849
पित्तणें विद्य- 589
पित्रा इ्- 555
भित्रा मुक्तं तु 326
पिन्ना श्रत्राथवा 908
पीडयेद् भतस - 526
धीडयेत्तु धनी 589
पीडनेनोप- 585
पुंसां च षोडश्चे 844
पण्यानि पाव~- 759
पुत्राणां त चग्रो 858
पुत्राभवे तु 560
धुत्रेणापि सम 561
चुत्रेणेवाप्~ 571
धुत्रे राज्यं 94४
पुत्रश्च तदभावे 562
धुनस्तन्र. 445
धुरा गरहीत 179
पुरा स्या- 118
पुगप्रेणि ११६
पूवे चवीडिता 780
धुवं दच्रात् 577
धूवेन्यायत्रिधि- 165
पूतरेपक्चं स्वभारोक्त 181
पृवेपक्षश्चत्त- 31 _
पू्पक्षश्रुता- 159
_ पूवेपक्षाथ- 159
पुवैपश्चो मेत् 129
पूवेवादी क्रियां 188
पूचव्[द्।प ४15
पूवो शीतर 450
पूव्ाभदे ९44 |
पवाक्तदुक्तरेष्र स्यात् 944
पूदढाक्तादुक्तशेष च 946
एषतो वाजु- 581
पतामह च 540
पैतामहं त 556
पतामह समान 889
पौगण्डाः 845 4
प्रकारं च 616
प्रकारं देवनं 939
प्रकक्ि वा 615
प्रकाश विक्रयात् 724
प्रकुयुः सवै- 668
प्रकृतीनां 951
प्रक्रान्ते साहस्र ११9
प्रस्यातङुङ- 344
भरगत्पः £
मग्रह्याच्छिनि~ 824
प्रच्छ वा 810
प्रच्छादितं यदि 885
प्रजानां 15
म्रणारीं गरह- 752
प्रतिकालं 499
म्रतिन्ञादोष- 141
भरतिज्ञाय 109
परतिदत्तं तदधं 182
प्रतेदत्त मया 177
प्रातपत्त त 888
प्रातरूपस्य 956
म्रतिलामत्रसूतानं 788
प्रातेत्योमप्रसूता या 864
्रतिलमप्रसूतष्ु 40 =
तिवाक्यगर्तं 191
म्रातिगदी न 95
प्रतिवादी भवे 385
मरतिवादी यदा 468
4४54 तत ए १५ पत ८.५
प्रतिवादी स 89
प्रतित्रदं इ'द~ 553
परतिश्तस्या- 643
प्रतिष्ठा 82
प्रत्यक्षं देशयेत् 888
प्रतयक्चषमवु- 288
प्र्यधिनार्थिना 38
मलिनः 212
प्रत्यर्थं च 31
प्रत्यकक 380
प्रनष्टामम- 320
प्रपय कारणं पूवे 191
प्रपद्य कारणं व्रया-170
प्रभुगा ज्याप्त- 488
प्रमाणं सभिक्- 942
प्रमाणं पव् 468
प्रमाणदेल 51
प्रमाणमेव 894
मप्ाणस्युदहि
प्रमाणेन त॒ 954
प्रमाणेषु स्प्रता 813
प्रमणे्वादि- 248
परम.गेहतुना २५1
म्रमापने 792
पृग्रतवसाध्ये 25
प्रयुक्ते चान्त 298.
प्रयोगं कुवते 626
प्रयोगो यच 601
प्रयोजना्थ- 878
प्रशोञ्गं न £€84
प्रुषा ंश्च- 686
म्रञ्यावाितं दं 486,
96
पर्रञ्यावस्षितध्ेत्र 869
मन्रज्यावसिता य॒त्र 721
प्रत्रञ्याव्रासता यें 6179
त्र ज्यावसिता {31
प्रसङ्खविनि 620.
प्रस्छर्व्यभि-- 441
प्रसद्य दापये-- 940 .
` एषम् 0 स व- ४9१8 '
प्रह्ततादष्पं 187
मस्तु ताधप--- 88
प्राकार भेदये- 09
पाक्नस्य 675
प्राडन्ाय स च 45
प्राड्विवाश्थ 70
म्राडविवाको नियु- 842
प्राणद्रव्याप- 804 -
म्राणस्षरय॒- 646
प्राणात्यये तु 482
प्राणान्तिक- 289
म्रातरुत्थाय 58
प्ातिभाग्यं तु 589
प्रातिभान्या- 561
प्रातिलेम्यग्रसूतानां दिव्यं
455 |
म्रातिटोम्यप्रसतानां नि488
पराप्तं वानेन 803
पराप्तं शिस्पेस्तु 904
प्राप्तकठे 607
प्रा्ठमतस्तु 651
प्रप्ठ॒यात्सादुस पूवमामे
660
प्राप्चुयात्साहसर पूवं तस्मात्
718
प्राप्ठयारसाहसं पूवं द्रव्य.
छ `
'प्युयात्साहुस पृवेमा-5%7
प्राप्ठुयाल्छद्स पूठम्र-590
म्रायुश्चित्त च 472
प्रायो दासी - 720
प्रीया दत्तंतु 8्ण
श्रतिदत्तन 508
प्रीया निसुष्ट- 908
>ष्यान्वाधुषि- 4283
गोषितस्य त 845 +^
प्रोषितस्या- 545
मोषितस्वामेका 469
ग्रो घते तततः 588
पकं पु्पं च 760
ध्नी यादृन्भ- 809
बन्धुदत्तं तु 918.
बन्धुनापहृतं £88
बन्धूनायप्यमवे 865 =
बन्धुनामर्ष 8&&
बलात्कार 657
बुादकामं 527
बलाबलेन 181
बलद्धतष्ु- 229
बह प्रातन्न 187
बहुभिश्च 408
बहूनां तु 756
बहूनां संमतो 69
बाठधाज्री- 7४६ `
बालपुत्रा- 574
बराटपुत्रे मृते 845 ५.
ब्ाछबद्धा- 969
ालश्रोतिय- 830 .
ब्रह्मचार 88}
नह्मण्यो 1
ब्रह्महल्ासुरा- 93
ब्रह्मणं तु 11
ब्राह्मणस्य हि 717
ब्राह्मणानां 680 `
ब्राह्मणो य॒त्र 6१¶
ब्रह्मपवं 449 _
न्रगरानििथ्येति 404
बरहीप्युक्तौपि 00
अक्षितं सोदयं 597
भगिन्यो बान्धवः 917
भङ्गे च शृङ्ग 446
भज्ञरन् आ्ातृ- 885
भष कृणाति 05
भयत्राणाय 6458
भयव।जत- {48
मतुः पित्रोः 900
मर्तः स्वाम्यं ५04
भतुरथं 578 `
भतृदायं मूते 907
मला पुत्रेण 546
11;
भावित चेत् 84 |
भाविताः साक्षिणः 384
भाषान्नरण 176
भिन्नकङे तु 895
मुक्तिरेव त 814
भुक्तिरेव हि 226
भुक्तिथख्वती 529 . :
भक्तिप्तु दिविधा 917
भ् ञ्जीतामरणात् 921
भूतानां 1४:
भूमेद्ग हि 688
भूमा नित - 180
भूमौ विवाद- 152
भूर्न 886
भूस्वापी तु 16
श्रुतावनिश्ि- 656
भोक्ता कमशल 595 _
भोक्तुमहंति 9%8 ..
भोमएव तु 858
भोगा तत्र 385
्रातरस्तेपि 893
भता वा जननी 928
भ्रातुः सकाल्चात् 901.
भ्रातृमातपित- 894
भ्रात्रा पितृन्य- 846
मणिषुक्ता- 510
मतिम्न्पद्यते. 133.
मतिर्नोन्सहते 13;
मत्तनोप- 271.
मतन्मत्तेन 698
` मद्पल्ी- 426
` मधुश्षीर- 449
मठष्यम।रणे 94
मदष्याणां 789.
मन्नय्गातदा 44
। मान्त्रण्। य॒त्र 19
हि 5१२,
मया गृहीतं 18;
पठुकामेन 544
प्रहता 19 78
अहः "दषा 2899 |
महपातश्युकाना 497.
महपातेकयुक्तेषु 481
महापातकयोक्लौ {2
मप चिश्त् 155
मादापिवृद्टिज- 427
मातापि पितरि 851
मत्रष्वयु- 569
मानवाः घ 828
मानुषीं तन्न 215
मा वषी टेख्य- 216
म।यायोग- 89
माषपादो 491
माषो ईिरति- 498
मित्रादिषु 958
मिथ्या चैतरक - 189
मिथ्या तत्तु 16४
मिभ्याभियोगे दण्व्यः%78,
34९0
भिभ्येतनन- 169
भिथ्योक्तो स. 245
सुत्त वञ्च 693
युर्या पतामह 318
षदं वा 88 |
मुद्राश्चुदध ५96
धुषितः श्वथं 818.
मूखेटेन्धेश्च 488
मूक वा साक्षिणो 157
मूलक्रिया तु 388
मूलनयन- 615
मूरथ तद्ाथेकं 516
मट्य तदद्ि- 689
मूल्यं कन्व तु 898
मृष्य॒मे 913
` मृह्यार्स्वल्प~ 719
बृ त्ाक्षे 302
स्तै पितरि 587
मूते भतैरि भर्चसं 924
मृते भतंरि या 887
मेखला अम 752
बटश्वोन्पःद 861
0 षः
मोहाल्रमादात् 775
मोष्द्रा यदि 198
स्परृतिशालं 88
भ्टेच्छश्वपाक- 948
यः श्रावितः 574
यः सक्षी नैव 404
यं धमं द्थाप- 88
यं परपरया 891
यत्त च)पााधेक् 904
यत्तैः प्राप्ठं 6
युच्वसस्पाक्षेत- {70
यत्परदव्य- 810
यत्पुनंभते 696
य॒च्र कमाणि 14
यन धमा 73
य॒त्र वे भावितं 4085
यत्र स्यात्परि- 776
यत्र स्यात्सोपधं 288
य॒त्र हिंसा 565
य॒त्राधिक्रियते 52
यत्रोक्तौ 492
यत्रोपदिश्यते 46
यथा कारोप- 888
यथा क्षीरं 8%8
यथाभियोगं 619
यथा य॒था भवद् 782
यथा य॒था विवा- 882
यथा्थमुत्तरं 192
यथाहमेतान् 54
यथ] टेख्यवेधा 2638
यथाशकेल- 884
यथाशक्त्या ५6४
47444 0१ 4८4५143
९,
थोक्तं तस्य 953
द्! कुन 68
यदा तु पाथ 661
य॒दा तु सस्थिता 269 `
य॒दा त्वेव 148
यदः मृकृष्ुप~ 617
यद्! शद्धा 409
यदि ठयं 606
यदि छ्न्धं 804
यदि संव्यव~ 468.
यदि स्थायुक्ति- १9५.
यदि स्वं नेव 620
यदि द्यादावु- 590
यदि दकतरौ 912
यंदेवमाह 177
दतं यच्छतं 464
यदुं दत्त- 554
यदेयं तृ भि- 558
यद्द्रव्यं तत्स्वकं 640
यद्द्रयेरन्ध्यो- 848
यद॒त्तदा- 520 |
यथ्दाचयै- 87 `
ययो दयेत् 589
ययेर्दे्च 219
यचेश्चे मानुषीं 215
यट्ल्युस्त 17६5
यद्न्धं दान- 879
यशोशृत्त- 804
यश्च र्र् 186.
यस्तत्र सद्र 757.
यश्तु काव॑- 372
यस्तुन 718
यस्तु सवेस्व- 521
यस्वाधिं 526
यक्तिवन्द्रिय- 106
यस्मातकार्य- 18.
यद्परात्तदाख- 905
यर्प्ादषहूः- 819
यस्मादतः 13
यस्माद्भत् 725
1278 ८ 07 त 47.८६8
य॒स्य देशस्य 46
यस्य दोषेण 894
यस्य द्रव्येण &15
यस्म यो 960
यस्थ बाप्युपार्थे 655
य॒स्य वाथ- 123
यस्य॒ स्या- 12४
` यस्यार्थे येन 540
ग्राचमानाय 28. 104
याचि तानन्तरं 595
यांचितोधै- 606
याच्यमान 505, 506
याच्यमानो न 605
यातु कार्यस्य 648
यावजीवं न 9२५
वन्न ददत् 580
यावन्न पैतृक 568
याव्रानध्वा 661
यावान्यस्मिन् 184
या स्वपुत्रं 578
युक्तिचिह- 280
युक्ियुक्तं च 6171
युक्तियुक्तं तु 39
यु क्तष्वरप्यस- 257
युद्धापदश्- 8588
यं तत्र पत्र 74;
येन कामस्य 401
येन ते कूटतां 280
येन दोषेण 48४
यन येम ४22
येनात्यथं 794
येमेोपात्तं हि 524
यश्य संस्कियते 608
योगाधमन~ 655
योऽगुणान् कीते- 778
यो दशन 588
यो यस्य प्रातिभू- 585
यो यस्य 91 |
यो याचितकमादाय तम-
502
यो याचितकमादाय न 619
यो्थिनाथः 170
यधरिद॒प्रानं 520
ोषिद्प्राहः 57
या ह।नवाक्युब 2०9
रक्त रदधत् 447
रथ्यानिम॑नन 514
रागादीनां 129
राञजकाय- 115
राजकीयं 258 `
२।अक्रलस 9६5
राजधभान् 948
राजन्ये 422
राञजप्रवर्ति- 670
राजान्नया 266
राजातु स्वामिने 4
२।ज>२१२य्- {716
राजप्रसाद 617
` राजादेरेन 881.
राजानं स्वामिनं 587
राजानो पनििण- 961
राजा पुर- 24
राजाथमषका- 9६6
राक्ञेस्ततः+ 5४४
ज्ञः स्वहस्त पयुक्तं शद
96
राज्ञः स्वहृस्तसयक्तं पपु-
5६
राक्ा तदणतं 726
र्लं च क्रमश 125
रान्लो दश्चाश्- 689
रम्याद्धर्बात् 19.
राह्ाश्च॑न 489
र्ठान्तरषु 708
रिक्थमाग- 858
रिक्थहरो &62
रिकं दुष्टुदं 478, 581
रोगाश्चक्तातिमरमं &-410
रागोधज्लातिभरणस्रण 457.
टञ्मक कारयू- €80
१२३३
टन्पेपि चरि §
चेन्न ६99
स् ६त्। 866
भतं स &56
लमेत 146
साभगोवा्य- 656
क भश्चतुथ! 700
लिदधितं तत् 287
लिखित पृक्त 564
लिखितं रि खितैनैवर 289
य्खित साक्षिणो 214
चिचितं साक्षिणा 242
खिचितं साक्षिणो 313
लिखितस्यंति 910
स्चिता तु 48
टिङ्धिनः श्रेणि 849
लिङ्खिगं प्रश्टानां 4%8
छेष्ठकः अङ् 355 .
छदा तु 197
लेख्यं वतु द्विवधं 249
ठेख्यं तु साक्षि- 268
टेख्यं नरिशत् 299
छ्य [विध्यते 805
लेख्यं स्व्रस्त- %69
स्यकरिया 807 `
टख्यदोषस्तु 878 `
रेख्यधमः 866 |
ठेख्यायारेण 2६66
` टेख्यामतरेपि 887
टेस्यारूटश्वतरश्च 738
लेख्यारूटश्चौत्तर- 869 `
टेख्ये च सतति 228 ५
लोकापव्राद- 418
खोफे रिक्थ 858
वत्तष्य तत् 76
वश्वनतन 776 ।
णिग्मिः स्यत् 58 ~,
वणिग्रीथी- 691 ` .
. कणजः कषक्र- 448 ।
४ -१
घणि क्ष् 588
व्ण कष- 681
वःसनाम- 448
देद्रादी 197
वधस्तत्र तुं 801
ङ्ख च्छेदा- 967
वधे चेल्प्राणनां 891
वधे तन्न 830
वधेन शाप्तय॒त् 486, 957
वनस्पतीन 799
वर्णवाक्यक्रिया-258.26
वणेसंकृर- 428
वर्णानामानु - 716
वर्णा्रम- 949
बतत चेपप्रकक्ं 985
वषि विला 299
चषाण्यष्टां 764
वमाश 364
वदथैन्दियं 8
वसेत 10
वयुदेश्च 898
वाक्परष्ये छले 408
बाक्पारष्ये यथे - 786
वाक्पारुष्ये च 289
वराक्याभवे 45
वारदण्डस्त!डनं 788
वादके तु 878
वादिने 204
ब्रादिना यद् 218
वादिनो न च 92
बापरहस्तेन 98
वाहयन् साहसं 79}
निं्चत्यन्दे 155
विंलदश्च- 419
विंशा.संवत्छरात् 549
विकृष्यम्।णे 766
विक्रयं चैव 688.
विक्रमाद्।न- 22?
विक्रये चैव 471, 641
वेक्रये चेव दाने 906.
त्रिकं च 691
विक्रतुः प्रतिदेयं ह
695
वरि: प्रतिदयं तत्त-698
रिकेतुरेव 690
विक्रोशमानां 729
विग्रह्थ 942
विघ्ठयन्वाहूके! 658
तचयं हन्कुतं 4५6
द पि ~ 29
नृपति 78
मूत्रराङ्क 261
ण्मृत्रोदक- 754
पू त्रोन्धाजेनं 720
द्यमने तु ५07
द्यषःन,प् 548
दयाधनं त् तस्प्राह- 86४
विद्याधनं त ठद्िवन् 871
विद्याधन तु तद्विबाद्वि 568
दय।प्रतिन्न या 872
द्ा्रल्कृत 875
वेन! चिहेष्तु 797
वि नानार्थ 26
विना पित्रा धनं 534
विनाश्चदेतु- 79
विनीतः 1
विनीतवषो 55
<)
€> +
ष
> ७3 -छ&) ॐ 9 ॐ 2
[न
[1
अ
त
व्रिनापि मुद्रया 503
विफलं तद् 950
विनरुवेश्च 196
विभक्ता अवि~ 854
14 भक्ताः ।पत- ६92
विभक्तनेव 844
भ्त सस्थिते 928
विभजेयुः 898
विभागकाठे 846
विभावयामि 172
।विमरष। वादना 848
व् भन्न क 394
(न
| वपृथ काग्रं 88
व्युवहार- 41
व्यत्रहमराम् स्वयं 476
4944 (7 ४444-५
विरुद्र न्यायतो 42
त्रिराधिक्रारणे- 142
> -
वृतराद्!-तर२० 24
विवाद प्रा 35
विवाहकाले या2ाच-881
विघाहुकाठे यत्छ्ली- 895 ॥
विबरहहरतो 899
विवीते स्वामिना 814
परिवेचयत्ति 69
विङुद्धिपत्रकं 255
विरेपटिखितं 519
विशोधिते 615
विप्रस्य पटल- 451
विषमत्थाश्च 107
रिषे तोप 460
विसञदे्त्र 599
वृक्षुपवैत- 107
वरत्तदेश - 771
वरत्ताठवादटेख्यं 256
तृत्तःनुव।द्रससेद्ध १६5
बद्धा वा यदि 744
बरद्धिर- 511
वेणुशण्ड- 442
वेदध्वने- 8
वेखां प्रदेशं 124
वेवाहिकं त 880
तरय दा ध५- 6;
यरबुत्त्स॒- 59४
व्य॒ल्यासरपरि- 647
व्यपति म।रवं 149
व्यभिचारं 487 ` 1
व्यभिचारत! 929 1
व्युयुं स्वानि 769
[५ ` क.
व्युवह्ःर्ाश्रितं 6४
व्युप्ठन जायते 468
५
घ््रप॒नापिष्टुने 576
व्यु(ख्यागम्य॒- 174
व्यार्पागस्वर- 175
व्याघातेघु 366
व्पाजनैव 201.
व्य्राधिनं व्युसरन- 914
व्याधिता प्रत- 910
व्यु{धितोन्भत्त 549
व्याध्यातं 108
ठ्राषादनेन 799
त्रतोप्रवाघ- 935
रक्तस्य पनि था- 299
रा ङ्ाविश्वाप्- 415
स॒ताधं 459
शपथैः च विस्ो- 797
रारास्त्वना- 442
दारीरधन- 484
दराच्रददयतन- 49
दा!लछरेण 33
शिक्यच्छदे 440
शिक्चकाभिन्न- 692
शिष्षितोपि 714
शिरोमात्रं तु 444
शिरोरुरभुज- 4६8
शि सविधा- 3353
शिल्पिष्वपरि 870
शिस्पे।पर्ज विनो 680
शिष्यं कोघन् 794
शिष्य दा{धञ्य- 869
सालाध्यरयन- 719
दो लोपचार 766
शक्तिर ङ्- 448
शु दनिष्ठीवना- 458
शद्ध।च्च वाक्या- 409
रुदणशङ्या 291
दाद्धिस्तु शाल 472
युद्धस्तु स्ये 440
रोद्रं तु क^रये- 729
श्द्रःदीन् 118
शुद्रश्च सन्तः 851
` `" पछ 07 त-प 58
दग सांलीर् 684
दाणोति यदि 77
शोणितं टरयते 455
रा।डक्रञ्याध- 568
रोधिते लिखिते 912
दावप्राप्त तु यदत्तं 874
शोय विया 877
रायविदया- 4
श्रवगाच्ह(व्र ~ 376
श्रान्त स्तृषःता ~ 789
श्रावयित्वा 19
श्रपितं 204
धति स्मृत्य- 46
श्रुत्वा माषा 166
श्रत्वा छस्य 145
ध्राव्यमाणो- 144
श्रोतारो ६9
षटूचद्वारिशके 410
ष उान्द्ङे 154
षड्दणः काय॒-- 784
षड्भागं तत्र 687.
षष्ट्या नाचे 419
सवत्धरं 158 `
संसक्त पक्त- 738
धंसक्तसक्तदेषि 740
ससक्तास्वथ 788
सं साधयेत् 229
सदष्टनां तु 952
सस्छतं येन 854
स एत्र द्विगुणः 785
स एवाशस्तु 856 `
एकर द्रव्य- 888
स कालो व्यत्रहुरस्य 62
स कालो व्यवहाराणां 61
स कृत प्रति- 582
सक्रमयेत 727
संग्रासचार - 94४
सम्रामाद्हूतं 878
स चारके 585
सचिहम्पि 958
: ४४11
स जये धते 221
प तमथ 543
सतस्य दासो 591
सत्यं ्रिथ्यै- {65
सस्यकार- 541
सदण्डपधभि-- 454
छद् चित्तं 4
स॒ दाप्यरस्लद्नं 659
सदोषं व्याहतं 554
सदोषमपि 696
स दूगकर- 947
सद्व दिव्य 281
सद॒ः कृते 154
सयः कृतेषु 153
सच एवेति 51४
सयो वैकाह- 146
चयो वा सभि- 98
सदब्ृत्ताना तु 959
सन्धिश्च परि- 701
सनामिभि- 385
स निगृह्य 610
संदिग्धं यत्र 341
संदिग्धमन्युत् 188
संदिर धमुत्तरं 180
संदिग्धास्तमतवर 178
सप्त हत 410
सप्राड्विवराकः 56
सभान्तः साक्षिणः 849
समान्तःस्थेस्तु 88.
समसदश्च 263
स भास्थानेषु 60
सभिकः कारयेद् 986
सभ्यदोषात्च 81
सभ्यानां 261
सभ्याश्च 198
, सभ्पेनावद्य- 77
प्सतं साक्षिणां ५८82
समदण्डाः 82४
समन्यूना 626 =
समर्पिते- 89 `
9 चेष
शश्ष४
सपवमाथि. दय
पप्रःठय् [धृक ना 845
दवदत 824
सम्रवतेस्तु युतं 650
सम्रढतम्त यदृद्ष्र 594
समधरतस्तु समन्द 105
सप्रन्त् {=4:.द- 4 3
प्र रुतव- 144
पमाप्रष्टत्रे 76
पद्ात्रत्तो 3598
समुःधानव्युत्र् {41
सषटद्रपि 287 `
भूरग्राद- 638
[श्र 449.
स्थश्च 884:
स्थश्च 676
हनं त् 66६
हे वभि- 679
1 त्यत्र £ 44
र॑भे तृ;
सभवे साक्षिणं 211
समिश्य कारयेन् 1742
सम्धङ् किया- 541
सम्ग्रग्दण्ड- 960
स सम्परम्भा- 311
सम्यखज्ञान- 84
घ रद्घितो 117
घपेमाजीर्- 700
घशदरव्य ~ 417
सममेव तु 44
सर्वव्र्णा- 97.
सवशःसखर-. 71
सव्ःक्येष्वम् 387
सतरस्वं त्य 646
ह्चर्वं व} 965
घ्वेस्व्रम ~~ 640
सवेस्म व्रिजिते 941
सवपलाप् 474
` सतर जनाः 755
स्वेष्रं पप 966
<11
६
सं
५
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| ।
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{4 ^ द
घ्रं ट्िगृण~ &19
सवमु चप 487
नष ~ 443
"1 1 [इ]
घठपु7- 692
०५९ ^
सवध्वर ९५1
दव्पायाचृनःङ् 599
यणा अप 87
स वादी हरते 267
सत्र मद्ध्य 529
#
सवरुद्धक प्रदाप्यः 912.
सछशघ्ःसु- ४9 ५
सभ्य! 58
सस्यम् 19
सह चत्रिय- 85
सह सभ्धः 5.
सपा य्कतं 795
घ पाक्ष लिलि 37]
सहं षटतं 4461
सह टमम- 824
साक्षिण; सनये 402
सःक्षणः पाधन् ६१२8
स्क्चण{ 3:9
सशक्षिणामपि 875
सग्चिणामुप- 245
साक्चणो यसु 267
स्क्षिर्ःषाः 382
घाशक्चदीषाद् 279
€; [& भभार्त्त- 540
सााक्षःवमाषहां 540
सााक्चेमिखद्धि- 240
साक्ष भिसतावदै- 473
साक्ष रंखक- 276
साक्षी सक्ष 408
सी तत्र न 398
सागमेन तु 319
स्या ग्रह्यानतु 219
धयेत् 488
साधारण त ६69
ध्यु प्रमाणं 125
साध्युत्रम्ःण्~ 188
4?
पध्यनृढ - 25
ध्यव!दस्य 80
पा५यस्य सायु- 168
दध्य्; ध लेपि 397
सरिध्येपि प्रितुः 550
पान्तरगरःहव्र¶- 798
स पदेशं 201
पःपन्तभत्रे 735
पु(पन्त्ा: साधन् 746
स!परभद्ःदिं- 192
सारभूतं 222
स. रन्धताो- 887
सःहूम च भत्रे 796
साहुसस्तेय ~ 158
पाह गाल्यागेके 885
सः हसी म~ 672
पिद्रेनाधन 262
सीभाचङ्कपरग 751
मर[पाप्रध्धं {69
स। पानत्रेत्रद् 257, 301
एतस्य पुन- 47}
हएुराध्यरक्षुः 4
सुपरणे श्रत 964
पुसपद्रपि 563
ददृद्धि्बनधु- 584
सोनिब्रद्वः- 58
समिधग 171
सट्ेखनं 133
सौदायिकं धनं 908
सौदायिके सदा 926
सयारयव्रद- 8385
स्तम्धप7-
हतै नसाहसि को~ 650
स्तेय पार्ष्ये- 866 `
स्तेय गहुषयो- 416
ल्लीणां त्म 351
सीवनं 970
छली यनस्येति 9
घ्रीयिबरखा- &1
प्ली श॒ल्कपु 508
छीषु ऽत्तो- 850
स्थावरे षट्- 787 .
द्वीसङ्घे सदसे 397
स्यान भरष्ट- १69 |
स्थावरे विक्रया- 311
स्थावरेषु बिवदिषु दचै-
12६
स्थावरेषु विवादेषु र्नव्या-
40
स्नेहादज्ञान~ {9
स्मरलेत्र 251
स्मातेकारे 321
स्मायते ह्याधेना 872
स्वग्रामे दर- 708
स्वज्ञानशंसना-~ 869
स्वतन््रस्याप्मनो 715
स्वदार यस्तु 728
स्वदेश घातिनो 820
भ क
स्वद्शेप१ 504
{08 08 5845-9 6688
स्वदेशे यस्य 815.
स्वभावेनैव 395
स्वथावाक्तं 92
स्वर्यं कार्याणि 27
स्वयं चौप- 889
स्वरभेदश्च 886
स्वथाते स्वामिनि 929
स्वल्पेनापि 605
स्वेद्पाक्चरः 142
स्ूस्पेपराधे 452
स्व्ररक्युहीनो 209
स्वशक्त्याप१- 866
स्वस्थेनार्तेन 5685, 654
सवहस्तरेख्यं 250
स्वातन्ध्यं हि 553
स्व।भिन् तं 761
स्वापिने नाये 668
स्वाभी तु 665
स्त्रामी दस्रा 622
स्वाम्यर्थ 878
स्वाथंसिद्धो 789
स्वेच्छया युः 64४
स्पेच्छदेयं 629
हन्यते 73
हरेद्धिन्यात् &08
हृश्व्यश्वगो- 689
हस्त्य चानां ६05
हितेषु चेव 978
हीनमूल्यं १09
हीनस्य गृह्यते 085
हीने कमणि 101
हनो ने) यदि 108
हुङ्कारः किनं 768
हृतं नष्ठं च 881
हृतं भग्नं 788
हेत्वादिभिने 779
हेमभ्रमाण- 417
नक
1
100
101
116
148
156
8110471,
ए९78€
10
33
65
120
183
2168
२40
271
847
848
444,
445
445
466
472
499
510
540
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1.4
(01.160
नरक
राज्ञाप्रचादितः
कमायातो
गरहीतम्रहण
-योक्तार् नाभियुज्ञीत
धटादि-
परिदिरयेत्
मत्तनोपधि०
प्रज्ञापनामेदः
नोत्ृषश्चाव-
किरम
दषटशरेत्
दरचि€--
पिता स्वतःत्रः
दण्डश्च
चर्णिक्ः
फलमरेटाविकस्य्
योप्रिमानं
गृह्
सामन्तमत्रे घामन्तैः
स्पृताः
समाहितः
अनिरुद्धा
श्रगरह्य चिद
~ वकत्तादमोदकः
विक्ञेषदेन-
‹ ..त]189, ° 1716828
८ 68111688
{26
11807108 {8४ 0घ]त् 06 68७] १९६९९४९ १४९8 ००४ ७९४,
{260६ 36९४
नरे |
राला प्रचीदितः
क्षमायतो
म्रहीत्रहूणो
-योत्तारमधियुञजीत
दधादि-
परिधारयेत्
मत्तेनोपाधि०
प्रज्ञापना भेदः
नोच्छषश्चाव-
श्िरोमानं
चेत्
2शचिह-
पिताऽस्वतन्तरः
दण्डवच
चेणिकम्
फाठकेटाविकस्य
यो विधानं
माम
सामन्तमावेऽप्ामन्वः
स्मृतः
समाहिताः
अनिरुद्धो
प्रग्रह्याच्छिनि-
-वक्चनुमोदकः
विरेषदेव--
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( राजयुणाः )
विनीतः शाखरसंपन्नः कोदारौ्वसमन्वितः।
ब्रह्मण्यो दानरीरः स्याव्सव्यघमेपये नृपः ॥१॥
स्तस्भोपतापयैश्युन्यचापलक्रोधवर्जिंतः।
प्रगल्भः सन्नतोदय्मः संभाषी पियदरौनः ॥२॥
वद्येन्द्रियं जितात्मानं धृतदण्डं विकारिषु ।
परीक्ष्यकारिणं धीरमत्यन्तं श्रीनिषेवते ।३॥
( राजधमोः)
रोयैविद्याथवाहुल्याद्पमुत्वाच्च विदहोषतः।
सदा चित्त नरेन्द्राणां मोहमायाति कारणात् ॥४॥
तस्मात्तं प्रवोद्धव्यं राजघ सद्ा दिजः
पवितं परमं ुण्यं स्प्रतिवाक्यं न ठङ्घयेत् ॥५॥
वेदध्वनिषभावेण देवाः स्वगेनिवासिनः ¦
तेपि तजन पमोदन्ते तृप्तास्तु डिजप्ूजनात् ॥ £
तस्ाद्यत्नेन कतेव्या दविजपूजा सदः नृपैः ।
तेन भूयोपि शक्रत्वं नरेन्द्रस्वं पुनः पुनः ॥ ७ ५
खुराध्यश्चश्युतः स्वगोच्रुपरूपेण तिष्ठति ।
कतैव्यं तेन तन्नित्यं येन तत्वं समाप्लुयात् ५ ८ ॥
आत्मीये संस्थिता धमं नृपाः रक्रत्वम्डुयु : ।
अकीचिवासिनो ये तु व्यपेताचारर्णः सदा ॥ ९ ॥
गच्छेत्सम्यगविज्ञाय वदो कोधस्य यो नुषः
वसेत्स नरकं घोरे कल्पाधं तु न संरायः॥ १० ॥
का व क कनकणककषे ।
1-8 छत्यकत्पतर, वीर ० ( राजनीतिप्रकाश्च „ 7. 120-121.
4-5 वीर ० { राज० ) }. 186, कृलक्स्पतर्. = `
6.8 कृलयकत्पतर, वीर० ( राज ° ) ए. 189
` 9 छत्यकलत्पतरु, वीर० (राज ०) 1. 145
10 इृदयक्ल्पतर्, `
केपेतेषां तु ब्रवर्तयेत् ¦
स्मादेतेः सदा वाच्यं न्याय्यं खुयरिनिष्ितम् ॥ १३ ॥
यत्र कमणि नृपतिः स्वयं दयति ध्भेतः
त्र साधुसमाचार निवसथः खखं प्रजाः ॥ १४ ॥
प्रजानां रक्षणं नित्यं कण्टकानां च दोधनस् |
द्विजानां पूजनं चेव एतदथ छतो नृपः ॥ १५॥
भृस्वामी तु स्मृतो राजा नान्यदढव्यस्य सवेदा ।
तत्फलस्य हि षड़मागं प्रप्लुयाघ्चान्यथेव तु ॥ १६ ॥
भृतानां तन्निवाप्सित्वात्स्वाभित्वं तेन कीर्तितम् ।
तात्या वटिपडमागं युभायुभनिभित्तजम् ॥ १५
एवं प्रचतते यस्तु लाभं त्यक्त्वा चराधिषः ।
तस्य पुताः प्रजायन्त राट् कराश्च वधते ॥ १८ ॥
अन्यायेन हि यो रटत करं दण्डं च पार्थिवः)
सस्यभाग च शुख्क चाप्याददीत स पापभार् ॥ १९१५
अ्थराखेषक्तमुत्युञ्य धर्भचाखोक्तमावजेत् ॥ २० ॥
दु श्रस्यापि नरेन्द्रस्य तद्राघ्रू न वचिनारायेत् ;
न प्रजालुमतो यस्मादन्यायेषु घरवतेते » २१ ॥
अङ्केरोनाथिने यस्तु राजा सम्यङ् निवेदयेत् ।
तत्तास्यस्यनन्तं स्यादधमो दनसयीदराम् ॥ २२ ॥
न्यायेनाक्ूम्य यद्छब्धं रिपुं निर्जित्य पार्थवे
तच्छुद्धं तद्देयं तन्नान्यथोपहतं काचित् ॥ २२
1
11-18 इत्यकलपतर, बीर० ( राज० } ‰. 178. `
` 14.15 कृत्यकस्पतर, वीर ० { राज ० } ए. 254.
16-17 कृत्यकल्पतरु, वीर० (राज० } . शा. =
18-19 वीर° { राज० ) ए. 276. कृत्यकसपतर्. `
, 20 मेघा 0४ मनु 7.1
: 9 बीर०( राज° ) 2. 411, इत्यकल्पतसं
‰2-28 छृत्यकत्पतर्,
वि नानाथंऽव संदे हरणं हार उच्यते ।
नानासदेहहरणाद व्यवहार इति स्छतः ॥२६)।
न राजा तु वरित्वेन धनलोभेन वा वुनः।
स्वयं का्यांणि कुर्वत नयणध्मविवादिनाम् ॥२७॥
उत्पादयति यो हस्तां देयं वा न घयच्छति ।
याचमानाय शौःरील्यादाक्रप्योसौ नृपाज्ञया ।।२८॥
दिपदे साभ्यभेदात्त॒ पदाददातां गते ।
अष्टाददा क्रियामेदाद्धिन्नाल्यष्सह खाः ॥२९॥
साभ्यवादस्य सूट स्याद्धादिना यच्चिवेदितम्।
देयाप्रदानं हिंसा चेव्युत्थानद यमुच्यते ॥३०॥
पूवैपक्षश्चोत्तरं च प्रत्याकलितमेव च ।
करियापादश्च तेनायं च तुप्पात्स्दाहतः।३१॥
धर्मदाखा्थ॑शाखे तु स्कन्धद्धयसुदाहतम्।
जयश्चैवावसायश्च दे फटे सञुदाहते ॥३२॥
24 स. वि. {. 20.
25 अपराकं ए. 596, स्यतिच० 11 7. 1, वीर० 7. 5, परा. मा, 7. ?. 6.
26 .व्य॒ भा. 0 288, परा. सा. 11. 2.17, कुष्टकं 00 मनु 5. 4.व्य. मा.
79808 स्थितिः {02 स्मृतः. [
४7 ज्य. मा. . 285, टोडरानन्द, कुष्ट ०० सनु 8. 48. व्य. मा. "ध्व न
गमविवादिनाम् 0" नराणामविवादिनाम् | | |
28 व्य. मा. . 288, अपराकं 7. 605
29 स्खतिच० गा. 2. 3 ( 10 एषा व्ण), परा. मा. पा. 2.20 , =
( ०6४५8 भिन्नान्यथ सहुखधा )
80 स्यएतिच० 7. ४. शा 1
81 अपराकं 2. 616, बार० }. 59, स्प्रतिच० 7. 2. 27. `
ॐ स्टत्चि° रा. श द
कात्यायनस्य तिस्छसेद्खारः
सेए १ त्वथसुख्यो राज्ञा प्रचोदित
पुव स्तोभकः स उदाहतः ॥३६॥
पस्य स त्या सच कः स उदाहतः \:३8॥
( धस-व्यवदर-चरित्रि-राजक्चासनादीनां बलबछदिचारः )
दोषकासी तु कतेत्वं घनस्यासी स्वकं धनम्
विवादे व्राद्वयाद्यच यरणेद् ख लिंणयः ॥३५॥
स्मृतिराखं तु यत्कचिल्परथित धमसाधक्ः
कार्याणां निणेयाथं तु व्यवहारः स्यतो हि सः\ ३६॥
यद्यदाचयेते थेन धम्य वाधम्यमेव वा|
देशस्याचरणा्नव्यं चरित्रं तत्प्रकीतिंतम्॥३७॥
न्यायदशाल्लाविसोषेन देदादप्रेस्तथेव च ,
यं धमं स्थापयेद्राजा स्याय्यं तद्राजशासनम् ॥२८॥
युक्तियुक्तं त॒ काय स्याद् दिभ्यं यत्र विवजितम्
धमेस्तु व्यवहारेण वाध्यते तच नान्यथा ॥३९॥
प्रतिखोमप्रसूतेषु तथा दुगेनिवासिषु ।
विरुद्ध नियतं भराहुस्तं धमं न विचालयेत् ५ ४० ॥
निणैयं तु यदा कुर्यात्तेन धर्मेण पारर्थेवः ।
व्यवहारश्यरिजेण तदा तेनेव वाध्यते ॥ ४९ ॥
[1
1
83 स्खृतिच ० (11. 65, परा. मा. 11. 45, वीर० 2. 51. प्रा. मा. २०४द्ह
त्वथं सुख्यश्चाथंः ४20 व।र₹० 26४45 यत्पद, स्खतिच ० ८७९५8 मुख्यश्चाथप्र °
34 स्सृतिच ० 111. 65, परा, मा. 117, 45, वीर० ‰. 51, करि > ९४08 चश्पेण
विनियुक्तो ..* दोषानवेक्षणे, परा. मा. ८6०48 चपस्य समर्य ज्ञात्वा.
85 स्मृतिच० 11. ए. %1; प्रा. मा. [य }. 16, वीर० ‰. 9
86 स्डतिच० 7177 ?. 29; कलयकस्पतस, परा. मा. ए. 1, वीर०.१. 9. वीरण
18808 नियमाथघरु 0 निणयाथं तु; कद्यकत्पतर् २७६१8 निणयार्थे च ४6 `
स्तिरा
97 स्यतिच ° 111. 2. 22, परा. म. ए. 17, वीर० }. 9, योडरानन्द, रोडरानिष्द
२९४१६ संयुदाचयते येन धमो वाघ एववा. | |
88 स्खतिच० { }. परा. मा 2. 17 कीर ‰. 10
ॐ कीर 0. 120 |
40-41 रोडरानन्द, वीर० 7. 120
शु
ऋाद्यायनस्खछतिश्वारोद्ारः 9
+
म
न वादः (वं रं क) |
विर्् न्यर्यला यच्छ चरन्त कैर्स्त्यत्त चुः;
1
॥1
#॥।
एवं तच्च निरस्येत श्रि तं इुपाक्ञथय ) ७२ ५
अनेन विधिना युक्तं चचक थवदुंचर्स् ।
अन्यथावधन् यथ दथ चथ लिह्शस्यते | ८३ \
छदाश्ष्य परस्मा |
६९१ रदा दत वक्यं स्वयं स्तः ॥ 22 ॥
खादुखारेण यजः कायण साधये
सवषां देदारश्रेन खश्चयेत् ।! ४५ ।
यः धः प्रच सावैकाडिकः
वैरोचन देदादष्टः सख उच्यते! 8
देदरापत्तनगोषटेषु पुरश्रामेषु वासिनाम् ।
तेषां स्वसमयेध्द्लाख्लतेल्येषु तैः सह ॥ ४७ ।
देरास्यायुमतेनेव व्यवस्था या निरूपिता)
छिखिता तु सदा धयो सुद्धिता राजसुद्रया ॥ ४८ ॥
|
& (९
राखवद्यत्नते श्श्य तां निर्य विनिणयेत् ¦
नेगमस्थस्त यत्काय लिखितं यद् व्यवस्थितम् 1४९॥
तस्मात्तत्संप्रवर्तेत नान्यथव प्रवर्तयेत् ॥ ५० ॥
प्रमाणदेरादष्ट तु यदेवामति नाश्चतम्
42 टोडरानन्द् वीर्०° 1. 121. वीर ० ८6208 बुधः 0? नृपे.
48 टोडरानन्द, कीर० ». 121.
44 अपराकै 7. 599, स्खृतिच० [व 7. 57, वीर्० 1. 124 (ल), २९४९8
राज्ञासस्ति वाक्येष्वियं कतिः ). स्मृतिच० 6४08 अस्वग्यछोक ° ४४ अयु
्वीयहरा | |
45 अपराके 9. 599, स्पृतिच, 2. 57, परा. सा. 77 41, वीरण © 124 स्म्तिच०
| 16848 दष्टं तं, अपर क 16४05 तन्नयेत्. परा. मा. 9४ स्मृतिच ° २6०५
°टष्टमतं नयेत्,
46 स्रतिच. [11 58, परा- मा. [7 7.41
47 स्मरतिच. 1. 58, परा. भा. [ 7. 41. परा. मा. ८6४68 वादिनाम् &णत
| धमः राख्लतो & |
48-49 स्छतिच० 111 58, येडरानन्द ( 1760 ७९१8 ठेखिता तु सदा कया
केखिता राज० }. ।
50-51 टोडरानन्द. | . नि अ,
10 काल्थायनस्डलिसासेद्धारः
अग्रघत्तं छतं थच श्रुति स्म्त्य्चयोष्ितस् ।
नान्यथा तत्पुनः काथ व्यायाचेतं विवजेयत् । ५१1;
( धरमाधिक्ररणं }
धर्मद्राख्रविचारेण मृटखसारविवेचनम्
यजाधिक्रियते स्थाने धमाधिकरणं हि तत् ॥ ५२ ।
प्रातरुत्थाय नृपतिः दध्यं कत्वा समं
गुरं ज्योतिरिव वैदाप्देवान्विपरान्पुसेष्ितान. ५५३॥
यथाहैमेतान्क्ंपूञ्य इपुष्पामरणाम्बरेः !
आभिवन्य च गुचः दीन् सुसखा प्रविशेत् सभाम् ।\*४॥
विनीतवषो नृपत्तिः समां गत्वा समाहितः
आसीनः प्राङ्छखः सिथत्व पदयेत्कायोणि कार्यिणाम्
सदह बेविधघुद्धेश्च उन्धलेश्ेव मन्विभिः ॥ ५५ ॥
सथादविव्ाकः समलयः खन्राह्यणयपुरोहितः
ससभ्यः पर्चो याजः स्वम तिष्ठति धमतः ॥
खद सभ्ये: स्थिरकः पाक्ञेमेलिर्दिजोत्तमेः।
धमेरासराथेङुरखेरथदयासरविरारदैः ॥ ५७ ॥
कुरुरीरुबयोघ च धिचतवद्धिरमत्सरेः
वणिग्भिः स्यात्कतिपयैः द्ुखटभूतेरधिष्ेतस् ॥ ५८ ॥
[1
52 स्णतिच ° 111 }. 42, परा. मा. 114. ए. 22, वार ए. 11 (णठः २९६व्8
धपनसाद्लावुस्ारेण अथदा।छविवेचनम् )} #
53-54 प्रा. मा. 11. }. 22. 10688 815 296४1064 ४ वृहस्पति ए स्खतिच ०
( आ 7. 34 }
58 स्रतिच० 7 ‰. 59, व्य, मा. 7. 78 ( ¢ ४0 10७8 )
56 मिता० (०ण्या. 1.2) व्य्. मा. }. 278, स्यृतिच. [7 2. 30, परा. मा
11 7. 31, वीर० 7. 41
97 मिता (००या. 7. 2), व्य. पा. }. 278, स्दतिच० 11. 2. 33, वीर
41. &1। 6>06}0४ च्य, मा. ८€ष्दसतु सभ्यः व्य. मा, ८९६९६ पन्ञामूहे णिः
श्र्ञिम।छेः 8०4 युक्तः {01 युक्तैः. राज. र. 1. 8¶ 1४8 6 8[{ ९६86
धमर
88 मिता ( ण याज्ञ. 1. >); स्पृतिच. [7 2. 38, परा. मा. 7 ए. 32, बीर ॥
ए. 41; -यवहारतत्व }. 199. स्शतच ° 1०४4६ दातत 10 शरत्त
तारो बभिजस्तचं शतैदयः व्यत्यद्हिनः 1; ५९ ॥।
( कःयेदद्चनफाछः }
भास्थानेषु पूवो कायां चिथेयं दपः
कुयौच्छासखध्रणीतेन सा्णासिन्नकषेणः ॥\ ६० ॥
दिवसस्याण्म भागं युक्त्वा कालचयथं तु यत् ।
स्न् कटो उयवद्ासयणां दाद्छद्ः परः स्मतः॥ ६१॥
आादहोष्टमागायदुर्ध्वं भागत्रयं भवेत् ।
सख काल व्यवहारस्य राधे दो सनीषिध्भः ॥ ६२;
( प्राड्विचाकः )
यदा कुयौन्न नृपतिः स्वयं कायविनिणेयम् ;
तद तच्च नियुञ्जीत बाद्यण रशाखपारगम् ॥ ६३ ॥
दक्षं कुलीनमध्यस्थमनुद्धेगकररं स्थिरम् ।
पर भीरं घर्मिषएठसद्यक्तं काधवलजितम् ॥ ६8 ॥
अक्रूरो मधुरः स्निग्यः क्षमायातो विचक्षणः ।
उत्साहवानलव्धश्च वादे योञ्यो चपेण तु ॥ ६५॥
एकशाख्नमचीयानो न विद्यात्कायनिश्चयस् ॥
तस्माद्रह्ागमः कार्यो विवादेषत्तमो चेपैः ॥ दद ॥
ष
>
म ना ४०००५
89 स्षृतिच० [1 ‰. 38, परा. मा. पा }. 51, चीर० }. 41. स्तिच ° ८७४५8
| न्यायदशन |
60 व्य. मा. 9. 284, वीर्० 0. 28. व्य. सा. 1808 सभास्थाने तु ४० शास्र
प्रमाणेन
61 व्य. मा. . 284, वीर? 1. 28; परा. मा. 111. ए. 28, च्यवहारतततव [. 200
62 अपराक्तं 1. 601; स्म्ृतिच० [1 . 66 |
68 व्य. मा. }. 279, स्छतिच० 7 7. 36, राज. र. 2. 18, चीर० 2. 88
व्य. मा. 9 राज० र. ८€४त यदि कायवच्द्रजा ने पदयेत्कायनिणयप्
व्यवहारतत्त्वं ए. 198 76908 यदा कायव्या . --णयम् (88 व्य, मा. ५०८७)
69 मिता८०ण् या. र 8.), स्यति. {11 ए. 86, व्व. सा. . ‰9, वीर.
1, 88. मिता %4 व्य. मा. ९४१ दान्तं कुखीनम् १;
65 स्मरतिच. 7 2. 36, परा. मा. [आ 29 ( ००४ महव 98 कात्यायन'8 एप
{07 स्मृत्यन्तर )
66 अपराकं 2. 601, स्यरतिच० ( 7. 36, राज. र. 2. 29; वीर. ए. 38
अपराके 16848 एक सुलपथाते यो न &०१ राज. र. ८6948 एत सान्न °;
राज. र. ८6४१5 तर्षएदय्।गसः काय विवादनोत्तसो, ५
ब्राह्यणो यत्र न स्यतु श्रियं तत्र योजयेत् ¦
यं का ध्थ्ाखङं रषं यत्नेन वसयेत् \ ६७ ॥
अतोन्येयत्छते कायमन्यायिन छतं ल वत् ¦
नियक्तैरपि विजेये देवादचद्यपि रास्रतः | ६८ ॥
व्यदषटरपश्चितं चश्च पृच्छति प्राड्िति स्थितिः।
विवेचयति यस्तर्पिन्वाड्षवेवाकस्वतः स्छतः ॥ ६९ ॥
अनिर्णदे तु यद्धं सभेत रद्धधिनः |
प्राड्विवाको दष्डन्यः स्याल्खभ्याश्चैव विरेषतः।७०॥
( सभ्याः )
अदुन्धा धनवन्तश्च धमंज्ञाः सत्यवादिनः ।
सवदस््रप्रकीणाश्च सभ्याः काया द्विजेत्तमाः ॥ ७१ ।
न्ययराख्रमतिक्रस्य सम्ययेच सिनिश्चितम्
तच्च धम् छध्म्ण हतो हन्ति न् खयः ॥ ७२ ॥
यत्र॑ ध हय्यसण सत्यं यचारुरेन च|
हन्यते प्रष्वधाणानाः इतास्तन्न सभारःदः ५७३ ॥
५
अधमतः पृष्ठं तु नेपिक्षेरन् रमःसदः।
(८
उपेश्चमाण्णः सन्धा नरकः यान्त्यश्यद्धखःः ॥ ७५६ ॥
तातान
0 भिता (० {{. 3). उपराक 7 0. मा. ०. 274 २,अ. र ९ 28
परा. मा. {1. }. 29. अपर क श्प्ववृर० कतु कृष्ुक ( ०० मनु 8.20 )
५6९७ यन भिप्रो न विद्यन् स्यात् प्प व्य. मः, 279 62.08 यदि
विश्रो न 924 राज. र. ५८६१३ यन प्रद्रा विप्रः स्यात्. स्खतिय० (ए
1. 87 ) &1*68 यन र्वद्रः न वद्भनच् स्मत् न्प्ल वदह्यणा यन्न स्यात्त ४8
(0 पातरिलाछण४ १९६९8 9 कालयःयम्, ८0 प्रद्र ४6 188 066
१54४6 0 €} ४२5
88 अप्रराक 1. 601; राज &
69 ध्य, सा. {. 278, अ 02 (५०५४६८३ ‡४ &ऽ {२०४ त्रद्धवहूस्पति)
70 स्तिच० 111 7. 51, स रि 1. 49, प्रा. र. ए ‰. 35, व्य. मा. ], 288
(छ 016) ४८४५& य् दं. हन). स्यि. ध्य् व्य. मा, 168त ०श्वैव
त संशयः |
71 जपराक 2. 60}, राज. ₹्, }. 25 ( 0269 २6४५8 कायौ च्र्िजाः )}
72 अपराकै 2. 604, स्खतिव० 11 }. 47, पर. सा. 7 . ॐ
73 अपरक 9. 604. {1483 18 सतु 8. 14.
प
रतत्छ }. 198
` प स्दतिच. [. ए. 4, प्रा. सा 1 ए. 33, अप्रराकं 7 604, राज. र. | ए. त
28. परा. मा. ६४५३ अपन्याय प्रवृत्तम्
||
कत्यायनर्यतिसार्र 18
# १
छर
नापि तं यान्तं येञ्ुयान्ति सखभासः
तेपि तद्धाष्निनस्तस्माद् बोधनीयः ख तैनैपः ॥ ७५ ॥
न्यायमागोदपेतं तु ज्ञात्वा चित्तं सह्ीपते
वक्तव्यं तत्पिं तञ्च न खभ्यः किस्विकी भवेत् ॥७द॥
भ्येन!वदरयवक्तव्यं धमःथसंदहितं वचः ।
छुणोति यदि नो राजा स्यान्तु सभ्यस्ततानघः ॥७७ ॥
सअधसांय यदा राजा नियुञ्जीत विवादिनाम्
विज्ञाप्य नर्पात सभ्यस्तदाकायं निवतयेत् ॥ ७८॥
सेददज्ञानतो वापि सोमाद्ा मोहतेपि वा ¦
तच सभ्योन्यथावादी दण्डयोऽसम्यः स्थतो हि सः।७९॥
कायस्य निणेयं सम्यगृज्ञात्वा खभ्यस्ततो वदेत् ।
अन्यथा नैव घक्तव्यं वक्ता दविगुणदण्डभाक् ॥ ८० ॥
सभ्यदोषान्त॒ यच्च देयं सभ्येन तत्तद्! ।
कार्य तु करर्यणामेव निश्चितं न विचाद्येत् ॥ ८१ ॥
( कायनि्णतृणं मुरुलाघक्म् )
कुखानि श्रेणयश्चेव गणस्त्वधि्धत नृपः!
परतिठा व्यवह्ासयणा गुवभ्यस्तूत्तयेत्तरम् ॥ <८२॥
75 भ्रिता० (८० या. ), स्दछतच. 1} 7. 47 परा. मा. ना. 2. 38
अप्राके 1. 604, राज. ₹. . 8. अपराके णवं राज. र. 6४ अन्यायतो
यि यासन्तं; स्थातेच ० ८6६५8 बांधनायः दनचुपः. |
16 स्म्रतिच० 771 9. 47, राज. र. 2. 25, पर. मा. ए 2. 38, योडरानन्द
( 11९}; २९६०8 वक्तव्यं ताल्रय नात्र ). स्खत्तिच, "6846 सतः {0 भवेत्
राज. र. ५९४पऽ वक्तव्य तु त्रियं नचि. परा. मा. 6४8 कतर्व्यं {02
वक्तव्यम् .
7. स्मृतिच० 111. 49, परा मा. 117 1. 35; राज र, ए. 95, व्यवृहारतत्व 7.
199 { ८६४48 तदाचणः ) |
78 राज. र. 9. 24.
79 स्मरतिच० 111. ?. 50 अपराकं ‰. 608, परा. मा. 771. 1. 3५. स्म्रतिच°
16808 महद्वा खभताप वां
80 स्म्रतिच ० {{1, }. 50, अपराक् 0. 608
81 स्मरतिच. 11. 2. 51, स. वि. 2. 69 ( कारणमेव 0 कार्यिणामिव )
82 व्य. मा. {. 280 ({ 067 88611768 27 £ मनु 91 कात्या० }. {7018 18
नारद 1 1 १.
ध
तपस्विनां तु कार्याणि चि च रक्रा
मायायोगविदां च॑ ॥ ८३ ॥
सस्यग्विज्लानसप
उत्छृष्टजातिरी खानां शवीचायतपस्विनाम् ॥ ८४ ॥
कन
गचास्वातस्तु या असादा यात यतः
स*दय तुत ब्रह: पटयन्त तथ तु ॥ “> ||
{ प्द्प्रक्रर
काटे कायर्थिनं पृच्छेत् प्रणतं पुरतः स्थितम् ¦
कि कार्यकाचते पीडां मा सेपीवेहि मानव \ <द॥
केन कस्मिन्कद्ा कस्मात् पच्ेदेवं सभागतः |
पवं पृष्ठः स यद् व्रयात्ततसम्येव्रोद्यणेः सहः ॥ ८७ ॥
विशद्य कार्य स्याय्यं चदाहना्थमतः परम् ।
मद्वां वा निक्षिपेत्तस्मिन् पुरषं वा समादिरोत्
| ( रतिनिधिः )
समर्पितोथिना योन्यः पसे घमोधिकारिणि
प्रतिवादी स विज्ञेयः पतिपन्नश्च यः खयम् ॥ ८२ ॥
>. # = ॥,
न ता ०8 ०५००. 1
88 भ्य. मः, }. 2&1 ( धि एपा6ह 10 एण वृहस्पति ६४व् काव्याय ). वीर °
| 1. 30 95९1088 1६ ६० वृर
84 वीर ° ‰. 81
85 वीर्* }. 29 |
86 स्मृत्च° [1 2. 70, व्य. सः. }. 86, प्रा. मा. 77. ए. 52, व्रीर. 9. 47
मिता० ८०या. प्रा. 5 ) प्०४७ ४75 ०४१ ४6 नारका 09 ४० ।
४8 {0 स्सत्यन्तर. अपराकं ६180 }. 695 पघनलड € पपं
6110 ४५८ 806. प. वि. . 75 त प्०॥68 {18 ९6८86 88 क्रा्यायन 8
21058 09 ४1€ 0743 केन् काचन् कदा. . ,गतः' १0161 1४ 9४ एप
{0 समन
7 स्खतिच० 7 ए. 70, परा. मा. पा }. 52, वीर क. 4 ( रवये
76४48 सभागतम् ); व्य. मा. ?. 286 {8४5 19)
£
\ {मतता? ( 0 गा. 1]. 5), अपराक्क 605, स्द्धतेच० ए [५ 12, परार `
| म. ॥४ 55, वीरः 1. 952, |
स्श्तेच° 7 }. 72; अपराक् {. 639, स. वि. [. 50
11
15
इतरोष्यभियुक्तेन प्र्तिरोधीङ्ते मतः ५ ९०॥
आथना संचियुक्तो वा प्रत्याथब्रहितोपि वा
यो यस्यार्थं विवदते तयोजेयपराजयौ । ९१
दासाः कमकसः शिष्या नियुक्ता बान्धवास्तथा
वादिनो न च दण्ड्याः स्युः यस्त्वतोव्यः स दण्डभाक् ॥ ९२ ॥
ब्ह्महस्याखरापानस्तेयगवेङ्गनागमे ।
अन्येषु चातिपापेषु प्रातेकादी न दीयते ॥ ९२ ।
मयुष्यमारणे स्तेये परदारामिसदरौने ।
अभक्ष्यभक्षणे चेव कन्याहरणदुषणे ॥ २.४ ॥
पारुष्ये कटकरणे नृपद्वोडे तथेव च !
प्रतिवादी न दातव्यः कत तु विषदेत्स्वयम् ॥ ९५॥
( आहरनं )
@
धमोत्सुकानभ्युद्ये सोष्मेणोथ जडानपि ।
अस्वस्थपत्तोन्पत्तातलियो नाद्ानयेन्नपः ॥ ९६॥
००
90 स्यरतिच ° 777. 7. 78, अपराक् 7. 689 ( (णा160 २6808 प्रहितोधिकृतो
मतः ), वीर० 0. 52 { 9८७४ ४४ }, स॒. वि. १. 80.
94 ग्य. मा. . 287 ( #801058 1४ ४0 न।रद 8०4 काद्ायन ), अपरकं 7.
89, स्मरृतिच० 1... 71 परा-मा. 7 1. 58, कीर० , 48.
क्त्य कृरस्पतर् 28611085 1४ ६० नारद् &त कात्यायन.
92 अपरके 1. 689, स्परृतिच° 777 7. 71, परा. मा. 7. 7, 54
9४य्य् मा... 287, अषराकं }. 689, स्यृतिच. 77. . 75, वीर० 7. 54
अपराक् 6845 ‹ अन्येष्ठसद्यवरदिषु ° 2१ स्मृतिच. २७०९8 अन्येष्वसभ्य् ०
8724 व्य, मा. 16848 अन्योन्युस ङ्घ ९,
०५५ व्य. मा. }. 287, अपराक }. 689, स्पृतिच° 77 }. १5, वीर. 7. 54,
न्यवेहारतत्व }. 200
95 व्य्, मा. }. 287, अपराक }. 689 6 16848 न दाप्यः स्यात् ), वर्}. 84
(2९208 कतापि), स्पृतिच० 111 }. 75 (२७४९8 दाप्यः स्यादर्थपरत्यर्थे
नारपि), व्यवह्रतत्तव }. 200
96 स्म्रतेच > 111. 74, परा. मा. (1. 1. 51. कीर. ]. 59 ॐनम 065 अकल्प
नारस्थ विरविषमस्थक्रेयाकुलान् । कायातिपातिग्यसनिनच्रपकार्योत्सवाकलान् ! मत्तो.
न्सतत्रमत्तातश्त्यान्नाहनयन्छपः 0 कात्यायन, 0४ पङ्क € ` भ्त
1616, 28 {0686 876 &0196 + हारीत फ़ स्प्ृतिच ० ४५१ प्रा. भा,
2.20 ४0 नारद एए्न्य्. म,
16 ऊात्याथनस्खतिसायोद्धार
६
ने हीनयपक्षां युवति छुट जातां परस्दतिकाम् ¦
६ वैवणोत्तमां कल्यां दा शातिपयुक्षाः स्यतः
तद्धीनङ्कदुभ्विन्थः स्देरिष्यो गिक्श्च चः
९५,
निष्छुखा य्य पवितास्तारःसादःनमिप्यते ॥
सराख्मोदुचशयो वा शुक्तकेदः सद्यखनः।
र न = ५ ल फ़ 1
वामहस्तेन वा वादं वदन्द्डरकाप्डुखाल् \। ९५
आहुतस्त्ववमन्येत थः दाक्त राखदयश्ठनम् ;
।
च् | ध 1 -} ध्र ममु भ २.६.
तस्व कुयीचुपः इष्ड वियष्ष्रनं कदष :। १०० 1:
हीने कर्मणि पश्चादान्मध्यमे द्विदातःवरः :
रुरुकायं य द्ष्ड ¦ स्यशनत्य पश्च तच्दिरः २०
कार्पितो यस्य ये दण्डस्त्वपराधस्य यन्नतः
पणानां ग्रहण तु स्यात्तन्मृस्यं दाथ राजनि ॥
५५,
म्» 0 क ह
उत्पादयति या टसा देयं वार् प्रयच्छति
१ ५
याचमानाय दौःलीस्यादाङृप्योखा नृपाकया
मावेद्य तु वपे कायमसंदिग्धे प्रतिश्रुते :
तद्ासेधं पयुञ्जीत यावदाद्यानदंश्मस् ॥ १०४
रा =+ ~~~ ७१५
9 स्षतिच० 11. 74, परा. मा. [आ }. 5] ( प्ण
परसुकां चैव तथा नाह नयेन्दपः), परर. 9. 52. मिताः ०० या. 1. 5. ७४६७
#:
४018 25 स्प्मत्यन्तर
98 स्प्रतिच० {[. 2. 74, परा मा. (आ. . ठा; वीरिः ]
11. 5, 6168 &8 स्प्रत्यन्तर. $
ण्प्वा वाद्; व्य. सा. ८९४९8 मुत्तकृच्छः,
[न
१;
11
+ तज ५०९११ ५०११११५८
16868 सवजात.
[० 00 य
99 अप्राकं ‰. 605, व्य. मा. ए. 286, स. वि. 76. जप्राक २७85 ' वा स्लग्वी, `
100 अपराकं ‰. 607, स्पतिच 71. ‰. 76, परा, मा. 771. 2. 51.
शतावर
102 स्मृतिच ° 711. ‰. 7
` 101 अपरके 2. 607, स्पतिचः गा ए. 76, परा. मा. 7 2. 81. अपरार्क
२६९५5 मध्यमेन शतावरम् 5०१ पञचरतावरम्; परा, मा, ८९8 मध्यम् तु
स. वि. ए. 82 ( 7608 दक्तितः 07 यत्नतः }.
108 वीर ° 1. 56. स्मरतिच° 71, . 76 शछतं 0९8 7४ ६0 व्यानस्त,
104 दरण ए. 55.
र =
त
यनस्वतिस्सेदधटः 1४
( अनासेभ्याः }
(क)
त्वन्द्रियनिरोधेन व्याहारोच्छ्वसनादिभेः
आसेधयेदनासेध्यं स दण्डयो न त्वतिक्रसी ॥ १०६
चुक्षपवैतमारूढा हस्त्यभ्वर्थनोर्थिताः.
विषमस्थाश्च ते स्वे नास्तेध्याः कायैसाधकेः ॥ १०७ ॥
व्याध्याती व्यसनस्थाश्च यजमानास्तथेव च ।
अनुत्तीणश्च नासेध्या मत्तोन्मत्तजडास्तथा ॥ १०८ ॥ |
नं कथेको वीजकाडे सेनाकाटे वु सेनिक
प्रतिज्ञाय प्रयातश्च ङतकार्श्च नान्तसा ॥ १०९. ॥
उद्युक्तः कषेकः सस्ये तोयस्यागमने तथा ।
आरम्भात्सप्रहं यावत्तत्काटं न विवादयेत्।
आसेधर्यस्त्वनासेध्यं राज्ञा रास्य इति स्थितिः ॥११०॥
जभियुकतश्च रुद्धश्च तिष्ठेयुञ्च नृपाज्ञया ।
न तस्यान्येन कर्तव्यमाभियुक्तं विदुवुंधाः ॥ १११ ॥
पकाहद्धयदाध्यपेक्चं देदराकारादयपेश्षया ।
दुताय साधिते कायं तेन भक्तं प्रदापयेत् ॥ ९१२॥
105 वीर ° }. 86. स्मरतिच ० 11. 2. 68 98611068 1४ ४ व्यास,
106 स्प्रतिच ० 711. 2. 67; परा. मा. [. ए. 48, वीर्° ए. 56, भ्य. मा.
9. परा. मा. ७४०१8 व्यवहारोत्सवादेभेः, अनासेध्य॑ः, ०१ अतिक्रमात्, व्य
म. 898 ४16 198६ ‡्०, वीर ० 188 खअनासेष्येः 8०त अतिक्रमम्,
107 स्पृतिच० 777 2. 68., परा. सा. 1171 ए 48, कौर° . 56.
108 स्यृतिच० {71 ‰. 68, परा. पा. रा 2. 49, कर् ° 7. 56 (88 पए8
081)
109 स्पृतिच० {71. 2, 68, परा. मा, व }. 49, कत्यकेल्पतर (१88 18४6
1910) |
110 कत्यकल्पतर्, स्परतिच ° {11 0. 69, परा. मा. 1 48 (नभत) २6४08 वं
स्यागमने ), वै।र. . 56 ( 188४ 1106 ), व्य. म, ए. 9 ( 198६ 11४९ )
१06 पह ॥0166 का ५6 188४ 11०6. ।
111 ईृद्यक्रत्पतर
112 वर० 1. 87, अपराके | 607 ( ८७९8 नेता ० तेन ) 098 [8० 9 | |
"11
0
{६ गष चात्एतत 4 एद
देदाकाटवयःराक्त्या्पक्ष मोजने स्मरतम् )
अकारकस्य सवत्र दाते तच्याचदा वदुः । १९१६ ॥
( प्रतिमूत्वेनमरह्याः )
स्वामी न च वै श्चुः खाभिनाधिकृतस्तथा ।
निरुद्धा दण्डितश्चेव संरायस्थाश्च न कचित् ॥ ११४ ॥
नैव रिक्थी न स्कतिश्च न चैवात्यन्तवाप्िनिः ।
साजकार्थनियुक्तश्च ये च प्र्न्िवा नसः ॥ ११५ ॥
नारक्तो धनिने दातु दण्डं राक्ञे च तत्खमम् ।
जीवन्वापि पिता यस्यं तथवेच्छाप्रवतेक
नाविज्ञातो ग्रहीतव्यः प्रतिभूत्वक्रियां प्रति ॥ १९६ ॥
अथ चेत्पतिभृनोस्ति वादयोग्यस्य वादिनः,
स रक्ितो दिनस्यान्ते दद्याद् दुताय वेतनम् ॥११.७॥
द्विजातिः परतिभृह्ीनो रक्ष्यः स्याद् चाद्यचारिभिः
दु दादीन्प्रातिभरीनान् बन्धयेन्निगडन तु ।॥ ११८ ॥
मा व
तानन
118 वीर० ‰. 57, अपरक्र { 607 ( 15865 देः कलो वयः शाक्तिरपेक्ष्या
भोजने तथा &"4 धमेविदौ £ तत्वविदो )
114 स्मृतिच ° 111. ‰. 78 ( ५० ‰. 318 ), मिता०(ण्ण्या. 7. श), वि.
र. . 89, परा. पा. (1. ए. 57 2 0. 258-254, वीर् ° 1. 58 ४०4
880 ( ४5 114-116 ). परा. मा. 8४ }. 2६4 २6४१8 ‹ निरुद्धो देण्डित्चेव
शिद्िनश्वाबधीद्धमुःः ५५१ ०५९8 देशाचरेण दाप्याः स्युदुष्टान्
` संपौड्य दापयेत्
115 स्मृतिचण 111.}. 78 474 818. वि. र 1. 59, परा. मा. 111. 57 826
४180 ]. 254, वीर ° }. 58. वि. र. परा, मा. . 254 ५०१ मिता ° २6४
मित्रं च णः रिक्तश्च ¦
116 मिता० (०० या. 1. 57 }, स्पृतिच० 11. 9. 78, परा. मा. 2. 5
वि. र. ‰. 39. मित्ता 8० वि. २० २6४4 मतिभूः खक्रिर्यां भरति 829 प्रा०
मा. 26४6 प्रतिभूस्तत्करया, 41} €2तलु भिता० ०४१४ ४४९ छ
जीवन्वापि &
11 मिता० (या. 7, 10), व्य. मा. 2. 289, स्पृतिच० 777 %. 78, परा. भा. `
ति. 58, वीर० 7. 59, स. वि. . 83, व्यवहारतत्त्वं 7. 202. व्य. मा.
76808 वाद्यैर्यश्च; सिता ° 5808 काययोग्यस्तु; वीर० 8०6 परा. मा. २७६
श्रत्याय 107 दूताय; स. वि- २९४०8 साथयायेस्य वानः; व्य॒वहरतच्व ०808 = ` |
यौग्यस्तु वादिनोः 90160 18 & &००त् श्व्वाण््.
118 परा. मा. 7. ». 58
न
? 19
पयाते च दण्डयेत्त पणाशटकम् ।
त्यकर्मोपरोधस्तु न कायैः सर्ववर्णिनाम् ॥११९॥
ग्रहीतच्रहणो न्याये न पवस्य महीभता । |
तस्य वा तत्समप्यं स्यात्स्थाचयेद्धा परस्य तत् ॥१२०॥
( अभियोक्त्रादीनासुक्तिकमः )
तजाभि भग्बृयादभियुक्तस्त्वनन्तरम् ।
` तयोरन्ते खदस्यास्तु पाडविवाकस्ततः परम् ॥ १२१ ॥
यस्य स्यादधिका पीडा कायं वाप्यधिकं भवेत् ।
पूयैपक्षो भवेच्स्य न यः पूर्वं निवेदयेत् ॥९२२॥
यस्य वा्थगता पीडा शारीरी बाधिका भवेत् ।
तस्यार्थवादो दातव्यो न यः पूर्वे निवेदयेत् ॥ १२३॥
( व्रतिज्ञास्वरूपम् )
निवेद्य कार वषं च भासं पक्षं तिथ तथा ।
वेलां पदेशा विषयं स्थानं जात्याकृती वयः ॥ १२४ ॥
साध्यपरमाण द्रव्यं च संख्यां नाम तथात्मनः ।
राज्ञां च क्रमो नाम निवासं साध्यनाम च ॥ १२५ ॥
119 परा. मा. 777 }. 58 ि |
120 व्य, मा. 2. 287, स्मृतिच० 177 }. 78, योडरानन्द. व्य, सा. ४०१ टोडरानन्द
२684 न्यायो {0 न्ययि, तस्यव {0 तस्य षा ५ प्रत्र. {ग परस्य.
121 अपराकं . 611, स्प्रतिच० 7 ४ 79, परा. मा. 1 1. 58, वीर ० 7, 57,
व्य. मा. ए, 289 (6००8 तयोरु्तौ {ग तयोरन्ते), स. वि. 1. 88.
198 व्य, मा, ए. 290, व्यवह।रतच्व . 200, परा. मा. [7 }. 59, स्मृतिच9
[1 2. 79, स. वि. ए. 88 (८6९५8 006 ?686 &8 य॒स्य वाप्यधिका पीडा
अकार्यं वाधिकं भवेत् । तस्यार्थिवादो °)
1४8 व्य. मा. 1 291, स्मृतिच० [7 ए. 79, परा. मा. मा ए. 59. स्मृतिच°
१९४१5 कायं वा ह्यधिकं वेत् ४०९ परा. मा. >०९४त कार्थं वाभ्यथिकं,
124 विशवूप (०० या. {7 6); व्य्. मा. ए. 295, जपराकं ‰. 608, स्पृतिच ° 77
ए. 81, पररा. मा. 1 ए. 62, वीर० }. 62. परा, मा. 6868 प्रवे णि
म्रदेशं 8110 अपराकं ९४१8 वेलां प्रदेयं विष्य॑; विश्वरूप ४95 लेखप्रदेशं
195 विश्वरूप (०४ या. 11 6); व्य.मा. }. 295, अपराकं [. 608, परा.मा. 7
1.62, स्पतिच ° [1 ए. 81, बीर० ए. 62. विश्वरूप ७४५8 साष्याथमानं; `
स्मृतिच ° ८०४१8 साध्यदन्यप्रमाणं; वीर० त अपराकं 1694 साध्यं प्रमाणं
द्र्य च; व्य, मा, ८९५6 सव्यमेव च.
20 व" एषण 14 ए 00 पकए
कऋमात्पितृणां नामानि पीडां चादहर्तैदायकौ ¦
क्षमाष्ेङ्गानि चान्यानि पक्षे संक्री कस्पयेत् ॥१२६॥
देशश्चेव तथ। स्थान संनिवेशरास्तथेव च ।
जातिः संज्ञा निवाखश्च प्रमाणं क्षे्ननाम च | १२७ ॥
पितयेतामदं चेव पू्ेराजादुकीतनम् ।
स्थावरेषु विवादेषु ददोतानि निवेदायेत् ॥ १२८ ॥
रागादीनां यदेकेन कोपितः करणे वदेत् ।
तदोपिति लिखेव्छ्वं वादिनः फट्कादिषु ॥ १२२ ।
अधिकान् रोधयदथोन् न्युनां प्रतिपुरयत् ।
भूमौ निवेरायेत्तावयावत्पश्चः प्रतिष्ठितः ॥ १३० ॥
पूवपद स्वभावोक्तं प्राड्विवाकोभिटेखयेत् ।
पाण्डुलेखेन फरक ततः पत्रे विरोधितम् ॥ १३१ ॥
अन्यदुक्तं लिखेदन्यरोधिध्रलय्थिनां वचः ।
चौरवच्छासयेत्तं तु धार्मिकः पृथिवीपतिः ॥ १३२ ॥
सोलेखनं वा लभते व्यहं सन्तादमेव वा । [ि
मतिरत्यते यावडिवादे धक्तुसिच्छतः ॥ १३२३ ॥ , |
126 विश्वरूप, अपराक 1.608, व्य. मा. 7. 295, परा. मा. 77 7. 62, स्पृतिच »
व. 2. 81, वीर० ए. 62. व्य. मा. २६०१8 केखयेत् {07 कल्पयेत् , चिश्व-
रूप २०808. क्षमारिङ्गाघादिकाल. ।
127-198 अप्राकं 7. 608, स्मृतिच ० 777. . 84, परा. मा. 7ए. 62, वीर”
2. 6५. परा. मा. २९९१६ देश्चे काठ तथात्मानं संनिवें ०५ जातिरज्ञाधि-
वासां श. |
129 टोडरानन्द् { 10) 28621068 3४ ४० ०19 नारदं ४४१ कात्यायन }); स. वि
४. 79 ( प्त ४6५८०७७ 1४ ६0 गोभिर ) २०४१8 आर्थेनः व
षादिनः., |
180 विश्वरूप ( ० या. ग्. 6 ), अपराकं ए. 611, स्पृत्तिच ° 771. 7. 90, परा.
| भा. 7 65. अपरा ४०१ परा. मा. ८९ छातयेत् &11त 188 18.08
88 यवदर्थोसिवणितः; पर. सा. 15865 छेदयेत् ४4 प्रतिपूजयेत्; स्पृतिच०
२6४९8 डदयेत्. 0 "० |
181 मिता० (०० या. 7. 6 }), अपराकं ए. 611, परा. मा. क. 2. €,
स्मृतिच° 1. ?. 9, व्यवहारतत्तव . 204. | नि
132 बीर० ?. 71 ( तः 7९१4 चसयेत् 1० शासपेत् }, व्य्. मा. . 9,
५ त 194
335 परा.मा. आ. ०.66.
फः
व न न 0 -- ~ + = - 4 ५ =
तस्मान्न लभते कारुमभियुक्तस्तु कारभार ॥ १३४ ॥
मतिनोत्सहते यत्र विवि कायैमिच्छतोः
दातव्यस्तत्र कालः स्याद्थिप्रत्या्थनोरपि ॥ १३५
मरतिज्ञादोषाः ( पूवैपक्षदोषाः )
यश्च राष्टविरुडश्च यश्च राज्ञा विवर्जित
अनेकपदसकीणः पुवेपक्षो न सिध्यति ॥ १३६
वह्ुधतिज्ञं यत्काय व्यवहारेषु निश्चितम् ।
कामं तदपि ग्खीयाद्राजा तच्ववुभुत्सया ।॥ १३७ ॥
देराकारविदहीनश्च द्रव्यसखंस्याविवजितः
साध्ययप्रमाणदीनश्च पक्चोनादेय इष्यते ॥ १३८ ॥
न्यायस्थं नेच्छते कतैमन्यायं वा करोत्ययम् ।
ने टेखयति यस्त्वेवं तस्य पक्षो न सिध्यति ॥ १२९ ॥
धसिद्धं निराबाधं निरथं निष्प्रयोजनम् ।
असाध्ये वा विरुद्धं चा पश्चाभासं विवजेयेत् ॥ १४० ॥
184 व्य. मा. 1. ९90, व्यवहारतत्त्वं ४. 208 ({ ८6948 विनिशितः ).
185 व्य्. मा. ए. 290.
186 विश्वरूप (०प या, 77. 5), मिता० (०४५या. 7. 6), व्य. मा. %. 296, अपरा
0. 609, स्प्रतिच ° 111. 89, परा. मा. [1. ए. 65, वीर ० ए. 68. अपराक,
स्पृतिच०, परा, मा. 8०१ वीर० ७०१ पुररा्टुविरुद्वथ,
187 मिता० ( ०० या. [. 6. ), अपराके ए. 609, व्य. मा. ए. 296, स्पृतिचर
पा 2. 89, परा. मा. [1 2. 65, वीर. 69, स. वि. ४.89. व्य. मा,
18908 व्युवहरिष्वनिधितम् ; स्मृतिच ° 26४08 व्यवहरे सुनिधितम्.
198 अपराकं 2. 609 (८०४ ४४1०१), स्मृतिच ° 7 ए. 84 व्य. मा. ए. 99,
परा. मा. 7. 61, वीरण० ए. 64, स. वि. 7. 87. स्प्रतिच० ४१ स. वि,
2०8 करियाप्रमाणहीनश्च, वीर ० २०९१३ क्रियामान विहीनश्च |
139 विश्वहूपं ० या. [1 6 (४० ०826), स्मृतिच ° 11 ४. 88, वीर° १. 89
विश्वरूप 16808 न्यायं मे नेच्छते ६०८ वीर ° ५९848 न्यायं संयच्छते
140 विश्वरूप ०४ या. 77 6 (0 पथा), मिता० ०४ या. रा 6 (0 छकण6),
वीर० ए. 66, परा. मा. [ना 61 ००१ व्य. मा. 2. 18 (%8 स्पृत्यन्तर)
विश्वरूप २०४९8 सदोषं च 70 निराबाधं ४०१ पृक्षं राजा विवजैयेत्
2४ वण्ाः एात्ए ^ छ 0 एए
व्रतिन्नादोषनिसं्त साध्यं सत्कारणान्वितम् ।
निथितं लोकसिद्धं च यक्षं पश्चविदो विदुः ॥ १४१ ॥
खस्पाक्चरः परभृताथा निःरंदिग्धो निराङ्कुरः ।
` विपेधिकारणेक्तो वियोधिप्रतिषेधकः ॥ १५२ ॥
यदा त्वेवंधिधः पश्च: कल्पितः पूववादिना ।
ददयात्तत्पक्चसंवद्धं अतिवादी तदोत्तरम् \ १७३ ॥
श्राव्यमाणोथिना यच यो द्यथा न विघ्रातितः
दानकाटेथवा तृष्णीं स्थितः सो्थोचुमो दितः ॥ १४४ ॥
( उत्तरं सदो दातन्य कालान्तरेण वा दातव्यम् )
त्वा टेख्यगते त्वर्थ प्रत्यर्थी कारणाद ।
काट विवादे याचेत तस्य देयो न संदाय: । १४५ ॥
सखो वैकाटपञ्ाहन्यदहं वा गुरुखाघचात्
छ्मेतासौ चरिपश्च चा सप्ताहं वा ऋणादिषु । २४६ ॥
कारु शाक्त विदित्वा तु कायाणां च वखावखम्
(1 अस्पवा वह या काट दखयात्पद्याथने प्रभः ॥ १४७
141 विश्वरूप ०४ या 71 6 ( 00 28116 }, करत्यकल्पततरं ( 88611068 ४018 ४० =. = ।
८ #16 {01]0फणण्ठ {० एला७€ ४0 0000 काल्यायन 8 वृहस्पति); |
प व्य्. मा. ए. 291 (88०५०९8 9018 8 € पल ४0 एणी कल्या?
` 970 बृह) व्यवहारतख 2. 208 (98९11068 141- 148 {० ४0४),
टोडरानन्द, परा. सा. 111 2. 61 (19 286711068 ४18 त ६४6
0९ £ च्ृहुस्पति). अपर।कं ए. 610 25671068 {0 वृहस्पति ; 80 ५068
छृत्िचि° 77 2. 90
41 149 कृत्यकल्पतर, व्य. मा. . 291, टठोडरानन्द् (1९४ ८४५8 विरोधिकरणे
४ प्रतिरोधकः), प्रा. मा. 7 61 (त २६०५8 अव्याम्षरस्त्व्षन्दिग्धो
| | बहथश्चाप्यनाङ्कुलः । युक्ती विरोधेकरण); व्यवदहारतत्व ४. 2085-204
। | 148 इत्यकत्पतर, टोडरानन्द, व््रवहारतत्व ए. %04
` 144 कृत्यकल्पतरं
145 अपराक् ४. 619, स्परृतिच° [1 ए. 94, व्य. मा. 9. 298, परा. मा. प्रा
ए. 69, वीर० ए. 158. व्य. मा. २९९५8 छेखयते ‡0" लेख्यगतं; अपराकं `
` णते कवीर० ८७४१ चेखयतो. =
146 व्य्. मा. ए. 298; स्मृतिच ° {1 ४. 95 (शपते) २6४५8 सद एकाहपन्राहौ), ` 1.
{47 समृतिच० (न 2. 95\ब्य्. मा. . 298. = क क
च
2.
©. ५
धेमासो वा ऋतुः सवत्सरोपि वा ।
् रेण त॒ ॥ १४८ ॥
गौरवे यर विनारास्व्याग एव वा ।
काटे त्र न ङुर्वीत कायेमाल्ययिकं हि तत् ॥ १४९ ॥
धनावनड्हि क्षे खीषु प्रजनने तथा ¦
न्यासे याचितके दत्ते तथेव कयविक्रये ॥ १५० ॥
कन्याया दूषणे स्तेये करे साहसे निधो ।
उपधौ कोरसश्षये च ख्य एव विवादयेत् ॥ १५९ ॥
साहसस्तेयपारुष्यगोधभिरापे तथात्यये ।
भूमौ विवादयेत् क्षिधमकादेपि बहस्पतिः ॥ १५२ ॥
खद्यः तेषु कार्यषु सद्य एव विवादयत्।
कारतीतेषु वा कारं दद्यास्पत्यथिने प्रभुः ॥ १५३ ॥
खद्यः कृते ख्य एव मासातीते दिनं भवेत् ।
षडाब्दिके चिरा स्यात्सप्ाहं दादशान्दिके ॥ १५७ ॥
्चिरास्यब्दे दाहं तु मासराधं वा लभेत सः
मासं चिरात्समातीते चिपश्चं परतो भवेत् ॥ १५५ ॥
काठ सवत्सरादवो स्वयमेव यथभ्सितम्।
संवत्सर जडोन्मत्तमनस्के व्याधिपीडिते ॥ १५६॥
148 अपराक्ं ए. 619, स्दरतिच ° [17 2. 96; वीर ° 2. 158.
149 स्पृतिच ° {7 ‰. 98, अपराकं {. 619, वीर ° 1. 140.
150 अपराके ‰. 619, स्मृतिच ° {17 ४. 9५, परा. मा. 7 ए. 71, वीर ° ?. 140,
151 अपराकं ए. 620, स्परृतिच ° 717 ए. 94, पररा. मा. [7 ». 72, वीर ° ए. 140,
152 वीर् = ए. 140 (४8९11068 0071 {० बृहस्पति 8 कात्यायन), प्रा. मा.
71 (४801168 1४ {0 बृहस्पति)
158 स्मृतिच ° [1 ए. 94, अपरा ए. 619; वीर ° ए. 188 (७४५8 समं कृतेषु
कायषु), व्यवहारतत्व ए. %05
154 अपराके ए. 619, स्मृतिच ० {17 7. 95, व्य. मा. ४. 298, वीर . 188
व्य, मा. ५6४5 सद्यःछरेते सयोवादः समातीते. परा. मा. 7 2. 70
28011068 118 8.14 †16 {0110 10 ४० १८888 {0 बृहस्पति. `
155 अपराकं ए. 619, स्खतिच० 117 2. 95, व्य. मा. 9. 298, वीर ० 2. 188.
॥ अपराकं ८७४०8 विंश्चात्परे ० विंशत्यब्दे
156 स्परतिच० 7 ए. 95, परा. मा. 7 7. 70 (ष्ण्यः 1810), अपरां
0. 619 (४४5 जापक 9८8 0811 25 कालत्वत्सरत्). =
24 कपत चा १५ ए एता.
दिगन्तरपपन्ने वा अक्ञाताथं च वस्तुनि ¦
मूं वा साक्चिणो वाथ परदेशे स्थिता यष} १५७ ॥
तच्च कालो भवेत्पुंसामा स्वदेदरासमायमात् ।
द्
चेपि का देयं स्यात्पुनः कायस्य गोरवात् ॥१५८॥
वंपक्चश्चताथस्त धत्यथीं तदनन्तरम्
पूवेपश्चाथसंवन्धं वतिपश्चं निवेदयेत् \ १५९. ॥
आचारदव्यदानेष्टकृत्योपस्थानजिंणये
नोपस्थितो यदा कथ्िच्छट तच्च न कारयेत् ॥ १६० ॥
दैवशाजकृतो दोषरस्तस्सिन्काटे यद् भवेत् ।
अवाधत्यागमाच्रेण न भवेत्स पराजितः ॥ १६१ ॥
दैवराजक्ृतं दोषं साक्षिभिः प्रतिपादयेत् ।
जेदस्येन वर्तमानस्य दण्डो दाप्यस्तु तद्धनम् ॥ १६२ ॥
अभियुक्तोभियोक्तारमभियु्तीत कर्दिचित्
अस्यन्न दण्डपारष्यस्तेयसंग्रहणात्ययात् ॥ १६३ ॥
याचान्यस्मिन्समाचारः पाररपयकरमागतः।
त प्रतीक्ष्य यथान्यायसुत्तर दापयेन्नुपः ॥ १६४ ॥ )
( चतुविंधसुत्तरम् ) |
सत्यं मिथ्योत्तरं चेव परत्यवस्कन्दनं तथां ॥
पुवन्यायविधिश्चेवश्चचरं स्याच्चतुर्विधम् ॥ १६५ ॥
शयुत्वा भाषाथेमन्यस्तु यदा तं प्रतिषेधति,
अथतः रशाब्दतो वापि मिथ्या तज्जेयसुत्तरम् ॥ १६६१
157 स्प्तिच ० 117 ए. 95, परय. मा. गा ए. 70, अपरार्कं ए. 619
158 स्मृतिच ° {1 (5४ 1210), परा. मा. पा 2. 7]
159 व्य. मा. 9. 499 (8861068 {0 कात्यायन #४ नारद्)
1660-6 व्य. मा. 2. 299
168 व्य. मा. ‰. 299
164 भपतके ए. 619, स्मृतिच ° 177 2. 96, स. वि. 2. 92. अपरार्क ६048
योवा यद्िन् ४१ परीक्ष्य 10 प्रतीक्ष
165 मिता०(ण्ण्या. यप) व्य. मा. 2. 299. वीरण. 74
166 भपराकं 2. 612, व्य. मा. 2. 801, वीर ° >. 76, व्यवहारतश्च ए. 207
व्य, मा. 7९88 यदि ण्यदा,
य क, म स ८ 4 = द ५ 4 | = 2 . व ॥ त
[५ 3\
€
तिररा
यज
ॐ
कभियागस्यं थदि कयौ निदवसः
7 तत्तु विजानीयाद त्तर ्यकहारतः ॥ १६७ ॥
त्यवचन प्रतिपच्िरूदाहता ॥ १६८
तन्नाभिजानामि तदा तञ न संनिधिः ।
अजातश्चास्मि तत्काल इति मिथ्या चतुर्विधम् ॥१६९॥
गर्थिना्थेः समुद्दिष्टः प्रत्यथी यदि तं तथा ।
प्रपद्य कारणं बयादाधयं गुरुरत्वीत् ॥ १७०॥
भाचारेणावसन्नोपि पुनटैखयते यदि ¦
सोभिधेयो जितः पूर्वं प्राद्न्यायस्तु ख उच्यते॥१७९॥ `
(0 क
विभावयामि कुलिकः साक्षिभिरटिंखितेन वा ।
जित्व मयायं पाक्धादन्यायस्िप्रकारकः ॥ १७२॥
[ उत्तयभास्ा उत्तरदोषा वा |
अप्रसिद्धं विरुद्धं यदव्यल्पमतिभूरि च ।
संदिम्धाखभवान्यक्तमन्यार्थं चातिदोषवत् ॥ १७३ ॥
अव्यापक व्यस्तपदं निगूढाथ तथाङलम् ।
व्याख्यागम्थमसारं च नोत्तरं शास्यते वुधेः ॥ १७७ ॥
167 भेता० (०४या. आ. 7 ), व्र. मा. ए. 801; स्मृतिचिन [1 ए. 97, वीर०
ए. 75, स. वि. 7. 92. मिता ० 87 स. वि. 16४ कु्यौदपहवम्.
168 भिता ०४य्. आ. 7, स्पर्तचन [11 9. 97, स. वि. ए. 99. स्मृतिचण
16948 तथ्य॒व चन. ञ्य. मा. ए. 300 9४710 प४68 118 ६० भ्यास.
169 मिता० ( ०८ या. ए. 7 ), अपराकं 0. 619, स्परतिच० 7 ए. 98, स. वि.
9. 92. अपराक 16948 तदा म भदसंनिधिः.
170 व्य. मा. 7. 807, रोडरानन्द्, वीर ० 7. 78, वीर ० 6४8 अर्थिनाभिहितो
योथंः ४०५ आधयं भ्रगुरत्रवीत्; टोडरानन्द् ८6११5 आधयं मनुरनकत्रत्. च्प्र
मा. 16४५8 अधथिनाभिहितो योथः 8५५ 6806 1४8 1106 ऽ परल्यदस्कन्दनं
हिं तत् ४१५ 8611068 1४ †0 बृहस्पाति,
171 चित्ता० (००या. [आ }, वीर ‰. 8 ( ४678 ८0 ०४0 काल्या ° ४०१
वह ° }. | |
172 स्म्रतिच० {11 2. 98. वीर० 9. 8४
178 अपराकु 9. 614, स्मृतिच० {1 ४. 99, पर. मा. आ. ए. 73, वीर
| 94. 4" ५ 2 =
174 स्परातैच ° . 99. व्यवहारतच 2. 207 २७४8 अस्तन्यस्तपदन्यापरि निगृूढाथं
210 98.ए5 ४४8१ भवदेव 1 128 च्यवहःरत स्वं 52018106 अस्तव्यस्तपदन्यापि
28 अनान्विताथेपदन्यपपर, | र |
1.
6 कणप प्ाप्रएए 14 एए
यद्ञ्यस्तपदमव्यापि निगूढार्थं तथाकुखम्
व्याख्यागस्यमसारं च नोत्तरः स्वाथेसिद्धये । १७५ ॥
चिह्ाकारसहसं तु समय चाविजानता ।
भाषान्तरेण वा पोक्तमपरसिद्धं तदुत्तरम् ॥ १७६ ॥
रतिदत्तं मया बाव्ये रतिदन्तं मया नहि।
यदेवमाह विज्ञेयं विद्धे तदिहोत्तरम् ॥ १७७ ॥
जितः पुरा मयायं च त्वधेरिमिच्निति भाषितम्
पुरा मयायमिति यत्तदून चोत्तर स्मृतस् ॥ १७८ ॥
गृहीतमिति वच्य तु कायं तेन कतं मया ।
पुरा गीतं यद् द्रव्यमिति यथ्चातिभूरि तत् । १७९. ॥
देयं मयति वक्तव्ये मयदेयभितीदश्यम् ।
संदिश्धसन्तरं क्षये व्यवहारे कधेस्तदा ॥ १८० ॥
बलाव्छन चेतेन साहसं स्थापितं पुरा ।
अयुक्तमेतन्मन्यन्त तदन्याथमितीरितम् ॥१८१॥
अस्मै दत्ते मया साच सहस्रमिति भाषिते ।
प्रतिदत्तं तदर्धं यत्तदिदहाव्पापकं स्मृतम् ॥ १८२ ॥
पू्वैवादी क्रियां यावत्सम्यङनैव निवेरयेत्
मया गृदीते पूर्वं नो तद्ढ्यस्तपदसुच्यते ॥ १८२ ॥
तत्कि तामरस कश्िदग्रहयीतं परदास्यति ।
निगढाथ ठु तस्परोक्तपुत्तर व्यवहारतः ॥ १८४
` ०१.०५०७००७००१ १
175 अपरके ए. 614, प्रप मा. [1 0. 78, व्य. भा. ए. 308, वीर० 7. 84
| भिता० ( ०१ या. 1.7. ) ७१७8 88 स्मृत्यन्तर.
` {76.177 स्मृतिच ° [7 ए. 99, परश. मा. 7] ए. 73, वीर ० 2. 84
378 स्दृतिच ° 1 9. 99, परा. मा. [7 9. 74, वीर° . 84. परा. मा, 76818
५ भाषितं 8० वीर् ° 16४05 विवक्षिते
179 स्यतिच° 19. 100, परा. मा. प्रा 2. 74, वीरम ४. 84. परा. मा
16६08 इति चे
180 स्मृतिच ° [1]. 7. 100, परा. मा. 1 9. 74, वीर० 9. 84
181 स्सृतिचर [[ 2. 100, परा. मा. या ४. 74, तीर् ° 9. 865
182 स्म्रतिच० [आ 2. 101, परा. मा. 7 7. 74
188 स्मतिच ° 1 2. 101, परा. मा. 2.74 | [
184 स्छृतिच ० श ए. 101, परा. मा. १. 14 (कणन ८९8 किबिदशृहीतं),
स. वि. ए. 94 (५ ८८१वः अगृहीतं न दास्वातति)
> व ४
द देयं भ्या देय भवेदिति |
तद्धिदो वि
दः ॥ १८५ ४
दि यदन्तरम् ।
तत्वेन सभ्यङ्नेत्तरमिष्यते ॥ ९८६ ।
दर्पमव्यक्तं न्यू नाधिकमसङ्तम् ।
व्यलारं संदिग्य प्रतपश्च न लङ्घयेत् ॥ १८७
सदिग्यमस्यल्प्रकृतादलयस्पमतेमूरि च।
ञ्चैकदे शम्याष्येव तन्तु नैवोत्तरं भवेत् ॥ १८८
चुश्चिकदेरो युत्खत्यमकनददर च कारणम् ।
मिथ्या चेवैकदेशे च सङ्करात्तदयुत्तरम् ॥१८९॥
न चेकस्सिन्विवादे तु क्षिया स्यादादिनोयोः
न चाभैसिद्धिरुभयन चकन [केयाद्धयम् ॥ १९० ४
( वादहानिकराणि )
प्रपश्य कारणं पू्मन्यद्गुखतर यदि ।
ग्रतिवाक्यगतं बरूयात्साध्यते तद्धि नेतरत् \ १९१ ॥
यथार्थमुत्तर ददयादयच्छन्त च दापयेत् ।
साममेदादिषिमार्गियौवत्सोथैः समुत्थितः ॥ १९२ ॥
मोदाद्धा यदि वा राव्यायन्नोक्तं पूचैवादिना ।
उन्तरान्तगते चापि तदुश्रा्यमुभयोरपि ॥ १९३ ॥
नि 1
~ नण दिनमणि
185 स्मृतिच° 111 ए. 101. परा. मा. ना. ]. 75
§ स्यृतिवर {11 01, परा. माः गा 1.45, वीर० }, 84 ( णाल
| ९85 त्तेन समं नोत्तरभिष्यते }
18 व्य. मा. ए. 308 ॥
188 अपराय 7, 614, व्य. मा. ए. 808, मिता° ( ० या. 7. 7 } ०४०8 48
स्शर्यन्तर- `
189 मिता० (०० या. {7. 7), अपराक. 618व्य॒. मा. . 308, स्मृतिच० 77 ए
| 101, वीर ० . 85 पस. मा ना.) ध |
190 व्य. मा. 7. 9097, मिता ( ०० या. 7. ¶ ), अपरा !. 618, बीर० ?
85 परा. मा. 7. 7 स्मृतिचिन्ा . 102. = ` |
191 अपराकं ए. 614, व्य, मा. ?. 301, स्मृतिवि° [ए 1. 119, व्य, भा. २७४०8
प्रतिवाक्ये मरति ^
192 अषरा्कं ए. 615 वीर० ?. 14 ( 088 0०] 25४ ४४
198 अपरा 7. 615, सुषतिच ° 111}. 91, चीर . 14
28 एषह प्राप ^ फ ९0 शदथ
उपयेश्चो्यमानस्तु न दयाद्त्तरं त॒ यः; ॥
अतिक्रान्ते सप्तरात्रे जितोसो दातुमर्हति ॥ १९४ ॥
श्रावयित्वा यथाकार्यं त्यजदन्यद्वदेदस्यौ ।
अन्यवक्षाश्चयस्तेन कृतो वार्दः ख दीयते ॥ १९५ ॥
न मयाभिहितं कायेमभियुञ्य परं वदेत्
वि्ठच॑श्च भवेदेव दीन तसि नि्देरोत् ॥ १९६ ॥
ठेखयित्वा तु यो वाक्यं दीनं वाप्यधिक पुनः)
वदेद्धादी स हीयेत नाभयो ठु सदेति ॥ १९७ ॥
खभ्याञ्च साक्षिणश्चेव क्रिया ज्ञेया मनीषिभिः ।
तां क्रियां द्वेष्टियो माहाच्कियाद्धेषी स उच्यते ॥१९८
आहानादयुपस्थानास्छद्य एव प्रहीयते ॥१९९॥
बरही त्युक्तोपि न बृयात्सद्यो बन्धनमहंति ।
दवितीयेदनि दुबैढेवि यात्तस्य पराजयम् ॥ २०० ॥
याजेनेव तु यत्रासो दीधकालमभीप्सति ।
सपदद त तद् विद्याद्वादहानिकरं स्मृतम् ॥ २०१॥
अन्यवादी पणान्पञ्च क्रियाद्वेषी पणन्दश ।
नोपस्थाता दरा दौ च षोडदोव निरुत्तरः ।
आहृतभ्रषलायी च पणान्प्राद्यस्तु विद्ातिम् ॥२०२॥
८०५९९१०
194 प्रा. मा. [आ ‰. 81. स्खत्च० का 2. 10
195 अपरा 10. 629, स्मृतिच ° (1 }. 106 वीर्० ‰, 98, ख. वि 1, 169
196 अपराकं 0. 69, स्मतिच (1. ए. 106, बीर ° ए. 98, स. वि. . 102
197 अपराकं 7. 622, स्मृतिच० 7. 7. 106; परा. मा. गा. 7. 81, कीर° 7
५ 98, स. बि. ए. 108
198 स्यतिच० गरा. 7. 106, पर. मा. [1 2. 89, वीर० 7. 98, स. वि
"0, 109...
199 परा. मा. 7 . 89, वीर० 2. 98. स्खतिच° [ऋ 2. 10, स, वि
| 2. 102...
` 200 स्यतिच० प्रा 2. 107, परा. मा. [आ 82, चर् ए. 98 ({ 16865 सद्यस्त
दनमहति ), स. वि. . 102
१ र ` 201 अपराकै 7. 62, स्छृतिच ° {7 ‰. 107, वीर० ए. 98 ` (२७४०8-कालमति
कमेत् )
4 3 202 स्मृचि 177 7. 107, परा. मा. 117 ‰..88, वीर० ‰. 99, स. वि. 108
स्ृतिच ° 79808 भाद्रूतविपरलायी 810 स. वि. 26806 आहूतन्यपवायौ ()
१.
स कषः व व थः
29
रा जमातेक्रान्तं विनयन्तं यश्यचलिः ! २०२ ॥
प्रावितव्यवहाराणामेकं यज पमेदयेत् ।
वादेन खोभयेचेव हीनं तमिति निर्दिशेद् ॥ २०४ ।
भद् वा भीषणं वा निसेधनम्
भयं कर्य
ठतानि बादिनोथेस्य ज्यवहरे ख दीयते ॥ २०५
दोषायुरूप संग्राह्यः पुनवीदो न विखते ।
उभयोरिंखिते वाच्ये पारन्धे का्यनिश्धये !
अयुक्तं तंज यो चरूयात्स्मादथौत्स हीयते ५ २०६ ॥' `
साक्षिणो यस्तु निर्दिंदय कामतो न विवादयेत् ।
स वादी दीयते तस्मात् चश्चद्रान्नात्परेण तु ॥ २०७॥
परायनानुन्तरस्वादन्यपक्षाश्रयेण च । ।
दीनस्य गह्यते वादो न स्ववाक्यजितस्य तु ॥ २०८॥
यो दीनवाक्येन जितस्तस्थोद्धारं विदुडंधाः ¦
खवाक्यहीनो यस्तु स्यान्तस्योन्धारो न विद्यते ॥२०९॥
आवेद्य प्रगरदीताथौः परदामे यान्ति ये मिथः, .
सवं द्विगुणदण्ड्याः स्युः विपररम्भान्नुपस्य ते ॥२१०॥ `
0 क
208 स्मरेतिच ° आ [. 108, परा. मा. 7. 88, वीर ° ‰. 99.
204 स्यृतिच० 771 1. 108, वीर० 1. 99 (९४९8 तमपि {ॐ तमिति); स, वि,
{, 108 ( ८९908 तमपि )
205 स. वि, ए. 108.
206 अपराके 1. 615 (७०१8 अनुक्तं ० अयुक्त), परा. सा. 7 ए. 83-84
वीर ० 8. 74, स्मतिच ° 117 ए. 109. पररा. मा. ४५ स्मृतिच ° 168 बाक्षये
` 0 वेच्ये „
207 अपरारकं 7. 622, स्मृतिच° 717 . 110.
208 व्य. मा. ]. 810, वरि 2. 108, स्यृतिच° [7 7, 111; व्य. मा,
88८9068 ३६ 60 बृहस्पति (५
209 स्यतिच° [1 ‰. 111, वीर ० 2. 108 (76848 इीनचिहिन)
210 स्छृतिच ० {11 }. 112, परा. मा. रा. 2.54, कीर 2. 104. परा, मा
| ४४५ वीर् ० ५68१ भगृहीताथ,
*
कतनत ८४५
(षप्रह चा 748 ¢ पहा
{ क्ियापादः)
कारणात्यर्वपश्चोपि युक्तत्वं प्रपद्यते
अतः क्रिया तदा धोक्ता पूवैपक्च्रसाधिनी \ २११ ॥
का
शोधिते छिखिते सम्याशेति निदौष उत्तरे ¦
परत्य्थिनाधिनो वापि क्ियाकरणमिष्यते \ २१२ ॥
वादिना यदभिभ्रेतं स्वयं साधयित स्फुटम्
तत्छाध्य साधने येन तत्लाभ्य साध्यतखिखम् ॥२१२॥
प्रमाणानि, तेषां च बलाबल्यदिविचारः )
लिखितं साक्षिणो शक्तिः प्रमाणं िविधं विदुः ।
छेशोदेशस्तु युक्तिः स्यादिग्यानीह विषादयः ॥ २१४॥
युवैवादेपि किखिते यथाक्षरमद्ेषतः । |
अथीं तृतीययद तु क्रियया प्रतिपादयेत् ॥ २१५ ॥
कायं हि साध्यमिच्युकतं साधनं तु क्रियेच्यते
द्विभदा सा पुनक्षेया दैविकी मादुषी तथा '
मायुषी टेख्यसाक्ष्यादि्वैधादिरदैविकी मता ॥ २१६ ॥
न
सभवे साक्षिणां प्राजा दैविकीं वजयेत्कियाम् ।
सभवे तु प्रयुञ्जान देविकीं दीयते ततः ॥ २१७ ॥
यथयेको माचुषीं ब्रयादन्यो बूयात्तु दैविकीम् ,
मानुषीं तर गृह्णीयान्न तु देवीं क्रियां नृपः ॥२१८
1 जान १४
तन ५११०१
211 अपके 0. 624, परा. मा. [7 ए. 84, वीर° ए. 79
| 212 स्म्रृतिच० 71 7. 118, वीर० 2. 92, स. वि. 2. 105 ( २७७ क्रिया
कारणक्निष्यते )
218 व्य. मा. 7. 38५, कीर० 1. 107
214 वर् ° ए. 110, परा. मा. 7, 2. 91 ( २७०१5 साक्षिणो लितं भुक्तिः &0
लिज्गोदेशस्तु युक्तिः ) | |
215 वीर ]. 111
216 अपराकं 7. 616
1 91 स्परतिवि. 71.116 ५ 0 १
18 मिता. (ण०्ण्या. का 2), च्य. मा, #. 815, अपरा 7. 698, स्थतिचं* `
1. 2. 116, पर. मा. पा 87, वीर° 7. 111 र |
कू य न मः य = स न # = । .
यद्यक्देदाध्थरा्तपि क्रिशा विधेत अरदधुषी |
सा आ्राह्या न तु पुणोपि दैविकी वदतां शरणाम् ॥२१९
पञ्च्रकारं देवं स्यान्मायुषं चिविध स्मुतम् ॥ २२०
किया बख्वतीं मक्त्वा दुबेखां योचङम्बते ।
ख जयेवधते सभ्यैः पुनस्तां ना्रुयात् कियाम् ॥२२१॥
सारभूतं पदं अक्त्वा असासाणि बहन्यपि ।
ससाधयेक्किया या तु तां जद्यातसास्वजिंताम् ॥
पक्चद्वथं साधयेद्या तां जद्यादरतः क्रियाम् ॥ ६२२ ॥
क्रिया न दैविकी परोक्ता विद्यमानेषु साश्चिषु ।
टेख्ये च सति वादघु न दिन्यन च साक्षिणः ॥२२३॥
कालेन दयते डेख्यं दूषितं न्यायतस्तथा ।
अलेख्यसाक्षिके दैवीं व्यवहारे विनिदिदेत्।
दैवसाध्ये पौरुषेयी न टेख्यं वा भयोजयेत् ॥ २२४ ॥
पुगक्रणिगणादीनां या स्थितिः परिकीर्तिता ।
तस्यास्तु साघनं ठेख्यं न दिव्यं न च साक्षिणः ॥६२५॥
द्ारभागेक्तियामोगजलवादाहदिके तथा ।
सुक्तिरिव हि गीं स्याच्च ठेख्यं न च साक्षिणः ॥२२६।
दन्ादत्तेथश्चलयानां स्वामिना निणेये सति ।
विक्रयादानसंयन्धे अीत्वा थनमयच्छति ॥ २२७ ॥
ता ननन
219 भिता. (००या. [. 2), व्य, मा. ए. 311, स्छतिच. प 2. 116
परा. मा. 77 7. 38, दीर० ए. 111; अपरां २७०08 प्रप्तापि ० व्वाप्तापि
४०५ न्याय्या © मह्या, भ्य. सा. ०५ वीर् ° 8180 ८684 प्रा्ठापि-
220 स्यृतिच ० [7 ए. 124. ¦
221 भिता० (० या. [. 80), व्य. मा. 7. 281, 809, 386, बौर ० ४. 108.
9४१ स्मृतिच ° 111. ‰. 116 ( ॥95 एह (फण 1००8 ), वीर् ° ए. 108. |
-228 व्य. मा. एणः. 306, 808, 815, अपरकं ए. 690 (जतः ८9845 देया {म
परोक्ता), परा. मा. 711 2. 88 { 140 २९४५8 क्रिया तु.- प्राप्ता )
24 व्य. सा. }. 340 (88४ 1106), स्मृतिच ° 771. 0. 149 ( ४४5 पर ४४९
४९1 अलेख्य °), वीर ° 7. 118-114 (8.8 185६ ४0 11068) |
2१५ -2%8 स्मृतिच० 7 ए. 129, भिता {०४ या. आ. 2 काकण |
प ), परा. मा. ता. 2. 88-89, अपराकं ए. 629, बीरि ° 2. 119
श्् कपाद्ठ परापए 4त दए दध्
शते समाये चैव विवि सुपरिथते ¦
साक्षिणः साधनं धोक्त न दिव्यं न च ऊेख्यकम्॥२२८॥
प्रकान्ते साहसे वादे पारुष्ये दण्डवाचिके ,
बकोद्धतेषु कायेषु साक्षिणे दिव्यमेव वा ॥ २२९ ॥ `
गृढसाहसिकानां ठु माप्तं दिध्येः परीक्षणम् ।
युक्तिचिहेद्धिताकारवाक्चक्षु्यितेचधेणाम् ॥ २३० ॥
उत्तमेषु च सवेषु साहसेषु विचारयेत् । `
सद्धा्वं दिष्यदष्टेन सत्खु साक्षिषु वै भरगुः॥ २३१ ॥
समत्वं साक्चिणां यन्न दिव्येस्तजरि शोध्येत् । `
भाणान्तिकाषथिवादेषु विद्यमानेषु साक्षिषु !
दिव्यमारस्बते वादी न पृच्छेत साक्षिणः ॥ २३२ ॥
ऋणे ठेख्यं साक्षिणो वा युक्तिटेशादयोपि वा ।
दैविकी वा क्रिया भोक्ता प्रजानां हितकाम्यया ॥२३३॥
चोदना प्रतिकार च युक्तिटेशस्तथैव च ।
ठृतीयः शपथः प्रोक्तः तैक्रणं साधयेत्कमाव् ॥ २३९॥
अभीष्ण चोद्यमानोपि रतिहम्यान्न तद्वचः ॥
चिः चतुः पञ्च्ृत्वो वा परतो समाचरेत् \ २३५ ॥
चेोादनाभतिधातेि तु युक्तिलेश्चेः समान्वियात् |
देशकालाथे-सवन्य-परिमाण-क्रियादिभिः ॥ २३६ ॥
॥ १ त नजन
त ज १५ जम. -- म
1
मन
मिता ° 16208 न दिव्ये {0 न लेख्य 900 जलङवादहादिषुक्रियाः परा, मा. ७४९३
स्वामिनां ए स्वाभिना; अपसर्क ७०७ दत्तात्ते तथादत्ते. बीर ० २७९१8
दत्तादत्तेषु ०१ स्वाभिनां ४०१ वाहादिपु क्रिया
१9 अपरराक ए. 629, स्मृतिच °. 77 7. 117 ( ० 26९08 बलेषु ),
भिता ण्या 22 ( दिग्यतेवच), परा. मा. 12.91, स.वि. 2.
107 ( 6908 बलेपुत्रेष )
280 स्मृतिचः [आ ए. 111, वीर० ए. 118 (युक्तिलेशेङ्निता०) ` |
| 281 स्मृतिच ° {11 2. 111, परा. म. ता ¬. 90 ( 6808 सवे तु दिभ्य० }. `
` 282 व्य. मा. ‰. 316, अपराक् }. 690, स्मृतिच० [7 2. 121. परा. मा.
9. 90, वीर्° ए. 114. व्य. भा. 16805 तत्र विेधयेत् ४०१ दिव्यमप. `
यते; स्तिंच ° २७९०6 प्राणान्तिकदिबरहि बा, . `
` , 238 स्पतिच० 2. 118, परा. मा. पा -91 ( ८००8 मुक्िलिख्वादपरोषि
च वा), स॒. वि. 2. 10
४8427 परा. मा. [आ . 91 (प्वष्वः युक्तिठेखस्तथेव ४०१ युक्तिेखेः, शपः
ए
षः
.
त
4:
थ
स छ
3
रगन्यस्बुसनतादाभः ॥ २२३७
यच्च स्यात्सोपधं टेख्यं तद्ाक्ञः भावितं यदि
च्तत्न राजा धमीसनस्थितः ॥ २३८
रुष्ये च भूमं च दिव्य न परिकस्पयत् ॥ २३२॥
स्थावरेषु विवादेषु दिव्यानि परिधारयेव् ,
साक्षिभिईखितेनाधं (थ) मुक्त्या चैव व्रसाधयेत् ॥ २७० ॥
प्रमाणेैतुना वापि दिग्येनैव तु निश्चयम् !
सर्वेष्वेव विवादेषु सद्ा यौन्नराधिपः | २७१ ॥
छिखितं साक्षिणो युक्तिः प्रमाणं जिवि स्मृतम्
अनु मानं विद्रहतु तके चेव मनीषिणः ॥ २४२ ॥
पूर्वाभावे परेणेव नान्यथेव कदाचन
प्रमाणेवोदिनिर्दिषरेयक्त्या छिखितसाक्षिभिः ॥ २७३
न कथ्िदभियोक्तारं दिव्येषु विनियोजयेत् ।
अभियुक्ताय दातभ्यं दिव्यं दिव्यविरारदैः ॥ २४४ ॥
मिथ्योक्तौ स चतुष्पात्स्यात्पव्यवस्कनम्दने तथा ।
प्रड्न्यये स च विज्ञेयो द्विपात्संसतिपत्तिषु ॥२४५॥
म मदयत्, बलपेक्ष). स्यृतिच ° (1 7. 111-118) 9९98 ४0 श्त -
प्ल ६0686 {0पा' ६0 नारद्
238 अपराके 2. 630, स्प्तिव रा ‰. 122, वीर ° ए. 115 ( २९५९5 राज्ञे )
परा. मा, 7 2. 90 ( यद्वाजश्रावितं )
%89 अपरा ॥. 629, स्पतिच० {77 2. 121
240 प्य. मा. ‰. 308 |
241 अपराकं 2. 628, स्परतिच ° 111 7. 118, व्य. मा. ए. 814, स. वि. ए
107 ( 16४08 सर्वैष्वथेविवदेषु )
242 स. वि. }. 104, वीर ० ए. 115 ( ०861068 1४ ४0 भ्यास )
248 व्य. मा. }. 314, स्मरतिच० 1 ए. 118 ( 89 ए), अपरं 7
6४8 ( "8४ ४911 ). स्मृतिच ° 1<8#68 सर्वाभावे ल यलेन ४०१ अपरां
16808 त॒ यत्नेन ० प्रेणेव. `
2०4५ परा. मा. [आ 2. 152, वीर० ए. 1185
245 स्पृतिच० 77] . 120, स. वि. 1, 108
10
निभेन) +
246.248 च्य. मा, 7, ‰६4.285. = `
४ त्र > इ ४ मेः र 44 \
कायाच धिरो
पराजयस्य द्विवि परासः स्च णुद;
प्रोतः स्याददावि्यः स्वो दकदिधः स्मृतः (२५६६
चिवादान्तरस्तकान्तिः पुवाश्तरविख्डतः :
दुघण स्वक्िथोत्पन्तः एरका कयोपयादनम् ॥ २४७ ॥
अनिदेराश्च देदाश्य लिदरादेदाकाङयोः
खाक्षिणासुवजापश्च विद्वेषः कवचनस्य च:
अयुक्तदेरोपनयः साश्षिपश्चचिलाक्निया \ २४८ ॥
( च्यु } | ।
(® (५
खेख्य तु दिविध नोक्त स्वद्टस्ताल्य ङतं तथा
असाक्षिमत्साक्षिमच्च सिद्धिद रास्थितेस्तयोः। २४७९ ।
ग्राहकेण स्वहस्तेन लिखितं साक्चिबजितम् ।
स्वहस्तस्य विके प्रमाणं तस्स्मरतं बुधैः ॥ २५० ॥
उत्प्तिजातिसज्ञा च धनसस्यां च लेखयेत्
स्मरत्येव व्यक्तस्य नरयेदथस्स्टेखितः ॥ २५१ ॥
टेष्यं तु साक्षिमत्काययविदटु्ाश्चरकमम् ।
देश्ाष्वारस्थितिदुतं समन्र सवेवस्तघु ॥ २५२॥
वणेवाकयङियायुक मसंदिष्धं स्फखाश्चस्म्
अदीनफकमचिहं च छेख्यं तत्सिद्धिमाद्रयात् ॥२५३॥
चातु्विदयपुर्धेणीगणपोरः दिकस्थितिः
तत्सिष्य्थं तु यद्धेख्य तद्धमेात्स्यतिपञ्कम् ॥ २५४ ॥
अमिशापे ससुत्तीणं प्रायश्चित्ते ते जनेः । |
विश्यद्धिपच्रक्ं श्ये तेभ्यः साक्लिसमान्वितस् ॥ २५५
1
249 परा. मा. [ए }. 130. 7४३8 15 नारद् ( क्रणादान ४९९६७ 185 ). बीर°
ए. 190 894 मिता० 0 या. {. 84 8386106 1 {0 नारद. अपराक
| , 2. 666 नह € १९४8९ कापा ०919४ 6 धप,
250 स्म्रतेच० [ ए. 186, परा. मा. 0 [श
251-53 येडरानन्दु. _
„ॐ `
54 स्एतिच* प्रा {. 186, (एः 18 पत४६्त् + पितामह परा. मा.
1. 128 4
८ ` 255 च्य. म. }. 25, रीर” ‰. 189. 1१४ 8 ४इ८१४९त् (0 पितामह छ धश
` ` भा. 9. 425 ० ४० हरीत 0 भ. वि. क, 116
वा
१ 0 ~ म
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[न् त रक ५.८ [न न्लौ न् प 9.4 (§ | 1 (व १४५४ भद. 41 ५ तः ॥
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६
व्तासवादेरस्थः यच्छ
द निषे स
राक्ञः स्वदस्तसयुकं शशु स्विहितं तः
राजकीयं स्यतं छेख्य सर्वष्व्थंषं
थिवाक्यानि प्रलिज्ञा साश्विवावं
निणयश्चं यथा तस्य यथौ चकचुत स्वयम (९५९
पतदयथाक्षरं टख्ये यथापुवे निवेशयत्
अभिथोक्वभियुक्तानां वचनं प्राङ्निवेच्येत् ५ २६० ॥
खथ्यानां प्राडलिचाकस्य कुटखानां या ततः परम् ।
निश्वयं स्मतिदपखस्य मतं वतरेव ठेखयेत् \ २६९१ ॥
सिद्धना्थेन सयोञ्यो वादी सत्कार्पुवेकम्
ख्यं स्वदस्तसंथुक्तं तस्मे दयान्तु पार्थिवः ॥ ८६२ ॥
सभासदश्च येः तच स्म्रतिदाश्विदः स्थिताः
यथद्टिष्यविधौ वदत् स्वहस्तं तत्न दापयेत् ॥२६३ ॥
अनेन विधिना ठेख्यं पफश्यात्कारं विदुबधाः।
निरस्ता तं किया यज पमाणेनेव वादिना ।
पश्चात्कासे मवत्तज न सवास विधीयते ॥ २६७ ॥
भता ण अअ नन ८५०७७१०.
256 व्य. म. }. %5; वीर ° . 189.
257 स्प्रतिच० 111 2. 187, परा. {1 }. 128, व्य. म. 25, वौर ए. 190.
258 टोडरानन्द. | + 4.
259 स्यतिच ° 71 ४. 130, व्यवहारतत्व ए. 230, च्य. मा. ए. 809 ( रिन्
९४१5 यथाचारधृतं ) ण )}९ व्य. मा. 1. 358 188 606 89706 १९८88
४१०१ २०३१६ प्रतिज्ञानं तथः ९०५ तंथा चावधृतं ।
260 स्य्ृतिच ° [17 ‰. 180, व्य. नः, >. 309 (६८६ ४9) २९्त्8 लेख्यं †
ङ्ख्य; व्य. मा. ए. 355 ४ 51 2] 926 २०७8 त॒त्तद्यथाक्षर, |
261 स्मतिच ० {{{ ‰. 130. |
रस 9
९1
262 अपराके ¬. 554! २६९२६ ), स्मरि.० 180. ए. कीर ° ७.
195. 9 । | | |
268 स्ति? (71. 130, च्य. ना. 0 अत [. 358, कौर० ए. 195
" (6 १180 ए66व8 स्वहस्त उद्यस्य त}. ` = | - ` ~
64 स्ति 11 7. 151, परा, मा. 28. 124-126, कीर० 0. 19. _
86 कात्थायनस्डतिसारोद्धारः
अन्यवाधयादिहीनेभ्य इतरेषां परदीयते ।
चृत्तायुवादसंसिद्धं त्च स्याञ्जयपन्चकम् ॥ २६५ ।
( लेख्यपरंक्षा )
राजाज्ञया खमाहवय यथान्यायं विचारयेत्
लेख्याचारेण लिखितं साक्ष्याचारेण साक्षिणः ।२६६॥
वणेवाक्यक्रियायुक्तमसदेग्धे स्फुटाक्षरम् ।
अहीनक्रमचिहं च ङेख्यं तत्विद्धिमाप्रयात् । २६७ ॥
देदाचारयुतं बषमासपश्चादेश्चदमत् । =
ऋणिसाक्षिटेखकानां हस्ताङ्क टेख्यमुच्यते ॥ २६८ ॥
स्थानश्रष्टास्त्वपाङ्स्था : संदिग्धां टक्षणच्युताः।
यदा तु सास्थता वणाः कूटटेख्यं तदा भवेत् ॥ २६९. ॥
देश्ाचारविरुद्धं यत्छदिग्धं कऋमवजितम् !
छृतमस्वामिना यञ्च साध्यहीनं च दुष्यति ।। २७० ॥
मत्तनोपाधिभीतेन तथोन्मत्तेन पीडितेः
स्रीभिबौखास्वतन्तेश्च कृतं ठेख्ये न सिध्यति ॥ ८७१॥
ख्यापितं चद् द्वितीयेद्ि न कश्चिद्िनिवतेयेत् ।
तथा तत्स्यात्परमाणं तु मत्तोन्मत्तङृतादते ॥ २७२ ॥
नता रान ५०१७ १७१५५१२
` 265 स्यृतिच० [7 9. 181. परा. मा. 77. 195, वीरण ‰. 195, टोडरामन्द्.
परा. मा. ८७४१६ विधौयते {07 प्रदीयते 8 वृद्धातुवादसकिद्धि
266 स्खतिच° {गा 1. 189 (16868 किया समाहूय) 84 9180 ]. 195; परा |
मा. ए 2. 129, चौर ० ४. 197 (२९९१8 राजा क्रियाः), स. वि. ए. 119
८ &180 ८९११8 क्रियां समाहूय ०१ 5१९९०७४8 ४१४४ समादाय ण्यत् ४७८
०५५ & ९8४५102) | |
267 स्ष्तेचर [ ए. 159, पद. मा. ४. 129, स. वि. ए. 119
` %68 स्पतिच० 77 ‰. 140
269 स्म्रतिच° 11 }. 141, परा. मा. (1. 150 (ण्ण २७४१३ अकान्िश्थाः)
परा. मा. 1 7. 131, वीर्० ए. 197
| 2471 स्तिच० 7. 141 ( सतेरोपरोधि* ), स. वि. }. 119
: 212 योडरानन्द् ~
स
त -
| 210 अपराकं ए. 686 स्प्रतिचम 0. {41 { ८6९48 छत च स्वामिनः ), र | | | {`
क 87
खाक्षिदोषाद्धवेद्दुष् पत्रं वे केखकस्य वा ।
धनिकस्योपधारोषानत्तथा घाराणिकस्य चा ॥ २७३ ॥
‰& ॐ
दुेदृष भवेदिव्य शुद्ध शुदर्विनिदिरेत् ।
तत्प्नमुपधाद््रेः साक्षिरेखककारकेः \ २७४ ॥
द्रमाणस्य हि ये दोषा वक्तव्यास्ते विवादेना ।
गृद्ास्तु धकाः सभ्येः कले शाखप्रदरौनात् ॥ २७५॥
साश्चिलेखककतौरः करंडतां यान्ति तै यथा |
तथा दोषाः प्रयोक्तव्या इश्ेखस्य प्रदुष्यति ।| २७द ॥
न टेखकेन टित न दशर साश्धिष्मिस्तथा )
एवे प्रलयाथनोक्ते तु ख्टख्यं पक्रीतिततम् ।! २७७ ॥
नातथ्येन प्रमाणे तु दोपेणेव तु दृषयत् ।
मिथ्याभियोगे दण्ड्यः स्यात्साभ्याथोच्वापि हीयते ॥२७८॥
णवे दुं चृपस्थाने यसमस्तद्धि विचायते ¦
विञ्चद्य बाह्मणेः साधं पञदोषान्निरूपयेत् ॥ २७९ ॥
येन ते कृतां यान्ति साक्षिटेखककारकाः ।
तेन दुष्टं भवेलिख्यं द्धेः शुद्धि चिनिर्दिंोत् ॥ २८०॥
न,
मा म् य
११३ ञ्य. मा. ए. 388, अपराके 7. 686, परा. मा. 77 7. 181, स्खृतिच० गा
2. 142 ( घनिकस्यापि वा ), टोडरानन्द (२९९5 धनिङस्योपथरेख्यं ), बेर ०
ए. 197
2१५ व्य. मा. . 388, वीर ° 9. 197.
25 स्यृतिच० 7 ए. 142 ॐत 2. 192, परा. मा. [आ . 132, अपरक्
611, व्य. म, ]. 39, बीर ० 7. 164.
११6 स्य्रतिच० [1 ए. 142, परा. मा. प्रा ए. 132, वीर ° 7. 199.
9 अपराकं ए. 689, स्मरातिच० 7 ए. 148, परा. मा. ए. 182, तरीर°.
1. 195
2175 स्मरतिच० 7 ए. 148, परा, मा. ना 2. 152 { ८७४8 तथ्येन हि
~ न्रा तु) 1 म ए.
219 स्मृतिच० {11 7. 148, अपराकं ए. 689, परा. मा. 11 2. 189-188.
४४६1 एप(७७ ६० बहस्पति } ५५५ | =
280 श्य्रतिच ° 111 ‰. 143, पर. मा. 111 ‰. 184
६
प्यः साक्षिभिवोचयो टेखकस्य सतेन चा ¦ २८२ ॥
कताकतविवादेषु साक्षिभिः प्ननिणेयः |
षिते पश्वे वादी तदारूहास्तु निदिश्ेत् \। २८२ ॥
८५५
कऋणिखान्षिरेखकान दस्तीक्त्या साधयेत्ततः \ २८७ ॥
भथ पश्चत्वमापन्नो टेखक्रः सदं साक्षिभिः ¦
तच्स्वदहस्तादिभिस्वेषा विद्युध्ये्ते न संदायः ॥ २३८५ ॥
ऋणिस्वदस्तसदेषे जीचतो वा सतस्य वा
तत्स्वदस्तकृतेरन्येः पचेस्तद्िख्यन्निणेयः ॥ २८द ॥
क्षभुदेपि यद टेख्ये सृताः स्चेपि ने स्थिताः ।
खिखितं तत्याज ठु तेष्वपि हि देषु च ॥ २८७ ।
्रत्यक्चषमनुमानेन न कद्ाचित्परवाध्यवे।
तसरष्टेख्यस्य दुष्टस्य वचोभिः खाक्षिणां भवेत् ॥ २८८
1
तता ०५५
981 अपराक 7. 686, स्मृति ० {11 7. 148, बीर० 7. 19
282 स्मतिच ० (1 ए. 144, पस. मा, प्रा ४. 138 ( 58068 {0 बुहस्पति
| ४10 16808 साक्षििवाचा )
288 मितरा° ०८ या० प्र. 92 ( [कणलः एष), अपराकं ए. 689 ( 0१5६
४ ).समूतिच ° [ना 2. 144, स. वि. 2. 120 (क्यः भा ०णुज)
२६१ वीर् ० . 198, व्य. मा. ॐ. 339 (‰6९11 0868 {० न्!र₹द् 9०१ २६४१8 हृस्तीत्थ)
परा, मा. }. 184 { ०8०७6 {० बृहस्पति )
246 स्प. मा. 9. 589, अपरके 7 889 स्मृत 111. }, 145, परा. मा.
11. [. 144; वीर> 7. 198
286 व्य. मा. 2, 39 , अ के ए. 690, परा. मा. प्रा १. 134, वीरम `
0. 198
0 ७८ 287 अपराक्रं . 689 स्भ्रातनर 80) 7. 146 { फ 116) 76948. युथ] {0 ~
चद 3४८ तटस्थता; /, वरा. मा. 11. 9. 134
288 जपराकुं 7. 689, स्मृति 7. 9. 145
स
स
५. प स 18 इ 9 ॥ { . ८ । = र् ५
कथयन स्पुिशसष्छ
नियः स्वद्यना्थ हि पञ्च दूषयति स्वयम् :
खििस छिखितेनैव साक्षिमत्साक्षिभिदरेत् । ६८९ ॥
कूटोक्तो साक्षिणं वाक्याह्धुखकस्य च पर्चकम्
च्छ्ाद्धि न यः कूट स दाप्यो दसमु्तमम् ६. ९० ॥
आद्यस्य निकटस्यस्य यचर्छनक्तेन स याचितम् ।
दढ णरङ्या तन्तु छस्य दुशंरुतामयात् ॥ २९९
टेख्यं जिदात्समातीतमदषछाश्यावित च यत् ।
न तत्सिद्धिमवाोति तिष्ठत्स्वपि हि साक्षिषु ५२९२॥
युक्ते रान्ति तु दिख यो न दद्टीयेत् !
नेव याचेत ऋणिकं न तत्सिष्ठिमवाद्वयात् ॥ २९३ ॥
पश्यात्कारनिवद्ध यत्तद्यत्नन निचार्येत् ।
यदि स्याद्य क्तयुक्त तु प्रमाणं किखित तदु ॥ २९४
अन्यथा दरतः काय पुनरेव बिनिणयत्
अत्तध्य. तथ्यभावेन स्थापेतं ज्ञानविश्रमात् ॥
निबत्यं तत्प्रमाणं स्या्यत्नेनापि कुतं नृपैः ॥ २२५ ॥
#
मुद्राञ्चदध क्रियाश्च क्तिशुडध सचिह्कम् ।
र ।
॥
राज्ञः स्वहस्तसं्यदध इुद्धिमायाति शरासनम् ॥ २९.६
निर्दोषं पथितं यच्च ठेख्यं तत्सिद्धिमाधयात् ॥ २९७
खे पते स्फुटान दोषान्नोक्तवानृणिको यदि ।
1]
[1 0)
[1
तता म मत ना १
289 अपराके ). 689, स्मृतिचर [ए 145, परः. ना. ष्ठु ए. 134 (जण
(च 1 1 ॥ ४ \
{ £ ५ वद ६ [४ क ] ५2 { ५ % 1 {ट { १. 4.4
19.४66 1814 }. अपसक्रे 285 07 1. 590 £ [२ ६॥€ ८ ४० 10198तं ४
स्] दभ्र 1 स्त श्रेयः {लदताश्चं (3 | {ए श्ण ॥ ६ 4.9. 2६107 18
मत € 85८11068 {9६४९ 2811 £ नारद.
290 अपराकं 1. 689, शौर < {. {99, परा- मा. 11 2. 184 (तणङ् ॥78४ ए)
8४५ 1). 13४ (९) € ‰८ 98&६€ 11048 ४९४७6 8710 दाक्ष्य {0
क्यात्). क क
291-99 परा. म. 111 79. 184- 185, अपराक 69% ( ४४10५७5 ४9 वहु-
स्पति ), व्य. मा. . 840 ( ॥95 291.292 ९०१ &86प्र९९ © बृहृस्पत्ति)
8०६ 1. 26 4 ( 128 291 \., स्थृतिच ० (४5611068 291 {0
स्पाति 9०५ 292.-298 #० कालान् ) १5०4६ तत्पदिपधत्व माप्चुयात्. _
294-95 स्मृतिच ° {11 ए. 145- (य
-296 सपरा ‰. 684, स्मृतिचन [{] . 146, स. वि. ], 191.
9 परा. मा. [आ 1. 136. व.
46 ` करस्यायनस्मुतिसायोद्धारः
ततो विदातिवषौणि स्थितं चन्न स्थिरे भवेत् ॥ ९८ ॥
शक्तस्य संनिधाव्थों येन टेख्येन भुज्यते !
वषीणि विदाति यावत्तत्पन्न दोषवर्जितम् ॥ २९९ ॥
अथ विदातिवषोणि आधि्ं्छः सुनिश्चितम् ,
तेन लेख्येन तत्सिथिदिरंष्यदोषविवाज्जता ॥ ३०० ॥
सीमाविवादे निर्णति सीमापवं विधीयते !
तस्य दोषाः प्रवक्तव्या यावद्धषाौणि विरातिः ॥ ३०५१ ॥
आधानसहितं यन्न कणं टेख्ये निवेशितम् !
सृतसाक्षि प्रमाणं तु स्वस्पभोगेषु तद्विदुः ॥३०२ ॥
प्राप्तं बानेन चेक्किशिदानं चाप्यनिरूपितम्
विनापि अुद्रया छस्यं परमाणं मृतसाश्षिकम् ॥ ३०३ ॥
यदि खन्ध मवेक्किञ्धित् अक्ञपिवां कृता भवेत्!
भरमाणमेव लिखितं भृता यद्यपि साक्षिणः ॥ ३०४ ॥
208. व्य. मा. 1. 340 ( २७०९8 कान्तपनरं ), परा. मा, 111. ?. 186 ( २०० `
| तथा दृष्ट स्फुटं दोषं ४४१ क्रौतपूत्रं स्थित) बीर ° 1. 200, |
१99 मिता ०० या. 11. 24 ( २७१०5 विंशतिवषोण्यतिकन्तं ), अपराकं ‰. 690
व्य. मा. 2. 340 ( 16808 बन्धो {0# अश्च ) स्पृतिच ० 77 0. 146
( 16808 येन लेस्येन ) ४०६ 1854 ( 688 दर वषोण्यतिकरन्तं ), पर. `
मा. 77 1. 186, वीर ° 7. 200 ४० स, वि. 127 (७४ विशद्रषण्यति-
कन्त.)
800 भिता० ० या. 1. 2५, स्पृतिच ० [ए ए. {46 ( ५8९४; 065 £ स्मृत्यन्तरं
। ॥णापत्ल] ९4067 अध कात्यायन), अपृराक ॥. 691 (२७४१5 तत्सिद्ध
ठस्य दोषविवजितम् ) परा, मा. [1 2. 136 (५९०५5 ४8 अपराकं १०68), `
स, वि. ए. 121 ( 95८0968 ४० स्मृलयन्तर 86 ल काल्यायने #प
१; 6805 1116 अपराकं }, वार ° ४. 200, स. वि. ए. 128
301 भिता० ० या. 1. 24, अपराकं 7. 691, परा. मा. 7 7. 136, वीर*
0. 200. स्मृतिच° {[ , 146 १ स. वि. 1, 121 कन एए(€ (0
स्ष्लन्तर, 00116 स. वि, {. 125 प्प एप्रौ65 धऽ &पव् ४6 7८666
| पष्ट ० काल्यायन.
802 अपराके ए. 6, परा. मा. [रा ए. 136 (२७५१ मृतं साक्षिभ्रमाणं)
808 प्रा. सा. या 2. 187, वीर ° . 200 ( २९४१३ देयं वाथ निरूपितम्)
804 अपरां 2. 691, परा. मा, रा 2. 19, स. 0. 192. अपरि `
, अर््िफपाह ७ नारद्, अ
स्परतिसासढारः ' ओ)
॥ +
क कि
रतं परतिकाङं यद् आहितं स्मारितं तथा ।
ङेख्यं सिध्यति स्व॑ज तेष्वपि च साष्षिषु ॥ ३०५॥
न दिव्यैः साक्चिभिव।पि दीयते छिखितं कचित्
डेख्यधमेः सदा भ्रेषठो ह्यतो नान्येन दयते ॥ ३०६ ॥
तदयक्तप्रतिरेख्येन तदिशिष्टेन वा सदा 1
ठेख्यक्रिया निरस्येत निरस्यान्येन न कयित् ॥३०७॥
दपमस्थं यथा बिस्बमसत्सदिव दर्यते ।
तथा ठेख्यस्य बिस्बानि कुवर्ति कुशला जनाः ॥३०८॥
द्रध्यं गृहीत्वा यद्धेख्यं परस्मे सध्रदीयते ।
छन्नमन्येन चारूढं सयतं चान्यवेर्मनि ॥ ३०९ ॥
दत्ते वृत्तेथतरा द्रव्ये कचद्धिखितपू्वंके
एष एव विधिज्ञेयो लेख्यद्युद्धिविनिणये ॥ ३१० ॥
स्थावरे विक्रयाधाने ठेख्यं दूटं करोति यः।
स समभ्यम्भावितः कायां जिहापाण्यद्ध्रवजतः॥२११॥
मरे्चद्धेदितं दग्धं छछिद्धितं वीतमेव वा । ॑
तदन्यत्कारयङ्ेख्यं स्वेदेनोदिखितं तथा ॥ ३१२ ॥
(शकिः) :. `
लिखितं साच्चिणो अकिः प्रमाणत्रयभमिष्यते ।
भ्रमणे स्मृता सुक्तेः सद्ेख्यसरमता नरुणास् ॥ ३१२ ॥
805 सष, वि. 2. 129. |
806 अपरां . 692, स्पृतिच° 777, ए. 151, व्य. मा. ए. 814 ( ८०९९8
तदिव्येः ००१ लेख्ये धरैः ), स. वि. 2. 128. |
807 अपराकं 2. 692 (८5805 तदुक्ति° ०१ न साक्षिश्चपथेः कचित्), स्पृतिच"
7. ए. 151, स. वि, 2. 128 (तचुक्तः अति °), योडरानन्द् (५6४08 1116
अपराके ) |
908 स्म्रतिच० {11, }. 148, व्य. मा. ए. 589, वीर° }. 197
09-810 स्मृतिच ° 111. ए. {52 र. ५ क
811 परा. मा. 17 2. 1858 (८७88 असम्यग्मावितः ), स्खतिच० 77. ए. 150.
819 अपरां . 681, स्मृतिच° 1 7. 138 अ
818 स्पृतिच० [, ‰. 158, स. वि. ए. 124 ( ८९९१5 स्थिरा भुक्तिः सेख्या
धा
` 818 व्य. मा. 9. 818
49 क छाए एफ दए & एतहि.
र्थ्यागगभनदहार जलवाह खरय । | 4 |
मुक्तिरेव तु गवी स्यास्पममाणेष्विति निश्चयः ॥ ३१७ ॥
अञुमानाद् गुरूः साक्षी साक्षिभ्यो छिखित गुर
अव्याहता छिपुरूषी भुक्तिरेभ्यो गरीयसी ॥ ३१५ ॥
नोपभोगे बं कायैमाहन् तत्तेन वा ।
पटुखीपुरुषादीनाभिति धमो व्यवस्थितः ॥ ३९६ ॥ |
युक्तिस्तु द्विविधा घोक्ता सागमानागमा तथा । ।
बिपूरुषी या स्वतन्त्रा सा चेदस्पा तु सागमा ॥३१७॥
मुख्या पैतामही भुक्तिः पैतृकौ चापि खंमता।
भिभिरतैरविच्छिन्ना स्थिरा षष्टयाब्दिकी मता ॥३१८॥
सागमेन तु मुक्तेन सम्यग्भुक्तं यदा तु यत्
आहतौ रभते तत्तु नापाय तु तत्कचित् ॥ ३१९ ॥
मनष्ागमलेख्येन भोगारूढेन वादिना ।
कारः प्रमाणं दानं च क्ीतेनीयानि ससदि ॥ ३२० ॥
स्मातकाटे क्रिया भूमेः सागमा भक्तिरिष्यते |
अस्मातयुगमामावात् कमाल्तिपुरुषागता ॥ २२९१ ॥
814 स्मृदिच ° 711. ‰. 158, परा, मा. 77, 7. 146, स. वि, ए. 124 (०४९8
` रथ्यादिनगरदार). परा. मा, २०४०६ रथ्यानिगेमनद्वरे जल्वाहादिर्सश्रये.
816 मिता० ०० या. 71. 2५, स्मृतिच ° 77. ए. 156, परा.मा. 7. 2. 17, |
~. श. वि, 2.16 |
817 स्मृतिचण [. ए. 167 ( भत ८८६१8 स्वतन््रानागमाल्पा तु सागमा ) |.
` परा.मा. पा. 141. न छ |
818 अपरां ए. 686, वीर ० 2. 206, कत्यकल्पतर. ` |
819 व्य. मा. ०. 345 ००९ रडदनन्द् , ०0४ 8861106 ४0 विष्णु & कालायन;
| 6०000876 विष्णुधमेसूत्र ए, 181
820 स्ृतिच ० 11. 7. 162, परा. मा. रा. 7. 140, स. वि, 7. 150
, 821 भिता० ० या. न. %7, अपयकं ए. 686 (96९11868 ६ स्पृत्यन्तर), व्यन्भा.
ए. 846 (अस्मातेकषेखुगमात् भावात् £), परा. मा. {गा 1. 142 (88४
. 081 ), स, वरि. ए. 183, स्मृतिच ° 111. 9. 168, ब्रीर ० . 204 (*- `
(प७७ ४० नारद् ) प | | ह
रः 43
भक्तिस्तु सागमा
कारण भुक्तिरेवेका सतता यः अिपोरुषी ॥ ३२२
आहतो थक्तियुक्तोपि लेख्यदोषान्विरोधयेत् ।
तत्सुतो युक््तदोर्षास्तु ठेख्यदोषांस्तु ना्रुयात् ।३२३॥
येनोपात्तं हि यद्द्रव्य सोभियुक्तस्तदुद्धरेत् ।
चिरकालोपभोगेपि अरक्तिस्तस्येष नेष्यते ॥ ३२४ ॥
चिरन्तन मविज्ञातं भोगं रोभान्न चाख्येत् ॥ ३२५ ॥
पिना अक्तं तु यद्द्रव्यं सुक्त्याचारेण धमेत
तस्मिन्प्रेते न वाच्योसौ भक्त्या प्राप्तं हि तस्य तत् ॥३२६॥
त्रिभिरेव तु या सक्ता पुरुषेभू यथाविधि ।
रुख्याभावप ता तच्च चठुथः समवाप्नुयात् ॥२२७॥
यथा क्षीर जनयति दधि काखाद्रसान्वितम् ।
दानहेतुस्तथा काखाद्धोगखिपुरुषागतः ॥ २२८ ॥
अक्तिवंखवती खाखे सन्तता या चिरन्तनी ।
विच्छिन्नापितुसाक्ञेयाया तु पूर्वप्रसाधिता ॥३२९२॥
न भोगं कष्पयेत्खीषु देवराजधनेषु च ।
बाश्रोजियवित्ते च मातृतः पितृतः कमात् ॥ ३३० ॥
822 अपरा्क ए. 686; परा. मा. गा. 9. 146, व्य. मा, 1. 544 धत वीर°
7. 206 2807106 ४0 नारद. व्य, मा. ८७४१8 आधो तु. 411 छन्न
२,
अपराफै ८७२१ चिरन्तनी 7०" चिपौरषी.
88 स्परतिच० 177, , 164, परा. मा. 77. ए. 145.
824 व्य. मा. 2. 345.
825 स्मृतिच० 111. ए. 168.
826 टोडरानन्दं |
397 व्य. मा. ४. 341 ४०१ रोडरानन्द् ( ०४४ 9861186 ४0 विष्णु 9० काद्या
| यन ). (0०९ विम्णुधमंसनन प. 187
828 व्य्, मा. 7. 350
829 इत्यकत्पतर, परा. मा. 111. ए. 145 ( 88619९8 ४ ४० रृहस्पति } छ
880 इृदकत्पतर, व्य. मा. ए. 851 ( २०९०8 श्रोद्धियवृद्धे च प्रपि पितृतः), `
टोडरानन्द् ( प्रमे च पितृतः); स्मृतिचण० 11. 2. 158 ।
44
(1 ध 381-39 परा. मा. 1. 148, स्मृतिच ° 771. ए. 158 ( ४86] 068 0 नारद् )
` 338-384 परा. मा. 1. ए. 148; स्मृतिच ° 111. ए. 169 (४8९८0०७ #0 नारद)
१७१8 यत्पम्भुक्तम् ५५;
` 388 अपरा$ 2. 68, व्य. मा. ए. 361 ( २९९8 सन्नः ४० अन्येषु ), बीर०
2. 21 | न | |
पतच छि ९५ क दए
भ दकम्
अर्थार्थी चान्यविषये दीधेकाल वसेन्नरः ॥ ३३१ ।
संमाव्रत्तोऽवतीं ङुयत्स्वधनान्वेष्णं ततः |
पञ्चाशदान्दिको भोगस्तद्धनस्यापह्ारकः ॥ ३३२ ॥
परतिचेदं व्ादचाब्दः कारो विद्यार्थिनां स्मृतः
शित्पविधाशथिनां चेव ग्रहणान्तः पकीतिंतः ॥ ३३३ ॥
सखुृद्धिवन्धुभिश्चैषां यत्स्वं मक्तमपदयताम् ।
तपापराधिनां चैव न तत्काखेन दीयते ॥ २३६ ॥
सनाभिभिबोन्थवेश्च यद्भक्तं स्वजनेस्तथा।
भगात्तत्न न सिद्धिः स्याद्धोगमन्यत्र कस्पयेत् ॥३३५॥
युक्तिः )
अर्थिनाभ्यथितो यस्तु विघातं न प्रयोजयेत् ।
भिचतुःपश्चरृत्यो वा परस्तदणी भवेत् ॥ ३३६ ॥
दाने प्रज्ञापना भेदः संपरोभक्रिया च या ।
चित्तापनयनं चैष हेतवो हि विभावकाः ॥ ३३७ ॥
एषामन्यतमो यञ्च वादिना भावितो भवेत् ।
मूखक्रिया तु तत्र स्याद् भाविते बादिनिह्वे ॥ ३३८॥
( साक्षिणः )
न काठहरणं काय रज्ञा साक्िप्रमाषणे ।
महान्दोषो भवेत्कालाद्धमेव्याृत्तिरश्चणः ॥ ३३९ ॥
986 वीर" >. १९५.
9-898 इलयकल्यतर ( २०४०8 वादिनो 8०0 मातापि ), रोडरानन्द, वीर० `
= ए. 24-295. = ` ८ £ १
( ०6808 काले ), स्परृतिच ° 71. 214, टोडरानन्द २
सासेखारः 45
तान् परीक्षेत साक्षिणो चुपतिः स्वयम् ।
साक्षिभिभाषितं वाक्यं सभ्यः सह परीश्चयेत् ॥३४०॥
एकरियापरिज्ञाने देयः कारस्तु साक्विणास्
संदिग्धं थत्र साक्ष्य स्यात्सयः स्पष्ट विवादयेत् ॥३४१
सभान्तः साक्चिणः सवोनर्थिप्रस्यधिसंनिधौ ।
प्राड्विवाको नियुञ्जीत बिधिनानेन सान्त्वयन् ॥३७२॥
यदंद्धयोश्नयो्वैत्थ कायंस्मिश्चेष्ठित मिथः!
तद्ब्रूत सवं सत्येन युष्माकं ह्यत्र साक्षिता ॥ ३४३ ॥
देवनाह्यणसान्निध्ये साक्ष्यं पृच्छेदतं दिजान् ।
उदङमुखान्पाङ्मुखान्वा पुवोहें वै शुचिः हयुचीन् ॥
आहूय साक्षिणः पृच्छेन्नियस्य शपथे शरैराम्
समस्तान्विदिताचारान् विज्ञाताथान्पृथक्पुथक् ॥३४५॥
अगथिष्त्यार्थिसां निध्याद जु मूतं तु यद्भवेत् ।
तदृ आद्यं साक्षिणो वाक्यमन्यथा न ब्रहस्पतिः ॥३४६॥
ख्यातङलक्रीलाश्च रोभमोहविवजिताः । |
क्ताः शद्धा विशिष्टा ये तेषां साक्ष्यमसंशयम् ॥३४अ
840 वीर ० 7. 165 ( #786 0४ ), व्य्. मा. ए. 381, अप्रा 8. 675,
भिता० ०० या. 1. 80 (कनः ए)
841 अपरां. 677 ( ०४०8 सः पृष्टं ), स्मृतिच° 711. 2. 218, स. वि.
ए. 148 ( ८०808 पलसक्षयं तु स्यष्ट सथो }), योडरानन्द् ( २७808 स्पुषटं }
842 मिता, ०० या. 1. 7३, वीर. . 1617, अपराकं ‰. 675 (४० आ86),
परा. मा. 17. 2. 107 (४6१७8 ४० मनु); व्य, म, 9861068 {18
87 #76 252४ {0 ४० मन 824 कात्यायन, |
848 बीर. 7. 167, अपराकं ए. 675 (८० ०४०००), परा. सा. [11. ए. 108 (४8
लप 068 ४० मतु.)
44 मिता. ०० या. 71. 78, बीर. ‰. 16, अपराकं ए. 678 8० परा. मा.
(7. 2. 111 (०४ 6४6 98 सनु 78) - ;
845 मित्ता. ०४ या. 71. 78, अपराकं 7. 674 (४8०८7968 0 नारद्)
846 व्य. मा. 7. 317 (८०8०8 अन्यथाह्), टोडरनन्द, बीर. 7. 142
347 स्प्रतिच. 1. 2.114, बीर. ए. 149 (८९805 आताः रिष्टा 8०0 तेषां वक्व)
46 | कषा छापर 14 प्र 00 एणणासाःए
` विभाव्यो वादिना यादृक् सदशैरेव भावयेत् '
नोर्कृष्टश्चावकृष्टस्तु साक्षिभिभ्वयेत्सद्। ॥ ३४८ ॥
लिङ्धिनः चरणिपूगाश्च बणिग्वातास्तथापरे ।
समह स्थाश्च ये चान्ये वगांस्तानववीदृभगुः ॥ ३४९ ॥
दासचारणमटानां हस्त्यश्वायुधजीविनाम् ।
घरत्येकेकं समूहानां नायका बर्गेणस्तथा
तेषां वादः स्ववगेषु वभिणस्तेषु साक्षिणः ॥ ३५० ॥
स्रीणां साक्ष्यं लियः कुयद्धिजानां सद्या दविजाः
= श्ुद्रा्च सन्तः शुद्राणामन्दयानामन्त्ययोनयः ॥ २५१ ॥
अराक्य आगमो यत्र विदेशप्रतिवास्िनाम् ।
जैवि्यप्रहितं तत्र ठेख्यसाश्यं भ्रवादयेत् ॥ ३५२ ॥
अभ्यन्तरस्तु निश्चेपे साक्ष्यमेकोपि वाच्यते ।
आर्थिना प्रहितः साक्षी मवत्येकोपि दूतकः ॥ ३५३ ॥
सस्कृतं येन यत्पण्यं तत्तेनैव विभावयेत्
पक एव प्रमाणं स विवादे तत्न कीर्तितः ॥ ३५४ ॥
टेखकः प्राडविवाकथ्च समभ्याशचेवानुपूंशः ।
` शपे पश्यति यत्कायं साक्षिणः समुदाहताः ॥ २५५ ॥
रि
846 वीर० ‰. 149
849-50 अपरा ए. 666, बीर० ?. 149, सोडरानन्द (26808 पुनिः ० भृगुः)
( 851 रोडरानन्द् (४७५९5 ४०५ काल्यायन 80 सलु), व्य. मा, 1. 328 (४० 0०४
| मनु ४99 कार्या. ). 1118 38 सनु ° 8.68
952 अपराक ए. 667 ( ०७०08 विदे प्रतिवादिनाम् ), टोडरानन्द
358 व्य. मा. 2. 319 ( अभ्यन्तरणेनिकषेपे 820 याचितः {9 दूतकः ), स्पृतिच
क 2. 115, परा. मा. ॥ा. 2. 96 ( तष 19 ) 76808 आभ्यन्तर -
स्तु विज्ञेयो 8१ वा वदेत् {0 वाच्यते, वीर ° 2. 151 ( ८6४१8 याते {भ
दूतकः ), भ्यवहारतत्व . 214 २७8१8 एकोपि याते
व 384 स्मृतिच ° 311. 1. 175 (२७४१8 संस्तुतं येन संन्यस्त), कीर, 2. 151, व्यव-
` हूरतच्व }. 214
त 9855 न्य. मा. ए. 820, 828, येडरानन्द्
47
ताक्षिणः समुदाहृताः । ` `
धर राजा च व्यवहारिणास् ॥ ३५६॥
कायेष्वभ्यन्तरो यश्चाथना प्रहितश्च यः
कुस्याः कुलविवादेषु भवेयुस्तेपि साशक्चिणः ॥ ३५७ ॥ `
रिकथभागविवादे त॒ संदेहे सखभुपष्स्थते ।
कुल्यानां वचनं तच्च प्रमाणं तद्धि पर्यये ॥ ३५८ ॥
साक्षिणां छिखितानां वु निर्दिष्टानां च वादिना ।
तेषामेकोन्यथावादी भदात्लवे न साश्चिणः ॥ ३५९ ॥
अन्येन हि कृतः साक्षी नेवान्यस्तं विवादयेत् ।
तदभावे नियुक्तो वा बान्धवो वा विवादयेत् ॥ ३६० ॥
तद् वृत्तिजीविनो ये च तत्सेवाहितकारिणः ।
तद् बन्धुसुहृदो भरत्या आघ्तास्ते तु न साक्षिणः ॥३६९॥
माप॒ष्वसृखुताश्चैव सोदयांखुतमातुखाः । |
पते सनाभयस्तूक्ताः साक्ष्यं तेषु न योजयेत् ।। ३६२ ॥
कुल्याः संबन्धिनश्चैव विवाद्यो भगिनीपतिः। ।
पिता बन्धुः पितुभ्यञ्च श्वरो गुरवस्तथा ॥ ३६३ ॥
नगरभ्रामदेरोघु नियुक्ता ये पदेषु च ।
वट्धमाश्च न पृच्छेयुभेक्तास्ते राजपुरूषाः ॥ ३६४ ॥
856 भ्य, मा. ए. 840 £ रोडरानन्द ( 009 88८08 1४ ६0 नारद 9०
कात्यायन ), व्यवहारततव ए. 219 ( %8न 068 ४0 मनु ‰१ कालायन).
857 व्य. मा. ए. 820 ( ध्न्य ४८ #० नारद् धयत् कृत्यायन ); ग्यवहारतत्त }.
219 ( &86ण 065 ४0 मनु 8 कात्यायन ). न
858 व्य. मा. 1. 392. :.
889 अपराकं ए. 670, स्मृतिच ° 711. ए. 189, न्य. मा. ए. 825, पररा. मा. 71}.
0. 116, व्यवहारतत्त्वं . 215. | ध
860 अपराके ए. 670, व्य. मा. ‰. 327, स्पृतिच० 771. . 189. क
861 अपराकं ए. 669, स्पतिच° 71. 2. 177, भ्य. मा. ‰. 824, कौर० 2. 160.
862-568 अपराकं 0, 669--670; व्य. मा, 8. 824 08188 006 ९786 ए
| जण्ण सोद्याएुत. संबन्धिनश; स्छतिच० 171. 0. 180, परा. मा,
(आ. 99 (गणा 6 1०6 कुल्याः. . -परतिः), वीर ° 10.160 ( ११९९ भ्ल
मातृष्वसुः सुताश्चैव ४४० ०९९ पितृष्वससुतास्तथा । मातुलस्य एतक्चिव). `
864 रमतिच> [7 1. 160, अपराकं 1. 670, परा. मा. 1. 0. 100, -- 2
१५५
(8 ` कष्रए प्रापण ^ एए ^नषएभि.र
सादसात्ययिके चैव परीका ङुजचित्स्युत। ॥ ३६५
व्याधातेषु नपाज्ञायाः संग्रहे साहसेषु च ।
स्तेयपारष्ययोश्चैव न परीक्षेत साक्चिणः ॥ २६६ ॥
अन्तकवेदमनि रात्री च बहिभ्रीमाञ्च यद्भवेत् ।
पतेष्वेवाभियोगञ्येन्न परसीश्चेत साक्षिणः ॥ ३६७ ॥
न साक्ष्यं साक्षिभिवाच्यमपृषेरथिना सदा। `
न साश््यं तेषु विघेत स्वयमात्मनि योजयेत् १२६८
लेख्यारूढश्योत्तर्य साक्षी मागेद्धयान्वितः ॥ ३६९ ॥
अथ स्वहस्तेनारूढस्तिष्ठेकः स एव तु ।
न चेत्प्रत्यभिजानीयात् तस्स्वहस्तेः प्रसाधयेत् ॥३७०॥
आर्थेना स्वयमार्नीतो यो ख्ये संनिवेदयते ।
ख साक्षी टिखितो नाम स्मारितः पञ्चकादते ॥२७१॥
यस्तु काथैप्रसिद्धयर्थं दष्टा कार्यं पुनः पुनः ¦
स्मार्यत द्यर्थेना साक्षी स स्मारित इद्ोच्यते ॥३७२॥
प्रयोजनाथमानीतः परसङज्गादागतश्च यः,
दधौ साक्षिणो त्विखितौ पूर्वपक्षस्य साधको ॥३७३॥
अर्थिना स्वाथेसिद्धयथं प्रलय्थिवचने स्फुटम् । |
यः श्रावितः स्थितो गूढो गूढसाक्षी स्र उच्यते ३७७
साक्षिणामपि यः साश्षयसुपयुपरि भाषते । न
अवणाच्छाबणाद्वापि स साश्युत्तरसंक्ितः ॥ ३७५ ॥
भोकने
965 स्छतिच० 77 ए. 188, व्य. मा. 2. 327 ( 79808 परीक्षा न कचिन्मता ),
वीर्०° 2. 169, व्यवेहूारतत्त्त . 214
966. अपरक ए. 670, स्यतिच ° }. 183, ष्य. भा. 7. 928
967 `अपराक 7 671, व्य. मा. ए. 828
868 व्य, मा. ?. 826 ।
969 स्मृतिच ° [प्. ४. 184
। श1-92 मितार ०० या. 7. 68, बार ए. 148 (4
५ ५ ५५ 978-875 मिता० ०० या. 11. 68, बीर ° ए. 148-1449., सघ. वि. ‰. 142
२ - ष क र ४ स र
~ ~
&9
उद्ाप्यं यस्य विश्चभ्मात्कायं वाः विनिवेदिदस् |
गूढचासी स विज्ञेयः कायेमरष्यगतस्तथा ॥ ३७द ॥
अर्थ यत्र विपन्नः स्यात्तच्च साक्षी खतान्तरः
युथा च सतो यच्च तज्राप्येवं भ्रकद्ध्यते ॥ ३७७ ॥
( सक्षिदोषेद्धावरनम् )
ङेख्यदोषास्तु ये केचित्साश्चिणं चेव ये स्ताः
वादकाटे तु वक्तव्यः; पञ्यादुक्तान्न दूषयेत् ॥ २७८ ॥
उक्तेथं साश्चिणो यस्तु दषथेत्प्रागद्षितान् ¦
न च तत्कारणं वयात् घाद्मयात्पूलसाहसम् ॥ ३७९ ॥
नातथ्यन प्रमाणं तु दोषेणेष तु दूषयेत् ।
मिथ्याभियोगे दण्ड्यः स्यात्साभ्याथाच्चापि हीयते ॥ ३८० ॥
मत्याथनाथना वापि साल्िदृषणसाधने ।
प्रस्तुता थौपयोगित्वाद् व्यवहारान्तरं न च ॥ ३८१ ॥
सः श्लिदोषाः प्रवक्तव्याः संसदि प्रतिवादिना ।
पत्रे विलिख्य तान्सलवान् वाच्यः भत्युत्तर ततः ॥३८२
ग्रतिपत्तो तु साश्ित्वमदेंन्ति न कदाचन!
अतोन्यथा भावनीयाः क्रियया प्रतिवादिना ॥ ३८३॥
अभावयन्धनं दाप्यः व्रयर्थं साश्चिणः स्फुर् ।
भाष्रेताः साक्षिणः सवं साक्षिधमनिसङ्ताः ५३८४॥
876-97 योडरानन्द ॥
878 स्थतिच ° 17. ए. 192, टोडरानन्द, स. वि... 148. अपराकं ]. 672 ००
व्य्. म. {. 39 926 वोर्° . 164 28९6106 1४ © बृहस्पति. टोडरानन्द
१९8५8 पश्चाद्रक्ता न
879 अपराके !. 678, व्य. मा. }. 327, स्खतिच ° [ए. ए. 199, सवि. 1. 144, `
टोडरानन्द ( "6808 न तत कारणं ), व्य, म. . 89, वीर० . 164.
380 अपरा 7. 671. स्खतिच० 7. 7. 192, स. वि. 7. 144, वीर० ए. 164. `
881 परा. मा. 7. ए. 106, वीर ° ?. 163, ष. वि. 1. 145 (6४१8 न तु साक्ष्य
सियेोगः स्यात् व्यवहारन्तरं तथा) | १
382-884 परा. मा. [11. ए. 106. मिता ० या. 7. १2 ४४5 884 ( 7७१8 = `
दषणं सक्षिणं स्फुटम्). व्य. म. ए. 38 $ एप।6 ४686 {० व्याप्ष. स. वि,
2. 144 85 384 (कयत् कल एप्6इ 16 ४0 कृत्या), वीर 2. 165 =
(४४४१ प४९8 884 #0 ग्यास्) °
| ।
90
कालयायनस्पतिसायोद्धारः
आकारोङ्ेतचेश्ठाकिस्तस्य भावं विभावयेत् ।
प्रतिवादी भवेद्धीनः सदमानिन छक्ष्यते ॥ ३८५ ॥
कस्पः स्वदोथ वैकव्यमोद्ठशोषाभिमरोने 1
भूटेखनं स्थानहानिस्तियमूष्वेनिरीक्चषणम्
स्वरभेदश्च दुष्टस्य चिह्वान्याहूमनीषेणः ॥ ३८६ ॥
सछभान्तःस्थेस्तु वक्तव्यं साक्ष्यं नान्यत्र साक्षिभिः
स्वं साश्षयेष्वयं धर्मो ह्यन्यत्र स्थावरेषु तु ॥ ३८७ ॥
अथिप्रलयार्थसानिष्ये साभ्यार्थ॑स्य च संनिधौ ,
प्रव्यश्च देरयेत्साक्ष्य परोक्षं न कथचन ॥ ३८८ ॥
अथेस्योपरि वक्तव्यं तयोरपि विना कचित् ।
च तुष्पदेष्वयं धमो द्विपदस्थावरेषु च ॥ ३८९ ॥
तौस्यगणिममेथानामभावेपि विवादयेत् ।
क्रियाकारेषु सर्वषु साक्षित्वं न ततोन्यथा ॥ ३९० ॥
वधे चेत्प्राणिनां साक्ष्यं बादयेच्छिवसंनिधौ !
तदभावे तु चिह्स्य नान्यथैव प्रवादयेत् ॥ ३९१ ॥
स्वभावोक्तं वचस्तेषां राद्यं यदोषवर्जितम्।
उक्ते तु साक्षिणो राज्ञा न प्रष्टव्याः पुनः पनः ॥३९३॥
स्वभावेनैव यद् रयुस्तद् ग्राह्ये भ्यावहारिकम् ।
अतो यदन्यद्धिब युधेमाथं तदपार्थकम् ॥ ३९२ ॥
38586 व्य, मा. . 812-13, वीर ° 7. 96
887 स्यृतिच ० 111. 2. 206, अपराकं ‰. 675, परा. मा. 171. 7. 112 (प
नियः स्यात्स्थवरेषु च )
888 टोडरानन्द, व्य, म. ए, 41
389 स्म्रतिच ° [1. ए. 206; परा. मा. 111. ए. 113, व्य. म. ए. 41
890 रोडरनन्द, व्य. म. ए. 41
. 891 स्पृतिच ० 11. ए. 206, पररा. मा. 7. ए. 118. व्य. म, 7. 41
892 मिता. ० या. [. 79 (८० ४४6), अपराकं 9. 675, स्मरतिच गा. . २
-: ध 898 स्पृतिव ° [[1. ए, 209, परा. मा. (7. 7. 113 ( 96) 068 ४० भरं
ग018 18 मनु 8, 78, _ -. `
91
यदृषष्र वक्तव्यं तत्तथैव तु
केकका्य यद्वक्तव्यं तत्पृथकर् पथक् ॥ ३९७ ।¦
भिन्नकाटे तु यत्काय विज्ञातं तत्र साक्षिभिः,
पकेकं वादयेत्तच भिन्नकालं तु तद्धशुः ॥ २९५ ॥
ऋणादेषु विवादेषु स्थिरप्रायेषु निशितम् ।
ऊने वाप्यधिके वाथ प्रक्ते साध्यं न सिध्यति ॥३९द
साध्याथारोपि गदिते साक्षिभिः सकठं भवेत् ।
खीसङ्गे सादस्ते चौय यत्साध्यं परिकल्पितम् ॥३९७ ॥
ऊनाधिकं तु यत्र स्यात्तःसाक्ष्यं तञ्च वजेयेत् ।
साक्षी तत्र न दण्ड्यः स्याद्वन्दण्डमहति ॥ २९८ ॥
देशं का धनं संख्यां रूपं जाल्याकृती वथः ¦
विसंवदेध् साक्ष्ये तदयुक्तं वि दुधाः ॥ ३९९ ॥
निरदिष्ेष्वथंजातेषु साक्षी चेत्साक्ष्य आगते ।
न ब्ूयादक्षरसमं न तन्निगदितं भवेत् ॥ ४०० ॥
ऊनमभ्यधिक वार्थ विवय साक्षिणः,
तदप्ययुक्तं विक्षेयमेष साश्िविनिश्चयः ॥४०१॥
(सक्षि्णां दोषा दण्डाश्च )
अपुष्ठः स्वंवचने पृष्टस्याकथने तथा ।
साक्षिणः संनिरोद्धव्या गद्य द्ण्ड्याश्च धमेतः॥७०२॥
पनि
394-895 व्य. मा. १, 529 (16848 विभिन्ने चव यत्काय), अपराक . 675; परा
मा. 171. ए. 115 8४४तएपा€8 #0 वसिष्ठ ४०५ २७४१8 विभिन्नेरेव तत्कायं 24
विधिरेष अ्रकीर्तितः 07 भिन्नकालं तु @.; व्य. भम. ए. 42 &0५ स. वरि.
208 804 ्व!र, 1. 168 2180 &861106 60 बेधिष 80 १6४५ 8 पर्. प;
0068
396-397 मिता. ० या. {. 20, अपरराके 7. 678; स्मतिच० 111. >. 209
व्य्. सा. 1. 312 (88 396 (ण)
898-8 ,9 स्पृतिच० (7. 7. 210, अपरं 7, 678, व्य. मा. ए. 538 (१४३ _
998) वता 1 | |
| 400-401 स. वि. 9. 147. परा. मा. 1. ए. 114 85611068 ५१6 {00
| वृहस्पति 0 व्य. मा. }0. 88 8&8611068 ६0 नारद् | ४
402-408 स्मरतिच० 11. 7. 912-218, परा. मा. रा. 7. 116 2501098
402 {० प्रजापति, |
50 काल्यायनस्पतिसारोद्धारः
आकारोक्तचेष्ठाभिस्तस्य भावं विभावयेत्
भतिबादी भवेद्धीनः साचुमानेन लक्ष्यते ॥ ३८५ ॥
कम्पः स्वेदोथ वैकल्यमोष्ठशोषाभिमरोने
भूटेखनं श्थानहानिस्तियेगूष्वनिरीक्षणम्
स्वरभेदश्च दुष्ठस्य चिह्वान्याह्ुभनाषेणः ॥ २३८६ ॥
सखभान्तःस्थस्तु वक्तव्यं साक्ष्यं नान्यत्र साक्षिभिः
सवसराक्षयेष्व्थं धर्मा ह्यन्यत्र स्थावरेषु तु ॥ ३८७ ॥
अथिप्रलयर्थिसानिष्ये साध्यार्थस्य च संनिधौ
प्रत्यश्च देदायेत्साक्यः पेक्ष न कथचन ॥ ३८८ ॥
अथैस्योपरि वक्तव्यं तयोरपि विना कचित् |
चतुष्पदेष्वयं धमं द्विपदस्थावरेषु च ॥ ३८९ ॥
तौस्यगणिमनेयानामभावेपि विवादयेत् ।
क्रियाकारेषु सवेषु साक्षित्वं न ततोल्यथा ॥ ३९० ॥
वधे चेत्पाणिनां साक्ष्यं बादयेच्छिवसनिधौ
तदभावे तु विहस्य नान्यथेव प्रवादयेत् ॥ ३९१ ॥
स्वभावोक्तं वचस्तेषां ग्राह्यं यदोषवर्जिंतम् ।
उक्ते तु साक्षिणो राज्ञा न प्रष्टव्याः पुनः पुनः ॥३९३॥
स्वभावेनैव यदशरयुस्तद् ग्राह्ये व्यावहारिकम् ।
अतो यदन्यद्धिव युचमाथं तदपार्थकम् ॥ ३९३ ॥
885-86 ग्य, मा. ए. 312-13, वीर०
887 स्मृतिच ° (11. 9. 206, अपराकं [. 675, परा. मा. 111. ‰. 119 ( २७७८8
निलयः स्यात्स्थावरेषु च )
388 टोडरानन्द, व्य. म. ४, 4,
389 स्य्रतिव ° [. ए. 206, परा. मा. 77, 2. 113, व्य. म. 2. 41.
890 टोडरानन्द, व्य, म. 2. 41. 2 ।
891 स्मृतिच० 1. 2. 206, परा. मा. 1. ए. 118, व्य. म, ?. 4
392 भिता. ०7 या. 1. 79 (० 0216), अपराकं ए. 675, स्म्रतिच ०111. ए. 208.
4118 18 मन 8. 78
कालयायनर्मतिसारो ड्रः ध
=.
तस्तु यदईडष् वक्तन्य क्त्थवत्
५.९
विभिन्नेकेककायं यद्कक्तव्यं तत्पुथक्् पुथच्क् ।॥। ३९२ ॥!
रि
क
मक्का तु यत्कार्यं विभातं तत्र साश्चिभि
एकेकं वादयेत्तच भिश्नकारं तु तद्भशुः ॥ ३९५ ॥
ऋणादेषु विवादेषु स्थिरप्रायेषु निथितम्
ऊने वाप्यधिके वाथ भोक्ते सार्य न सिध्यति ॥३९९
सभ्या्थारेपि गदिते साक्षिभिः सकं भवेत्
सखीखङञे साहसे चयं यत्साध्यं परिकल्पितम् ॥३९७ ॥
ऊनाधिकं तु यत्र स्यात्तत्साक्ष्यं तत्र वजयेत् ।
साक्षी तज न दण्ड्यः स्यादबरुवन्दण्डमद्ेति ॥ २३९८ ॥
दें कठं चनं संख्यां रूपं जाल्याकृती वयः ।
विसंवदेय्र सश्षये तदयुक्तं विदुवधाः ॥ ३९९ ॥
निर्दि्रेष्व्थंजातेषु साक्षी चेत्साक्ष्य आगते ।
न बूयादक्षरसमं न तन्निगदितं भवेत् ॥ ४०० ॥
ऊनमभ्याधेकं वार्थ विवृयु््र साक्षिणः ।
तदप्ययुक्तं विज्ञेयमेष साश्चिविनिश्चयः ॥४०२॥
( सरक्षिणां दोषा दण्डाश्च )
अपृष्टः सवेवचने पृष्टस्याकथने तथा ।
साक्चिणः संनिरोद्धव्या गद्य दण्ड्याश्च धमतः ॥०२॥
कि =
894-895 न्य, मा. ए. 329 (९९१8 विभिन्ने चेव यत्काय), अपराकं 7. 675; पस.
मा. 17. ए. 118 9४ एप+€§ ४0 वसिष्ठ ४१ २७३१8 विभिननेरेव तत्कार्यं ००4९
विधिरेष प्रकीर्तितः 0" भिन्नकालं तु &€.; व्य. म. ४. 42 80 स. व्रि. 9.
208 91 वर. 0. 168 9180 8861105 † व॑सिष्ठ »०५ 6३ &8 परः, सा.
| 0068
896-397 मित). ०0 या. . 20, अपरके . 678; स्मृतिच० 111. }. 209,
व्य. मा. 7. 812 (88 396 ०४)
8398-8 ,9 स्प्रतेचव० [{1. 2. 210, अपरःके [, 678, व्य्र. सा. ए, 338 (11४8
| 9598)
400-401 स. व्रि. 2. 147. परा. मा. 11. 7. 114 88611068 {116 {फ० {9
# बृहस्पति श्त व्य्. मा. ए. 88 &8611068 0 नारद . |
402-408 स्यृतिच० 11. 22. 212-213, परा. मा. {11. ए. 116 98611088
| 402 0 प्रजापत्ति.
59 काल्यायनस्यतिसायेद्धारः
वाक्पारुष्ये छठे वादे दाप्याः स्युखिदातं द्मम् ।
ऋणादिवदेघु धन ते स्युदाप्या ऋण तथा । ०३३
यः खाश्ची नैव निर्दिष्टो नाहूतो नापि दाशतः,
व्रयान्िथ्येति तथ्यं वा दण्ड्यः सोपि नसचमः।,४०८॥
साश्ची स्यं न चदृतरुयात्समदण्डं वददटणम्
अतोन्येषु विवदिषु तरिश्तं दण्डमदेति ॥ ५०५
उक्त्वान्यथा ब्रवाणाश्च दण्डनयाः स्युवाक्छलखान्विताः ।४०६॥
येन कायस्य खोभेन निददष्ठः कूटसाक्षणः ¦
गृहीत्वा तस्य सर्वस्वे कुयोन्निविषयं ततः ॥४०७॥ |
यत्न वै भाषेतं काथ साश्चिभिवांदिना भवेत्
प्रतिवादी यदा तत्र भावयेत्कायेमन्यथा ॥
वहुभिश्च कुतखीनेवा पूवः स्युः करूटसाक्षणः ।४
यदा शुद्धा किया न्यायत्तदा तद्धाकयरो धनम् ।
द्धाच्च वाक्यायः शुद्धः स शुद्धो इति स्थितिः ॥२०९॥
सत्तादात्त पतीयेत यज साक्ष्यचत वदेत् ।
रोगोधिक्ञातिमरण द्विसत्तादात्निसक्च वा ।
षरचत्वारिराके वापि दव्यजाव्यादिभेदतः १४९१०॥
( दिव्यानि तेषां च वरिवादपद्विषयिणी व्यवस्था )
न कथ्चिदभिये्तारं दिव्येषु विनियोजयेत् । `
अभियुक्ताय दातव्यं दिव्य दिव्याविद्ारदैः ॥७१९॥
विं
404 व्य. मा. ए. 326, राडरानन्द, व्यवहारतत्व 216. स्णतिच ० 111. 212
४ 88011068 ६0 विष. =
` 405 अपरा 7. 677, परा. मा. 1. ए. 115, स्पृतिच० (1. 218 रोडरानन्द
406 मिता० ०४ या. 11. 82, स्प्रृतिच ° {1. 214, वौर° ए. 184
407 अपरां 1 679, स्मृतिच° {1{. ‰. 211
408 अपराक ए. 679, व्य. मा. 888 ( ४6५ साक्षिभिः पुवैवादिनां 8०
| अनक्तास्तु कर्छनिवौ ), स्खतिच० 111, . 218, वीर* . 179
409 परिता० ० य. 1. 80, अपराक्रं 676, व्य. पा. 2. 386 ( ए 76) २९9५8
` क्रिया न स्यात् 9०५ 198४ 1106 ४8 शुद्धतया ठ वाक्याथः शुद्धः दद्धोन्यर्था
नतु), वीर० ‰. 174
410 स. षि. {. 149
411 अपराके 7. 695, स्श्रातेच° पा. 22५, परा. मा, प. 1, 152, स. विष
४ 16१. वीर ४ 2९8
58
पार्थिवैः शङ्कितानां ठ तरदीनि नियोजयेत्
आत्मश्युद्धिविधाने च न हिरस्तज्च कल्पयेत् ॥४१२॥
लोकापवाददुष्ठानां राड्धितानां च दस्युभिः '
तुखादीनि नियोज्यानि न रिरस्तञ वे शगु: ॥४७१३॥
न दाङ्ाश्च दिर: कोशे कस्पयेत्त॒ कदाचन ।
अरिरंसि च दिव्यानि राजभत्येखु द्ापयत् ॥ ७१७॥
हाङ्ाविभ्वासंसधाने विभागे रिकरिथनां सदा ।
क्रियासमूदककेत्वे कोरामेव प्रदापयेत् ॥ ४१५॥
दत्तस्यापह्वो यत्र प्रमाणं तच्न कस्पयेत् ।
स्तेयसाडसयोदिंव्य स्वव्पेप्यथं प्रदापयेत् ॥ ७१६॥
सवैद्रव्यग्रमाणं तु ज्ञात्वा हेम प्रकल्पयेत् ।
हेमप्रमाणयुक्त तु तदा दिव्य नियोजयेत् ॥ ४१७॥
ज्ञात्वा सख्यां सुबणानां रातनारे विषं स्मृतम् ।
अदीतेस्तु विनाशे वै दद्याञ्चेव इतादानम् ॥ ४१८॥
षश््या नाशे जलं देयं चत्वारिंशति वै धरम् ।
विदादराविनादा वे कोशापानं विधीयते ॥ ७९१९॥
पञ्चाधिकस्य वा नारो तदधीधस्य तन्दुखाः ।
तदर्घधस्य नारे तु स्पृशत्पुत्रादिमस्तकम् ॥ ४२०॥
[तका प
412 स्मृरतिच ° (11. ए. 295, परा. मा. 111. ‰. 158 ( 76805 निर्दिष्टानां च
दस्युभिः । सङ्लाङ्द्धिपराणां च दिव्यं देयं शिरो विना); वीर° . 229
( रालः २९४१8 003४ 1९6 परा. मा })
418 अपरक 7. 696, स्मतिच ° 111. 2. 226; परा. मा. (1 ए. 158
414 अपरके 7. 696 ( #8४ 0९1 ), स्मरतिच ° 11. ए. 226, प. मा. प्रा
7. 158
415 स्यतिच० 771. 7. 226, परा. मा. पा. ‰. 154, वीर ० , 229, स, वि, ए
168, अपरा 7. 695 { ०० 08106 )
416-419 मित्ता ° ०० या. {1. 99, अपरकं 7. 700, स्यतिच° [. ए. 28४
` ( ०णा#8 ४6 ४ स्तेय &@. ), रोडरानन्द्, घ. वि. ए. 178, 179
वीर ० ., 231. स्प तिच > "७४08 स्वे द्रव्य ०. `
418.421 मिता. ०० या. 1. 99, स्पृतिच् * ए. 288 804 अपर क [. 700 (00108
एवं विचारयन्. . दीयते), परा. मा. 7. ए. 155 (०प्ण४ एवं. हीयते), `
वीर० 7. 281, स. वि. ए. 174 9०१ 178 (2.178 ए०86४8 क्र० किमः
। गथ ० 8876 8प्रए ९०४ शते विषं तु पादोने दत्तथयुतततृतीयके ॥ जपृ- = ~
54 काल्यायनस्यतिसासेद्धारः
तदर्ार्ध॑स्य ने त॒ लैकिकाश्च क्रियाः स्ताः,
प्व विचार्यत्राजा घमीथौभ्यां न दीयते ॥ ७२९॥
( दिव्यानामथिभ्रलधिजातिशिल्पाहुसारिण्यो व्यवस्थाः }
राजन्यश्च धरं विप्रे वेद्ये तोयं नियोजयेत् ।
स्वेषु सरवैदिव्यं वा विषं वज्य द्विजोत्तमे ॥४२२॥
गोरक्चषकान्वाणिजकां स्तथा कारुकुरीख्वाम्
प्ेष्यान्वाधषिकथ्चिव मादयेच्छरुद्वद् द्विजान् ॥७२३॥
न छोहरिचल्पिनामश्च सिट नाम्बुसेविनाम् ¦
मन्बयोगविदां चैव विषं दद्याच्च न कचित् ॥
तण्डलैने नियुञ्जीत बतिनं मुखरोिणम् ॥७२४॥
कुष्ठिनां वज्ञयेदग्नि सिरं श्वासकासिनाम् ।
पिन्तर्छेष्मवतां नित्यं विषं ठ परिवजेयेत् ॥ ४२५॥
मदपञ्ीव्यसनिनां कितवानां तथेव च ।
कोदाः प्र्ञिन दातव्यो ये च नास्तिकञ्ततयः ॥४२६॥
मातापिवदिजगुख्वारद्लीराजघातिनाम् ,
महापातकयुक्तानां नास्तिकानां विशेषतः ॥ ८२७॥
लिङ्गिनां प्रराठानां तु मन्योगक्रियाविदाम् ।
वणसंकरजातानां पापाभ्यासप्रवतिंनाम् ॥ ४२८॥
पतेष्वेवाभियोगेषु निन्येष्वेव च यत्नतः
` दिव्यं भ्रकर्पयेन्नेव राजा ध्मैपरायणः ॥ ४२९ ॥
लिमागदहीने तु शतां तु तुला स्ता ॥ कोरादानं तदधे वा दशपन्चकसपसु ।
तद्धे तण्डुला ज्ञेणास्तदधे तप्तमषकम् ॥ ४0 2801; 068 418-419 £ नृद्धमनु).
422-423 स्टतिच ° 1171. ए 239 ( ४9 ४18 {8४7 ॥ ष ०? 422 ), अपरकै
४. 1 तीर् 00. 285; 287, स. वि. ए. 180 ( १७७6 429
, . ` छण. | | |
` 42५ अपरां 1. 699 ( २९७05 चेव नश्िदिष्यं विधीयेते ), स्प्रतिच० 7. 2
240, प्रा. मा. 7. ४. 166 76४08 व्रतिनां मुखरोगिणाम् ), सष. वि. ?.
` ` 178 ( जरणिनं ); वीरण . 286, व्य. म. 7. 48.
425-426 स. वि. 2. 178, मिता० ०० या. 7. 98 1४8 428; एप; 79768 20
४0१०४, व्य. म, 2. 49 0४8 6186 426 प 8861068 ४ {0
पितामह; वीर० . 287 28611088 01. £0 पितामह. `
| 49480 स्दतिचर 1. 2. 941, परा. मा. पा. ए. 160-161, वीर ए. १88, = |
| |“ परोडरानन्द्, परा. मा, २०४0९ प्रभानं ४ टोडरानन्द् त वीर् २०४ (
1
नेच्छन्ति साधवो यच्च तत्र शोभ्याः स्वकैनरेः ॥४३०॥
महापातकयुक्तेषु नास्तिकेषु विरोषतः।
न देयं तेषु दिव्यं तु पापाभ्यासरतेषु च ॥ ४३१॥
एषु वादेषु दिव्यानि प्रतिषिद्धानि यत्नतः ।
कारयेत्सञ्जनेस्तानि नाभिरास्तं व्यजेन्मयुः ५४३२
अस्प्द्याधमदासानां स्खच्छाना पापकारिणाम् ।
प्रातिरोम्यग्रसरूतानां निश्चयो न तु राजनि ॥
तत्प्रसिद्धानि दिव्यानि सरह तेषु निर्दिशेत् ॥ ४३३॥
( दिव्यदेशाः ) |
इन्द्रस्थनभिशस्तानां महापातकिनां चृणाम् ।
नपद्रोहे प्रवृत्तानां राजद्वारे प्रयोजयेत् ५४३४॥
प्रातिखोम्यशध्रसूतानां दिन्य देय चतुष्पथ ।
अतोन्येषु सभामध्ये दिव्यं देयं विदुबुधाः ॥४३५॥
काट्देराविरोधे तु यथायुक्तं रकल्पयेत् । `
अन्येन हारय दिव्यं विधिरेष विपयैये ॥ ४३६॥
उदेराकाख्दत्तानि बहिवोसङृतानि च ।
व्यभिचारं सदाथैषु कुचेन्तीह न सशयः ॥४२७॥ `
प्रमदानां ० प्रशठानां; परा, मा. 6908 न सन्ति साधवः.
481-482 टोडरानन्द; वीर० 2. 288, स्यतिच ° 171. 242 ( 1४8 482
` णण ), अपराके 0. 696 (986 068 482 0 भृश ) |
488 मित्ता ज्या. आ, 99, स्छतिव० 7. 242, प्रा. मा. 7, ?. 167
( 6818 धनदारापहाराणां म्लेच्छानां ), बीर ° 7. 288, व्य. म. ‰. 49
( "6808 समये 0 संशये }
484-485 मिता, ०८ या. (र. 99, स्दतिच ° %. ०५५, पर. मा. रा. ४. 168
( 688 दण्डस्थाने 07 इन्द्रस्थने ), टोडरनन्द, स. वि. 2. 188, बीर
1. 241
486 टोडरानन्द, वीर० 7. 238
4917-489 अपराके 7. 69१; परा. मा. 1. 2. 168 भप्त वीरण ए. 241 0४९९ =
षै.
साधेयत्तत्वुनः साध्यं उ्याधाते साधनस्य हि
दत्तान्यपि यथोक्तानि राजा दिव्यानि वज्ञयेत् ॥
मदवयेश्च देच पुनर्देयरनि तानि वै ॥५३८॥
तस्माद्यथाक्तविधिना दिव्यं देयं विदयारदैः ।
अयथोक्तभयुक्तं तु न दातं तस्य साधने ॥४३९॥
शिक्यच्छेदे वुखाभद्धे तथा चापि गुणस्य वा ।
ददस्व संशये चैव परीक्षित पुननेरम् ॥७४०॥
(अशिदिव्यविधिः )
परस्लरूत्यभियुक्त्ेतस्थानादन्यव द्यते '
न दग्ध तु विदुदैवास्तस्य भूयोपि दापयेत् ॥७७१॥
(उदकदिव्यकरिधेः)
तारं स्त्वनायसेरभः परकुर्वीत विदयुद्धये ।
वेणकाण्डमयांश्चिव क्षक्ष च खडढं श्वित् ॥४५२॥
शिते त॒ मञ्जनं कार्यं गमनं समकािकम् ।
गमने त्वागमः कार्यः पुमानन्यो जे विशेत् ॥४७३॥
दियमान वु दृद्येत न कणो नापि नासिका ।
अप्सु प्रवेदाने यस्य शुद्धं तमपि निदिंशेत् ॥४५४॥
निमज्ज्योत्छबते यस्तु दष्यसपराणिभिनेरः
पुनस्त निमनज्जेत्स देश्चचिहविभाेते ॥४७५॥
तङ १686 1 धमषण 116) 006 2801116 10 नारद् ; स्तिच ° 7. | ७606 १० नारद् ; स्पृतिच० ए, २५
४8 487 ; टोडरानन्द 88 १७1६6 429 ( फ6]\ = 2861068 1४ ४0
बृहस्पति 820 कात्यायन ) |
440 भपराकै .704, स्यृतिच ° 11. ए. 259, व्य. म. ए. 61, वीर० ए. 254. र
441 अपराके ‰. 109, मिता० ०) या. . 1017 ( फल २6४१8 प्रस्खङनभि-
शस्तशचेत् ), परा. मा. 111. . 181 ( प्ज्वाठेनाभिरस्तप्रत् ), स्छतिच°
रा. 2.1, वीर० १. 267, सवि. 2. 199. =
442 अपराक ए. 1१09, मिताः ०४ या. 1. 109 ( 00 78106 )} 19808 कछराश्चा-
98716 ), वीर० फ. %68, स. वि. ? %00, `
443 अपरां 7, 710; वीर ० ए 92 ( ४781 ॥911 ).
- नायसाभ्ास्तु ), टोडरानन्द, व्य्. म. }. पण परा. भा. (1. ए. 1885 (०0
444-445 जपराक 711, टोडरानन्द (९९१8 निमज्जेत अङ्गविहविभाविते), वीर० ष 1
। ; &
98 (५ व्य 444), परा. मा, 11. ए. 186 093 00 9 २७४१, ४
` निमज्जत स सचिहविभाविते), स. वि, 7. 208 (४४३ 444 प; 00 पयत) =
गव्यायनस्शृतिसारोद्धारः 57
( विषाद्व्यविधेः )
अजाशुङ्गनिभं रधाम सुपीनं जुङ्गसभवम्
भङ्गे च युङ्गवेराभं स्यातं तच्चङ्गिणां विषम् ॥४४६॥
रक्तं तद्सितं छुयोत्कटिनं चैव तत्श्वणात्।
अनेन विधिना ज्ञेयं देव्य दिव्यविदारदैः ५४७७1
वस्सनाभनिभ पीतं वणेज्ञानेन निश्चयः ।
शुक्तिशङ्ाङतिभेङ विद्यात्तद्वत्सनाभकम् ॥७९६८॥
मधुक्षीरसमायुक्तं स्वच्छ कर्व+त तत्क्षणात्
बाह्यमेव समाख्यात लक्षणं चमेसाधक्षः ॥७६९॥
पूवोकं शीते देशे विषं दद्यात्तु देहिनाम् ।
धृतेन योलितं क्ष्णं पिष्ट त्रिराद्गुणेन तु ॥७५०
विषस्य परषड्मागाद्धागो विश्त्तिमस्तु यः ।
तमण्टभागदीनं तु रोध्ये देयं घुतण्प्ट्टुतम् ॥४५१॥
( कोरदिन्यविधिः)
स्वस्पेपराधे देवानां स्नापयित्वायुधोदकम्
पाय्यो विकारे चाश्युद्धो नियम्यः शु्चिरन्यथा ॥४५२॥
( तण्डुकविधिः )
देवतास्नानपानीयदिव्ये तण्ड्लमक्षणे ।
दयुद्धनिष्ठीवनच्ड्ुदधो नियम्योद्युचिरन्यथः! ॥४५३॥
`". अवष्टम्भाभियुक्तस्य विशुद्धस्यापि कोदातः।
` खदण्डमभियोगे च दापयेद्भियोजकम् ॥
दिव्येन शुद्धं पुरुषं सत्ङुयाद्धार्मिको सपः ॥४५४॥
446-448 अपरा$ ए. 719, टोडरानन्दं ( २७१५8 पुपीतं ), वीर ० 7. 274 ( 148
#]] ` ४६66 ) | |
449 अपराकं 7. 712, टोडरानन्द, वीर ० ए. ‰74 |
4650 मिता० ०४ या. 7. 111, अपरक . 712, परा. मा. 1. . 188, स. वि
‰. ‰06 ० वीर ° ए. %75 (0०४ ८९४त् त्रि श दरणान्वितम्)
451 अपरार्कं 2. 718. मिता० ० या. [. 111, परा. मा. 1. 1. 188 ५०
वीर ° 7. 274 8806106 1४ ६0 नरद. 1४ 18 नारद (कण।दान ९6186 328)
452 अपराके }. 714, रोडरानन्द, वीर० ए. ‰79 (२९४१8 पाययित्वायुधोदकम् ). `
458 टोडरानन्द &४१ व्य. म, ए. 68, बीर ० ए. 282-283
टोडरानन्द. `
8
64 कालयायनस्श्ातक्ाराद्धणि
श्लोणितं इश्यते यञ्च हचुवारं च साद्षत
गाञ्च च कम्पते यस्य तमद्युद्धं विनिदिेत् ५४५५५
अथ दैवविसंवाद्त्निखसादात्त दापयेत्
अभियुक्छ तु यल्नेन त्थ दण्डभेवं च ॥४५६
तस्यैकस्य न सर्व॑स्य जनस्य यदि तद्भवेत्
तेगोश्चिङ्त्िमरणमणे दाप्यो दन च सः ॥४५७॥
क्षयातिसारविस्फो सस्त, स्वस्थिपरिपीडनम्
नेन्नखग्गखसेगश्च तथोन्मादः प्रजायते । |
शियेख्ग्युजमङ्गश्च देविका व्याधयो चरूणाम् ॥४५८॥
दाता दापयेच्छुद्धमश्द्धो दण्डमाग्भवेत् ॥४५९॥
विषे तोये इताश च तुखाकोशे च तण्डुले ।
तक्तमाषकदिन्ये च कमाण्ड प्रकस्पधत् ॥७६०॥
सष षद्शतं चैव तथा पञ्च रातात्न च ।
चतुलखिद्धयेकमेवं च दीनं दीनेषु कल्पत ॥४६१॥
( रपथिधिः )
ध॑जापदिदयते कम॑ कतैरङ्गं न तूच्यते ।
दृ्चिणस्तज्न विज्ञेयः कमेणां पारगः करः ॥७६२॥
आचतुदैरकांदह्ल यस्य नो राजदचेकम् ।
व्यसन जायते धोरं सं केयः रापथ श्युचिः ॥४६३॥ न
455 टोडरानन्द (8861068 ४० 0४ वृहस्पति ४०१ काल्यायन) ; अपरा क ?. ११5 ॥ि
810 व्य्, म. . 88 #86 06 ४० पितामह. 1४ 28 नारद् (ऋणादान 842)
466 अपरां 7. 115, स्ट्तिच० 771. ए. 278 (२७९08 देवविसंबादः #90
अभियुक्त प्रसन्नेन); व्य. म. ‰. 88
457 व्य, म. {. 88, व्यवहारतत्वे 7. 29
588 स्मृतिच ° ‰. 278, व्य. स. [. 88 (८०४५8 ज्वरातीसारविष्फ
व्यवहारतत्व . 229 (५७९९8 ज्वराती ° ४8 व्य्. म. १6९8)
गृहहिथि °),
489 मिता. ०४ या. [. 118, स्मृतिच० (1. ए. 288, परा. मा. प. 2. ।
‰04 (८९४08 न दण्डं दापयच्छुद्ध न शुद्धो), टोडरानन्द 8671098 ४0 चु ं
४20 कट्यायन. = | ॥
460-461 मिता. ०४ या ए, 118 स्एतिच० ए. 7. 988,
9 ` पद. भा 11 |
?. 2०५, ठोडरानन्द (%86)068 ६0 मनु ४०१ कतत्फायनः)
` 46 वीर° 2. 98
9
14
119
य
थ ~ - ४
नस्पतिखारोद्धारः 99
( उन्मत्ताश्तन्त्रादिक्तानां विचारः )}
तेनेव मत्तेन तथा भावान्तरेग वा ।
यदत्तं यत्कृतं वाथ प्रमाणं नैव तद्भवेत् ॥ ४६७ ॥
स्वतन््रङूतं कायं तस्य स्वामी निवतैयेत् ।
न भजौ विवदेतान्यो भीतोन्मत्तक्रतादते ॥ ४६५ ॥
पिताऽस्वतन्बः पितृमान् ्ाता भादव्य एव वा ।
कनिष्ठो बाविभक्तस्वो दासः कमेकरस्तथा ॥ ४६६ ॥
न क्चेगरहदासानां दानाधमनतिक्रयाः |
अस्वतन्बङ््ताः सिद्धि पाप्चुयुनौनुवणिताः ॥४६७॥
प्रमाणं सर्वं एवैते पण्यानां कयविक्रये ।
यदि संव्यवहारं ते कुवैन्तोप्यनुमोदिताः ॥ ४६८ ॥
्षे्रादीनां तथेव स्युश्चौता ्रात्र्तः सुतः ।
निषुष्टाः कृत्यकरणे गुरुणा यदि गच्छता ॥ ४६९. ॥
निषुष्ठाथेस्तु यो यस्मिन् तस्मिन्नथं प्रमुस्तु सः,
तद्धतौ तत्कृतं कायं नान्यथा कतम्हैति ॥ ७७० ॥
सुतस्य खुतदाराणां वरिस्वं त्वचुरासने ।
विक्रये चैव दाने च वरित्वं न सुते पितुः ॥४७१॥
( निणयङलयम् )
गरदधिस्तु शाखततच्क्तैिकित्सा समुदाहता ।
श्रायश्ित्तं च दण्डं च ताभ्यां सा द्विविधा स्युता।४७२॥
468 व्य, म. 7. 88 (७४08 शपयेः), वीर ० ए. 287, उ्यवहारतच 7. १9
464 स्मृतिच० 11. . 305, परा. मा. 11. ए. %16 (८6०१३ वाचान्तरेण {०
. आवीन्तरेण)
465 स्यृतिच० 171. 1. 306, स. वि. 7. 501-509 (२००९९ न वार्ता दिव.
देतान्यो £)
466 रौखरानन्द, वीर० ए. 128 | | ५
4५67-4] स्मृतिच° 711. ए. 307-809, प्रा. मा. 7. ए. 217-219 (४8 ।
४11 ७ 66७ 470}, रोडरानन्द (608 नानुमोदिताः ० नायुवर्णिताः |
1० 467); वीर० ए). 126-128. = ` |
42 स्पृविच ° 771. . 300, स. वि, . 509
69
473
474
475
476
477
478
५9
कात्यायनस्वतिसासोद्धारः
अनेकार्थाभियोगेपि याचत्संसाधये
साक्षिभिस्तावदेवासौ कमते साधितं घनम् ॥४७३।
सवौपलापं यः कृत्वा मिथोष्पमपि संवदेत्
सर्वमेव तु दाप्यः स्थादभिथुकतो वृहस्पतिः ॥ 5७ ॥
ठं धमौखनस्थेन समेनैव विवादिना
कायौणां निणयो इदयो ब्राह्मणे: सह नान्यथा ॥७७५
व्यवहा सन्स्वयं दष्टा श्चत्वा वा प्राड्विवा रुतः ।
ज्ययर्रं ततो दयात् परिज्ञानाय पायवः ॥ ७७६ ॥
( दण्डविधिः )
(4 छ,
राजा त स्वामिने विमं सान्त्वेनेव पदापयेत् । .
देशचरेण चान्यां स्तु दुष्रन् संपीड्य दापयेत् ॥४७७॥
रिकिथने सुदं वापि च्छटेनेव प्रदापयेत् ।
वणिजः कषेकांश्चापि रिर्पिनश्चा्रकीद् गुः ॥७७८॥
धनदनास्रहं बुद्ध्वा स्वाधीनं कमं कारयेत् ।
अदाक्तौ बन्धनागारं पवेद्यो घाह्मणादते ॥ ४७९ ॥
कर्षकान् क्षत्रविरशुद्रान् समीदःनांस्तु दापयेत् ॥४८०॥
तीर9 [५ {82
व्य. मा. 8. 811 (८७४५३ मिध्याद्पमपि णव द्यं स्यादिति युक्ता), स्पृतिच°
(11. 2. 28
स्यृतिच० [{{{. ए 289
डरारन्द्
भिता. ०० या. {{. 40, अपराके ए. 645 (७४१3 स्वापरिनो); स्छतिच° 7 |
ए. 285, परा मा. (1. ए. 200
मिता० ०० या. आ. 40 (879 0४1१ ०णाङ), अपरा 0. 645 (85४ १४
क), पर. मा त्रा. ए. 200 9० 256, स्यृत्तिच ° 111. ए. 284 (ष्ठ
0811). अपराक ८९११5 छलेन न च दापयेत् ध
भिता. ० या. (1. 26, अपरर्कं 9. 688 (८००१8 बद्ध्वा स्वाभिनः; क्म), <
` स्मृतिच> (1. ए. 292 ४०१ 390, परा-मा. वा. 2. 209. : = `
` 460 स्तिच ° {11 ए, 584 ५ 1 द:
मिता. ०४ या. 1. 20, अपराफ़ ए. 625, व्य, मा, 2, 812 (९०8 नाधिकं `
घनम्), स्छतिच ° (1. 7. 288, परा. सा. [आ ए. 203, वि. र. ‰. 48,
आचार्यस्य पितुमतुवान्यवानां तथैव च ।
पएतेषामपराधेषु दण्डो नैव विधीयते ॥७८१
प्राणाद्यये तु यत्र स्यादकायकरण कृतम्
दण्डस्तत्र तु नेव स्यादेष धमां भगुस्खतः ॥४८२॥
न जातु बाह्यणं हन्यात्स्वैपयिष्ववर्थितम् ।
राष्टाचचेने वहिः कुयौत्समय्रघनमक्षतम् ॥४८३॥
चतुणौम्पि बणोनां भायध्ित्तमद्कुवैताम् ।
रारीरधनसंयुक्तं दण्ड ध्यं प्रकस्पयेत् ॥४८४॥
येन दोषेण शुदस्य दण्डो भवति धमतः ।
तेन चत्स्त्रविधार्णा द्वियुणो द्विगुणो भवेत् ॥४८५॥
प्रनज्यावसितं दूरं जपहोमपरायणम् । |
वधन शासयेत्पापं दण्डयो वा द्विगुणं दमम् ॥४८६॥
सर्वेषु चापराधषु पुरो योथदमः स्तः ।
तदधं योषितो दद्युवध पुंसोङ्ग कर्तनम् ॥४८७॥
नास्वतन्त्राः खियो ग्राह्याः पुमांस्तत्रापरध्यति ।
प्रभुणा रासनीयास्ता राजा तु पुरुषं नयेत् ।४८८॥
` म्रोषितस्वामिक्ा नारी प्रापिता यद्यपि श्रे ।
तावत्सा वन्धने स्थाप्या यावस्ल्यागतः परभुः ॥४८९॥
कद्पितो यस्य यो दृण्डस्त्वपयाधस्य यत्नतः ।
पणानां ग्रहणं तु स्यात्तन्मृल्यं वाथ राजनि ॥४९.०॥
माषपादो द्विपादो वा दण्डो यत्र भ्रवतिंतः।
अनिदिष्टं तु विज्ञेयं माषकं तु पकस्पयेत् ।॥४९१॥
481 स्यरतिच० 11. 7. 296, परा. मा. 1. 1. 206 ॥ि
482 -स्मृतिच° 117. . 297, परा. मा. 7. ४. 211 (२७४ दण्ड तत्र)
485-484 परा. मा. 17, 7. 208. ४९786 488 18 मन्. 8. 880
485 स्पृत्तिच० 777. ए. 298. परा. भा. 7. 1. 211 28८06 ६0 पितामह
+ 486 स्तिच ° 11. . 298; परा. मा. (1, ]. 212 9861068 {0 पितामह, `
` 487 स्द्तिच° 777. ए. 746, व्य. म. ए. 946
488 स्सृतिच° 11. 7. 749
. 489 स्यरतिच० 7. }. 749
४ ` 490-492 स्दतिच ° 171. ए. 299. कुक ०० मनु. 8. 519 ८०8१5 491 (19 भः ५
60 ` कात्यायनस्शछतिसासोद्धारः
यथोक्तो मापकैरैण्डो राजतं तव निर्दिशेत् ।
कष्णकैश्चोक्तमेव स्यादुक्तदण्डविनिश्चयः ।४९२॥
माषो विशतिभागस्तु ज्ञेयः काषोपणस्य तु ।
काकणी वु चतुभौगा माषकस्य पणस्य च ॥४९३॥
पञ्चनद्यः पदेश तु संज्ञेयं व्यवहारिक ।
काषोपणोण्डिका जेयास्ताश्चतस्स्तु धानकः ।
ते दादरा खवणोस्तु(णस्तु?) दीनारश्चि्नकःस्युतः॥७९.६॥
( पुनम्योयः }
असत्सदिति यः पक्षः सभ्येरेवावधायते।
तीरितः सोयुदिष्रस्तु साध्िवाक्यात्प्रकीर्तितः \॥९५॥
कृखादिभिनिश्ितेपि सन्तोष न गतस्तु यः।
विचायं तत्कृत राजा छृतं वुनसद्धेरेत् ॥४९.६॥
( करणादाने ब्द्धिविचारः)
न सख्रीभ्यो दासबाखभ्यः प्रयच्छेत्काचेदुद्धुतम् ।
दाता न छभते तन्तु तेभ्यो दद्यात्तु यद्धस् ॥ ४९७।
ऋणिकेन तु या बद्धिरधिका सपकट्पिता
आपत्कारुकता नित्य दातव्या कारिता तु सा॥
अन्यथा कारिता वृद्धिने दातव्या कर्थचन ॥ ४९८ ॥
पकान्तेनेव वृद्धि ठं शोधयेद्यत्र चर्णिकम्। |
प्रतिकार ददात्येव शिखावृद्धिस्तु सा स्परता ॥४९९॥
श्रहात्तोषः फलं स्चराद् भोगलाभः प्रकीर्तितः ॥५००॥
पि १ या दा 1
४) 88 ° यन्निर्दिष्टं तु सौवर्णं माषं तन्न प्रकल्पयेत्
4935-494 स्मृतिच° 771. ए. 283; बीर० . 285 (छप) 498)
495 स्यृतिच ० 17. ए. 309, परा. मा. 77. ए. 214 ( सभ्ये राज्ञावधायते)
496 शेहरानन्द 8०५ धीर ० ए. 128 (00) ४86४९ ६० बुदस्पति ४716 क्लदयायन).
497 स्ृतिच० {; 7. 321; वि. र. ‰. 6 (७१०8 किचिदुद्धुतम् ), पसे. मौ. =
‰. 984 ( 6908 क्रचिदुद्ुतः), वि. चि. ए. १.
49
चि. . 4, स. वि. . 228
५99 स्मृतिच 111. ‰. 360, स. वि. ए. 228: बीर ० . 995 (1४##० 181} ४ त
800 स्पृतिच ° 7. ए. 859, वीर० . 295, पत] पम०्छड नषा अष्राकं = | =
२९७५ गृहृत्स्तामः शदः क्त्रात्, स्यरतिच० 98०८088 ३४ ४० बृह्पति श्प
7९908 हदः कित्रात्
श्ृतिच ° 171. 7. 359, दुक ( ० मनु. 8. 158 ), वि. र. ए. 10, च क |
( अदृतवृद्धिः )
यो याचितकमादाय तमदस्वा दिद बजेत्। `
ऊर्वं सवत्सरात्तस्य तद्धनं वृद्धिमाभ्ुयात् ५५०२॥
छृत्वोद्धारमदस्वा यो याचितस्तु दिद नजेत्।
ऊध्वं मास्रयान्तस्य तद्धनं इद्धिमाश्चयात् ॥५०३॥
स्वदेरेपि स्थितो यस्तु न दयाचा चितः कचित्
तं ततोकारितां बद्धिमनिच्छन्तं च दापयेत् ॥५०४।
प्रीतिदत्तं न वधत यावन्न प्रतियाचितम्
याच्यमानमदत्तं चद्धधेते पञ्चकं शतम् ॥५०५॥
निश्िप्तं वुद्धिरोषं च कयविक्रयमेव च ।
याच्यमानमदत्तं चेद्धधेते पञ्चक शतम् ॥५०६॥
पण्यं गृहीत्वा यो मूस्यमदच्वेव दिदं बजेत्। `
ऋतु्रयस्योपरिष्टच्तद्धन वुद्धिमाभुयात् ॥५०७॥
501 स्पृतिच ° 111. ए. 560 ( "6808 बृद्धि तु ), वि. र. 9. 12, वि. चि. ए. 4
वीर् ४, 29५ |
609 मिता० ( ० या. र. 88 ), स्मृतिच० 1. 2. 364, परा. मा. ए. ४.
१28, वि. र. ए. 16 {०४8 ऋतुत्रयस्योपरिशत् ), स. वि. ए, २१९
वीरः० ५ 301
99 भिता ०० या. 11. 88, अपराकं ए. 642 ( ८०8१8 क्रतुत्रयस्योपरिष्टात्
ऊध्वं &@6.), वि. २. ए. 15, परा. सा. 1. 2. 228, वीर ° ए- 808
&04 मिता० ००४ या. 1. 88, अपराकं ए. 642 ( २७४१5 याचितोऽसङ्खत् धेत सं
मङ्रीकाशतो ..-च्छनपि चावहेत् ), स्मृतिच० 1. ए. 864, वि. र... #6.
( २९१९ याचितोसङ्कत् ४०५ स तल्लाकारितां ..-च्छनपि चावहेत् ), स, वि,
225, वीर ° 0. $0%. ` ,
805 स्प्रतिच ° 771. 7. 365; कुद्टुक (०० मनु. 8 152), पश. मा. 7. 29,
वि. र. 7. 15, स. वि. . 226 | | |
806. भिता० ०० या. र. 66, परा. मा. 1. ए. 224, वि. र. ए. 16, कीर०
802, वि. चि. ए. 6 ५
607 स्छतिच० 77. ए. 368, परा-मा. 77. ए. 9५ वि. र. 2. 5, श्रि =
ए. 225, वीर ० ए. 809 | |
चसमैखस्यासवद्यूते पण्यमूल्ये च सवेदा
खीश्चव्केषु न वृद्धिः स्याल्रातिभाव्यागत
( बद्धैः परिमाणं }
ग्राहय स्याद् द्विगुणं दव्यं प्रयुक्तं धनिनां सदा ।
छभते चेन्न द्विगुणं परुनवुदधि प्रकल्पयेत् ॥५०९॥
मणिसुक्ताप्रवाखानां सुवणरजतस्य च ।
तिष्ठति द्विगुणा बद्धः फारुकेखाविकस्य च ॥५१०४
तेखानां चैव स्वेषां मद्यानामथ सपिषाम् ।
वृद्धिरष्गुणा ज्ञेया गुडस्य र्वणस्य च ॥५११॥
कुप्यं पञ्चगुणं भूमिस्तथेवा्रगुणा मता ।
सद्य एवेति वचनात् सद्य एव ्रदीयते ५५१२॥
( ऋणोद्धरण )
( अनेकणेसमवये विधिः )
पकादे छिखितं यत्तु तत्तु कुयोदणं समम् ।
ग्रहणं रश्चणं खाभमन्यथा त॒ यथाक्रमम् ॥५१२॥
नानणेसमवाये तु यद्यत्पुवंकृतं भवेत् ॥
तत्तदेवाग्रतो देयं राज्ञः स्याच्छोनियादु ५५१४
यस्य द्रव्येण यत्पण्यं साधितं यो विभावयेत् ।
तद् दव्यमरणिकेनेव दातन्यं तस्य नान्यथा ॥५१५॥ `
नर
508 परा. मा. गा. ए. 225, स्मृतिच° 711. ‰. 366, वि. र. 7. 20, प्त. वि. `
. 226, बीर ° . 804
509, मपराकं ए. 648, वि. र. . 72, बीर० 1. 388, ` 6
510 वि. र. ?. 19, स. वि. ए. 228, वि. चि. 7. 8, व्य. म. ४. 170
611 स्छृतिच० 1, ए. 878, परा. मा. 1. 2. 228, वि.र. ?. 19, सरवि,
0. 297, वीर» ए. 299, प्य, म, ए. 10 |
519 स. वि. . 980
518 अपराकं . 645, स्दतिच° 111. 7. 391, स. वि 0. 255, वीर ° 7. 899. |
614 स्मृतिच° 777. 7. 890, स, वि, . 285, वीर ‰. 399
815 अपराके ए. 045, स्खतिच° [ा. 2. 391, परा. मा. रा. 7. 259, स. वि,
१, 255, वीर ° ‰. 840
य
स
स्खतिसदासोद्धरः
( आधिः)
द्रञ्यं गृहीत्वा बद्धयथ मोगयम्यं ददाष्दि चत्
जङ्गमं स्थावरं वापि भोग्याधिः खं तु थ्यते ॥
मूल्यं तदाधधिकं दत्वा स्वक्षे्नधदेकमःघ्रुयषत् ५५१६५
आधिमेकं इयोयंस्तु इुयोत्का भरतिषद्धवत्
तयोः पेतं ब्रह्य तत्कत। योस्दण्डमाष्ं ॥५१७॥
आधानं विक्रयो दान् टेख्यसश्यद्तं यद्ध ।
एकक्रियाविरद्धं तु ठेख्यं तच्रापहारकम् ॥५१८॥
अनिदिं च निदिशमेकनच् च विख्खितम्
विश्चेषदिखिवं स्थाय इति कात्यायनोल्यीत् ।५१९२॥
यो विद्यमानं प्रथमभमनिर्दिष्स्वरूपकम् ।
आकादाभूतमादृध्यादनिदिष्र च तद्भवेत् ॥
यत्तदस्य वियत तश विनदत ॥५२०॥
यस्तु सखवैस्वमादिशय प्राक् पञ्चान्नामचिह्वितम् ।
आदध्यात्तत्कथं न स्य(चिहितं बरवत्तरम् ॥५२१॥
मर्यादाचिहितं श्येतं ्रमं वात्य भवेत्
ग्रामाद्यश्च छिख्यन्ते तदाऽ्खिद्धिमवाङ्यात् ॥५२२॥
००५ भ धदामायासातयनयरभि त
516 स. वि. ‰. 284
617 स्गृतिच ० 1. ए. 587, परा. मा. ॥ा. ए. 284 (०४१8 द्वयोः कुला यद्यका)
वि. र्. ए. 85 ( 6808 आधाता {0 तक्ता ); स. वि. ए. 987 ( ८७७द8.
कोत्र पत्तिभवेत्, ), वीर० 1. 31
818 स्प्रतिच ° 17. ?. 888, परा. सा. 11. ए. 284, स, वि. ४, 287, वीर० |
2; 39, कृत्यकृल्पतेस्
619 स्यतिच ° 11. ए. 388, परा. मा. 11. ». 285 ( ००8१8 अनिर्दिष्टा `
निर्दिष्ट ) + स. वि 1. 287, वीर ° 1. 812, करलयकत्पतस्. _ ।
520 परा. मा. 1. . 235 (68५8 प्रथममरतादिष्ट ०, आकरा मूतम नेन), वीर ० ‰.
918, स्मृतिच ° [11. ए. 388 (८०४05 अनादिष्ट ०, "दष्यादादिष्टं नैव तद्धेत्)
521 स्यरतिच० 111. }. 888 (1९808 कथ तु स्यात्) स. वि. 2. 258 ( १6808 |
आददात्तत्' कथ तु स्यात् ), वीर० ए. 818
59 स्मृतिच° 771. ए. 386, स. वि. 7. 286
524
66
8%8
कालयायनस्पतिसारोदधारः
आधीङ्तं तु यत्किचिद्धिनषटं दैवराजतः ।
तज्नरण सोदयं दाप्यो घनिनामघमणकः ॥५२३॥
न चेद्धनिकदोषेण निपतद्ा भ्रियेत वा ।
आधिमस्यं स दाप्यः स्यादणान्मुच्येत नणिकः॥५२७।।
अकाममनयुक्ञातमाध्च यः कम कारयेत् ।
भोक्ता कर्मफलं दाप्यो वुद्धि वा रभते न सः ॥५२५॥
यस्त्वाधि कमै कुर्वाणं चाचा दण्डन कर्मभिः ।
पीडयेद्धत्सयेशवेव पाप्रयात्पूवंसादसम् ॥५२६॥
बलादकामं यज्ाधिमनिखष्र प्रवेदरायेत् ।
पराघुयात्लाहसं पूवेमाधाता चाधिमाघ्रयात् ५५२७
अधि दुष्टेन ठेख्येन शु यञ्णिकाद्धनी
नृपो दमं दापयित्वा आधिकेख्यं विनाशयत् ॥५२८॥
आधाता यत्र न स्याच्च घनी बन्धं निवेदयेत् ।
राज्ञस्ततः स विख्यातो विक्रेय इति धारणा ॥
सवृद्धिकं गृहीत्वा तु शेष राजन्य था्षैयेत् ॥५२९॥
( प्रतिभूविधानम् )
दानोपस्थानवदेखं विभ्वासकपथाय च ।
खश्चकं कारयेदेवं यथायोगं विपर्यये ॥५३०॥
कजम
स्तिच० 17. 1. 821, वि. र. ए. श.
स्टृतिच ° (1. ए. 328 ( २०808 निपतेद्धिक्रियेत }, वि. र. ए. 96, ख. वि, ध
2. 286 (७४08 स चेद्धनिक ० 82 सर्णिकः {0 निकः), वि. चि. 2.11 वीर
ए. 869.
5285
5%6
597
528
6529
590
पराकं ?. 659, स्मृतिच° प्रा. 9. 826, परा.मा.7ा. ए. 288, वि. र. `
२4, स. वि. ए. 286, वीर० 20 7. 808.
स्यृतिच 111. 1, 326, परा. मा. 771. ए, 288, वि.र.2. 25, वीर 2.908.
स्यृतिच 111. ए. 326, स. वि. 7. 255. |
स्खातेच् ° 11. [. 829, स. वि. 1. 4, कीर० 2. 510.
अपराकै 9. 658. स्यृतिच० 171. 7. 388, पर. सा. 77. १, ५1, वि. र. `
+ 0 1 यत्र नष्टः स्यात्); स. वि, ]. ०५९, बि. चि. 7. 11, वीरम
017
अपरा 655. ( म `स्थानविन्वासविवादरपथाय ), स्ति ° 17. `
2 ०4“; परा. मा, 1, ए. 249, स. वि 2. 247 (८७४१३ दासोपस्थान०),
त स
ल
सः
स
भूर्यस्तं देशे काञे न ददौयेत् -.
निवन्धमावहेत्तन्न देवराजङ्ताहते ॥५३९॥
छस्यान्वेषणा्थं तु देयं पश्च्रय परम्
6 दरोयेत्तज मोक्तव्यः प्रतिभूभवेत् ॥५३२॥
काठ उ्यतीते व्रतिभूथैदि तं नेव ददोयेत् ।
स तमं प्रदाप्यः स्यात् येते चैवे विधीयते ॥५२३॥
गृदीत्वा बन्धकं यज दरौनेस्य स्थितो मवेत् ।
चिना पिना धन तस्माद् दाप्यः स्यात्तरणे सुतः॥५३५॥
स्तिश्ठदरोनायेद मानवः ।
अदरयन्स तं तस्मे पयन्छेत्स्वधनादणम् ॥५३२५॥
आख तु वितथे दाप्यौ तत्काविदितं धनम् ।
उत्तरौ तु विसंवादे तो भिना तत्घुतौ तथा ॥५३६॥
एकच्छायाभिते सर्व दद्ात्तु प्रोषिते सतः
भरते पितरि पिदा परण न वृहस्पतिः ॥५३७॥
581 अपराकै . 655, स्मृतिच ° 711. . 849, वि. र. 7. 41, वीर° 7. 328,
व्य, म. ४. 116. स. वि. . 247 ४८ वीर्° 2]80 ४ 7. 321-829
४७४१ देरे कङे च दयेत् &4 ००००९९४ ६१९६ 91 6786 छप
यथसौ ,..मेवेत् 0910.
689-588 भिता ०४ या. र. 57, अपराके ए. 656 ( ००1 582 }), स्खतिच °
पा. 0. 848, वि. र. . ५2, स. वि. ‰. 248 ( 16808 कारेप्यतीते ४०५
करणे चैवं विधिः), वीर ० [ण]. 828 &0 880, परा. मा. 111. #. 4 (२९९8
कलि प्रतीते). स्पृतिच ० &0 वीर ° 8180 ४४ 0. 828 76808 काले प्रतीते.
584 भिता० ० या. ए. 64, अपराकै 7. 656 ( २६8५8 यस्तु दशेनस्य 216
` विभाव्य वादिना तत्र दाप्यः), परा. मा. आ. 251, वि. र. ए. 48
( णिणकर8 अपराके }, वीर० . 326. स्पृतिच ° 111. . 358 (१९४५8
यस्तु दक्ञनप्रतिभूः स्थितः विभव्य वादिना तत्र)
996-586 वीर ° ‰. 822 {1068 ४0 0४ कालायन 8४ वृहस्पति. वीर ०
१, 325 &्ैषएप७8 १४८86 586 ४0 बृहस्पति. परा. मा. (1. 7. 250
90 व्यु. भ, 7. 176 द्ध प+6 586 ४० बृहस्पति
59 स्मृतिष्व. {11. 7. 355, वीर ०], 327 (888 108 {016 18 ४४७ ८6४0. व |
10 ४४९८ स्पृतिच °)
एकच्छायाप्राविश्ठानां दाप्यो यस्त दयते !
प्रोपिते तत्सुतः सवं पिंश ठु भृत खतः ॥५३८॥
प्रातिभाव्यं तु यो दात् पीडितः प्रतिभावितः
तिपक्षात्परतः सोथ सगुणं छध्धुमदेति ५५३९॥
यस्यां येन यद्टतते विधिनाभ्यथितेन वु ।
साक्षिभिभावितेनेव पतिमृर्तत्समान्रुयात् 1५५०)
सत्यकारविसंवाद द्विगुणं तिदापयेत् ।
अक्ुर्वतस्तु तद्धानिः खत्यकारपयेजनम् ॥५४१॥
( पित्रादिभिः कृतमृणं केन प्रतिदेयम् )}
कुटुस्बाथमराक्तेन गरतं उयाधितेन वा ।
उप्वनिभित्ते च विद्यादापत्छृते तु तत् ।५४२॥
कन्यवैवादिकं चैब भेतका्यै च यत्कुतम् ।
एतत्सव प्रदातव्यं इधुस्बेन कुतं प्रभोः ॥५५३५
ऋणं पुत्रकृतं पिघ्ा न देयमिति धमतः ।
देयं प्रतिश्चतं यत्स्यात् यच्च स्यादनुमोदितम् ॥५४४७॥
प्रोषितस्यामतेनापि कुदुम्बाथेसृणे कुतम् ।
दासल्लीमातुशिष्येवौ दद्यात्पुत्ेण वा गुः ॥५४५॥
588 सिता० ०४ या. {आ 55 ( २९४8 खते समम् })., पर. मा. ना. 2. 2४1. वि
र. ‰. 52 (८05 पित्ररणं मृतस्य च), स. वि. ‰. 2850, वीर० ए. शश्र
| (पिच्य्ेशेमृतेतुसः). ` 1:
889 अरकं 0 657, स्मृतिच० [[1. 7 857; परा. मा. गा. ए. 282 (08
दण्डितः 0 पीडः), वि.र. ए. 48, षीर० 2. 328 ( 88665 र
0०६४ कात्यायन 8४ बृह् ° ) ५
१40 अपराकं ए 657, स्खतिच ° {1. ए. 856 (२6४68 विवदिभ्याधतेन), वि.
1. 46 (“स्यदितेन), वीर० १. 328 (1
541 विश्वरूप ०४ या. 1. 68 | ५
542-548 अपराकं 7. 647, स्म्रतिच ° [11. . 408 (२७११8 अशक्ते तु, व्याधि-
तेथवा); परा मा. (1. ए. 268, वि. र. }. 56, वीर० 7. 859, स. वि.
268 ( 01९0468 {‰6 गतथाः ग ४06 168). क
544 स्मृतिच ° {11. 0 408-409, वीर° ए. 358, स. वि. ए. 268 (कधि
1४1} ), वि. र. . £7 (८०४९8 स्य।दूनुबभितम्) (०
545 अपर्कं ए. 648 ({ ७७१8 दाक्चस््यमषृ्य ° ), स्यृतिच० 71. ए. 407, परा. ` 1 ष
मा... ए. 268 ( "6०१8 दद्यातपुत्रेण वा पितां ), वि. र. ए. 56, स. हि.
| काल्यायनस्मरुतिसरेद्धारः 69
| भ्रौ पुत्रेण वा साधं केवनाव्मना कृतम् ¦
| ऋणमेवंविधं देयं नान्यथा तत्कुत सिया छदे
। मतैक्मेन या मजः पोक्ता देयस्ुण त्वया
| अध्रपन्नापि सा दाप्या धनं यद्धितं सियाम् ॥५४७
| विद्यमानेपि रोगत स्वदेशास्परोषितेपि वा ।
॥ वि शास्संचत्सरद्ेयं ऋणं पिततं खतः ॥ ५७८ ॥
| व्याधितोन्मच्वृदधानां तथा दीेभवासिनाम् !
| ऋणमेवंविध पुत्राञ् जीवतामपि दापयेत् ॥ ५४९ ॥
| खांनिध्येपि पितुः पुञैकरणं देयं विभावितम् !
| ` जघ्यन्धपतिवोन्मत्तक्षयश्चित्रादैरोगिणः ॥ ५५० ॥
| = पितृणां सूनुभिजातैदोनेनैवाधमादणात् ।
{ विमोक्षस्तु यतस्तस्मादिच्छन्ति पितरः सुतान् ॥५५१॥
नाप्राप्तन्यवष्टारेण पितयुपरते कचित्
काले तु विधिना देयं वसेयुनैरकेन्यथा ॥ ५५२ ॥
अप्राप्तव्यवदारश्चर्स्वतन्ोपीह नणेभाक् ।
स्वातन्छ्यं हि स्श्र॒त ज्येष्ठ ज्येष्ठे (य?) गणवयःकतम् ॥५५३॥ `
यदद्रष् दत्तशेषं वा देयं पैतामहं तु तत्
सदोषं व्याहतं पि नैव देयभ्मणं काचित् ॥ ५५४ ॥
1)
546 अपरार्कं [. 649, स्थृतिच० 17. ‰. 411, वि. र. ए. 60, वीर ० ए. 358
847 स्मृतिच० 1. ए. 412, परा. मा. आ. 2. 270 (षन दयत्सुतो यथा), स.
वि. {. 265, वीर ° ए. 354 |
848 अपराकं 0. 650, स्यति व° {{1. 2. 594, परान मा. 1. ए, 265; स.
वि. ]. 256, वीर ° 9. 84 द ४४
549 अपराकं 7. 650, वि. र. ए. 51
` 850 अपरा . 650, वि. र. 9. 51, परा. मा. [. ए. 263, वि. चि. ४. 16;.
स्परतिच० 111. }. 394. 411 63660 अपररा + 8861105 # बृहुस्पाते
551 स्म्रतिच० 1. 0 593, परा. मा. (रा. 2. 268, वीर ए. 841. =
852 अपररा ए. 650, स्छतिच ° 111. ए. 898 ( ८७१५8§ "व्यवहारस्तु }, वि. ₹.
| ए. 54 ( 'व्यवहारेसतु ), परा. मा. ना. 7. 68. #
583 स्छृतिच° [71. }. 393 ( 8८७४ 19 ), वीर० 1.840.841 4
554 अपराकं ‰. 650, स्पृतिच ° 111. 2. 398 ( २७8९5 यदृणं दत्ते ), बि, ₹.
| ए. 48, वि, च. ए. 16 | ५९
१0 कात्यायनस्मतिलासेद्धारः
पित्रा दष्टयणं यच्च क्रमायातं पितामहात्
निदोषं नोद्धृतं पुत्र्यं पोतस्तु तद्भुयुः ॥ ५५५
पैतामहं वु यत्पुन दत्तं रोगिभिः स्थिति
तस्मदेवविध पौनेदैयं पेतामहं समम् ॥ ५५६ ॥
ऋणं तु दापयेत्पुत्रं यदि स्याञ्निरुषद्रवः'
द्रविणाहश्च धुयैश्च नान्यथा दापयेत्छुतम् ॥५५७
यद्यं पितठभिर्भिव्यं तदभावे तु तद्धनात् ।
तद्धने पुजपुत्रेव देयं त्स्व “मिने तदा ॥ ५५८ ॥
पि्रणे विद्यमनितुन च पुत्रो धनं हरेत् ¦
देयं तद्धनिके द्रव्यं गते गस्तु दाप्यते ॥५५९.॥
वु्न(भवे तु दातव्यस्रुणं पौत्रेण यत्नतः।
चतुर्थेन न दातव्यं तस्मात्तदिनिवतेते ॥५६०॥
प्रातिभाव्यागतं पौत्ेदातव्यं न तु तत्कचिव् ।
पुत्रेणापि समं देयसुणं सवेत्र पैतकम् ॥५६१॥
रिक््थद्त्र कणे देथं तदभवे-च योषितः ।
पुत्रैश्च तदभवेन्थे रिक्थभाग्भियंथाक्रमम् ॥५६२॥
यावन्न पतक दव्य विद्यमान रुभत्सुतः
खसमृद्धोपि दाप्यः स्यात्तावद्नेवाधमर्णिकः ॥ ५६६॥
585 भरा ए, 651, स्मृतिच० 177. 9. 97, वि, र. ए. 48, स, वि, ?. 258
556 स्मरतिच ° 111. 2. 398, वि. र, ए. 48
55¶ अपराकं ए. 651, स्यतिच ° 11. ए. 894, पत. मा. पा. 2. 268. वि, र
| ?. 69, बीर० ४. 351
558 प्त. वि. ए. 258. ह |
589 स्मृतिच ° 771. ‰. 895, परा. मा. 771. 7. 264, वीर० 7. 844 ( २०४8 `
तरस्तु द्यते ) १
560 स्पृतिच° 111. ए. 399 ( तस्मत्तद्धि निवतैते ), परा. मा. 7. ]. 264,
वि. र. {, 49 ( 1४08 पित्यभवि 8०१ चतुर्थेन यदा दत्तं ), वीर० ], 842
| ( ७४०8 पित्रमवि तु } |
` 561 अपरकं ], 656, वि. र. ‰. 44.
56568 विषहूपण्पया. ए. 4.
71
सुक्कं वापि देयं यन्तु व्रतिश्चतम् ¦
{ विये यत्त विद्यात्कामङ्तं चणाम् ॥५६४।
हिंसां समुत्पाद्य कोाघाद् इव्यं विनाद्य वा ।
उक्तं वुष्टिकरं यत्तु विद्याच्रोधकृतं तु तत् ५५६५
स्वस्थेनातंन बा देयं भावितं धमेकारणात् ।
अदच्वा तु य॒ते दाप्यस्ततुतो नाज सदशायः ॥५६द॥
निधनेरनपत्येस्तु यत्कृतं सौण्डिकादिभिः।
तस्छ्मीणामुपभोक्ता तु ददयात्तदणमेव हि ५५६७॥
शोण्डिकव्या्जनकगोपनाविक्योषिताम् ।
आधेष्ठाता ऋणं दाप्यस्तासां भदैकियाक्ठ तत् ॥५६८॥
न च भार्यांृतसु्णं कर्थचित्पत्युराभवेत् ,
आपत्छृतादते पुंसां कुदटुम्बाथं हि विरुतरः ॥५६९॥
अन्यत्र रजकन्याघगेपदैण्ण्डिकयेषिताम् !
तेषां तु तत्परा चु्तिः कुम्ब च तदाश्रयम् ॥५७०॥
अमतेनैव पुरस्य प्रधना यान्यमाश्रयेत् ।
पुतरेणेवापहा्य तद्धन दुदिकाभिर्विना ॥५७१॥
ऋणार्थमादरे्न्तं न सखुखाथं कदाचन ।
अयुक्ते कारणे यस्मात्पितरो तु न दापयेत् ॥ ५७२ ॥ `
या खपु तु जह्यात्छी समथमपि पुत्रिणी ।
आहत्य खीधने तत्न पिच्यर्ण रोधयेन्मयुः ॥ ५७३ ॥
वालपु्राधिकाथो च भतोरं यान्यमाधिता।
आथितस्तदणं ददयाद्वारुपुज्ाविधिः स्तः ॥ ५७४ ॥
564-665 अपरा ए. 648. स्मृतिच ° 1. ए. 596, परा. मा. (7. ‰. 266
वि. र. ‰. 58, वि चि. ४. 17, स. वि. . 257, बीर° ए. 348-944
566 विवाद्चग््र, वि. चि. 0. 16; ( ७१५8 इुस्थेन ), व्य. म. 7. ‰06
867 अपराकं 7. 689, वि, र. 2. 62.; व्य. म. }. 187, वि. चि. ए. 19
568 वीर० } 854
569-510 बीर० 7. 354. वि चि . 19 88611088 1688 £0 0 नाश्द
- अपरा ( ? 649 } 8180 0098 80.
671-578 वि. ₹. ए. 68 |
8१6 पराकं 7 654, स्छतिच ० 711. ए. 406 ( ७४08 त्रातारं यान्य ०), परा. मा
1. 9. 275 ( 6808 रतिर् या० ), स. वरि. ए. ‰68 ( ८6१०8 पुत्रदिकती
च त्रातारं ० बारपुत्रादिविश्रुतम् ) वीर० . 358, वि. र्. 7. 66
न व स
अ २
य
सेद्धारः
दीधैप्रवासिनिकनधुजडोन्मत्तातेटिज्ञिन
जीवतामपि दातध्यं तस्ल्लीदरव्यसमाश्चितेः ॥ ५७५ ५
व्यसनामिष्ठृते पुरे बाख वा यल दयते 1
द्व्यद्ृ्धाप्यत तच्च तस्य।भावे पुरन्धिहत् ॥ ५७६ ॥
पूर्व ददाद्धनग्राहः पुत्स्तस्मादनन्तरम्
योषिद्भ्राहः सुताभवे पुत्रो वाद्यन्तनिधैनः ॥ ५७७ ।
देयं भायौकृतसणं भत्र पुत्रेण मातृकम्
भवुर्ं छतं यर्स्यादभिधाय गते दिशम् ॥ ५७८ ॥
देयं पुजङृतं तत्स्याच्च स्यादञुवणितम्
कुतासंवादितं यच्च चत्वा चेवाडचोदितम् ॥ ५.७९.॥
( अधस्णिकस्यावरोधादिना धनोद्धारविचारः }
धायोबरद्धस्त्वणिकः प्रका जनसंसदि
यावन्न दद्यादेय च देराचारस्थितियथा ॥ ५८० ॥
विष्सू्रशङ्ा यस्य स्याद्धायमाणस्य देहिनः
पृष्ठतो वाञुगन्तव्यो निबद्धं वा समुत्खजत् ॥ ५८१ ॥
स ऊृतध्रतिभूष्चिव मोक्तव्यः स्याद्िने दिने ।
आहारकाे रानी च निबन्धे प्रतिभूः स्थितः ॥५८२॥
यो ददोनग्रतिभुवं नाधिगच्छेन्न चाश्रयेत् । |
स चार्के निरोद्धज्यः स्थाप्यो वावेद्य रक्षिणः ॥५८३॥
न चारके निरोद्धव्य आयः प्राल्यिकः शुचिः
सखोनिबद्धः परमोक्तभ्यो निबद्धः रापथेन वा ॥ ५८७ ॥
575 अपराकं . 654 (२०९08 श्रव्यं समाध्रितेः ), वि. र. ४. 66, वि. चि
2. %0
876 सपुतिचर 1. 7. 402, वि. र. 7. 64 92१ वि. चि. ए. 18 (२७. बलि},
॥ वीर° ‰. 351 ( 16808 बाले वा यस्ये ) |
577 स्मृकिच° {{7. ]. 408, बीर ° ]. 351 | | ।
678-679 स्मृतिच ° 11. 7. 404, वीर ° 7. 958 ( 16०8 अविधाय त्. }88
` 578 जण ), वि. र. }. 59 ( 198 ० 578 व 76908 भक्तस्य }.
580 स्यतिच ० 11. ए. 884, वि. र. ‰. 67, व्य, म. }. 179, वीर° ए. 384
581 सपृतिच° (11. 7. 584, वि. र. 7. 69 ( "6९08 सज्ञा †ण शङ्का त `
न्धं }, च्य. म्. 0. 179 ( ०९8०६ निबन्ध ), कीर ° 1. 884
` %8-584 स्टतेच० 111. . 38, वीर० ए. 334.385 ( २९४१5 वस्क } `
5868484. ),. वि. र, ‰. 69 ( ०९४०8 सोनिरदधः ०१ निरुद्धः शपथेन ). = `
व
क
ोपसेधनं खाधयेडणणिकं धनी ।
[ उथक्हारेण सोन्वेनाद विक्त; ॥ ५८५ ॥
[त
। विद्शुद्ाव् खमहीनांश्च दापयेत् ५५८६॥
राजानं स्वामिनं विप्रं सान्तवेनेव प्रड्पयेत् ।
रिकिथनं खुं वापि चछलेनैष प्रसाधयेत् ॥ ५८७
वणिजः कषकाश्चैष शिदिपिनव्यान्रकीद्भगु
देशाचरेण दाच्याः स्यु दुष्टान् सपीञ्य द्ापयेत्॥५८८॥
पीडयेच्तु धनी यत्र ऋणिक व्यायवादिनम् ।
तस्मादथीत्स दीयेत तर्वमं चाश्ुयाद्सम् ॥ ५८२ ॥
यदि हयादावनादिष्ठमश्युभं कमे कारयेत्
प्रा्यात्सादसं पवेश्णन्परुच्येत चर्णिकः ॥ ५९० ॥
उद्धासदिकमादय स्वामिने न ददति यः,
स तस्य दासो भव्यः खी पटुबो जायते गृहे ॥ ५९१ ॥
( उपनिधिः )
कय-प्रोषित-निक्षि्-बन्धान्वाहितयाचितम्
वेदयश्चच्यर्पितं चेव सोथस्तूयनिधिः सघरुतः ॥ ५९२॥
निश्चित्त यस्य यच्किचित्तत्पथत्नेन पारयेत् ।
कैवराजकृतादन्यो विनाशस्तस्य कीत्यैते ॥ ५९.३॥
(१
585-686 वि. र. ए. 68 ‰त 71, वीर» ए. 3988 ( ४०४१३ विमात्रितं ®
कैकान् क्षत्र ० ) ४७४७}६8 ४१४४ कलपतर २५84 कमणा क्षत्रे
58१.-588 स्मृतिच० 111, ए. 884, वि, र. 1. 69, बीर ° ए. 388-834, वि, चि
. 21, अपरार्क . 645. ( ४8 587 &०त 19४०7 ॥]६ ० 588 80
16808 राजा तु ४४१ छन न च द्पयुत्)
689 मिता० ०४ या. 71. 40, स्दरतिच० 111. 2. 888, अपरा ? 646, परी,
भा. 77. . 2६8, बीर ० 2. 386
500 वि. र. ए. 71, वीर० 1. 889, अपरके ए. 647. = ध;
891 समृतिच° 7. ए. 376, परा. मा ए. ४. 261, व्य. म॑, . 18%) वीर*
2. 357
998 अपरा ए. 662, स्पतिच ° 177. ए 5. वि. र. ए. 84 ( ५९९78 कयःप्रोषि-
तगिक्षिघो ); वि, चि. 2. 6.
स्युतिच० 111. 419, वीर 0. 364
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74
यस्य दोषेण यत्कि चिद्धिनाद्थेत हियेदं घाः
तद् दरव्यं सोदयं दाघ्यो दैवसयाजकृताद्विना ४ ५९४४
याचितानन्तरं नारो दैवरःजक्ृतेषि सः।
ग्रहीता परतिदाच्यः स्यान्नूदयमान्नं न सशराय: ॥५९.५॥
न्यासादिक पश्द्रज्यं कथश्चितस्ुयेश्ित
अज्ताननारेत चेव यन द्प्यः ख पव तत्त् ॥। ५९६ ॥
मश्ितं सेदं दाप्यः खम दाप्य उपेश्चिवम् ।
कचिन्यून प्रदाप्यः स्याद् दरव्यमन्ञाननादितम् ।*4९.७॥
अराजदोवेकनापि निश्िप्तं यत्र नाहितम्
ग्रहीतुः खह भाण्डेन दावने तदुच्यते ॥ ५९८ ॥
ज्ञात्वा द्रध्यविथोभं तु दाता यजन विनिक्षिपेत् ¦
सर्वौपायविनारेपि थद्धीता नैव दाप्यते ॥ ५९९. ॥
ग्राहकस्य हि यद्टौषच्नघ्ं वु ग्राहकस्य तत् ।
ताक्मन्नष्टे हते वापि यदहीता भृष्यमाषटरेत् 1 &०० ॥
ग्राह्यस्तृपनिधिः कारे कालीन तु बजेयेत् ।
कालीन ददद्ण्डं दिगण च पद्ाप्यते ॥ ६०१ ।
594 अपराकं }. 668, स्थरतिच° 111. ए. 419, वि. र ए. 89, वरि. चे. 0. 24;
वीर्० ए. 364 ४
595 स्मृतिच° 1. ए. 420 ( ४३ 0 #१6 ०५3 मूल्य ...संशयः ), वीर °
1. 964 ( &४५४ 0१68 #0 व्यास )
596 स्पृतिच° 711. 2. 420, पर. मा. 1. ए. 288, वीर० 7. 864 वि. ₹.
1. 99, वि. चि. ‰6 |
597 भिता० ० या. {{. 67, वीर० }. 864 ({ 9{८1एप+७8 ४0 व्यास अत =
लायन }, परा. भा. 111. 2. 288 { &&6 068 ४० व्यास )
598 अपराकं . 663, स्पृतिच० 7. 7. 414, पर. मा. 7. 2. 98, वि. र
. 88, वीर० ए, 368 ( २७२५8 राजदैत्रिकचौरेवौ निक्षिप ) |
599 स्पृतिच° [[1. ४. 418, परा. मा. 1. ‰. 288, वि. र. 89 ( २७७१
सर्वापाय० ), वीर ° ‰. 368 |
` 600 बि. र. ९.89, वि. चि. ए. 24 ( धि एषा); वि, र. 2, 89 ४95 न
10811
601 अपराके 2. 669, स्मृतिच° गा. 7. 422, परा. मा. 7. 286, वि. र. 7. `
98 ( 16908 काठहीने ), वीर ° 2. 96
८
पनिधिष्वेत विधयः परिीविताः # ६०४ ॥
श संस्क्रियते न्याक्चो दिथसेः परिनिश्ितेः।
तदूध्वं स्थापयेचिछस्पी दपप्यो देवदतेपि तत् ५६०३॥
न्यासदोवाद्िनाराः स्याच््कछिसि्षिने तन्न दापयेत् ।
दापयेच्डिव्पिदोषाचत्संर्कासथं यदूर्पिंठम् ५ ६०४ ॥
स्वस्पेनापि च यत्कमं नष्टं चेद्धतकश्य तत्
पथा दित्सतस्तस्य विनर्ये त्तद गह्धतः ॥ ६०५ ॥
यदि तत्कायधुदिदय कार परिनियस्य वा।
याचितोधेङ्कति तस्मिन्वा न तु दाप्यते ॥ ६०६ ॥
प्राप्तकाले छृते कयं न दयाद्याचितोपि सन् ।
तास्महे हते वपि ब्रहीता मूदयमाहेरत् ॥ ६०७ ॥
याच्यमानो न दचाद्वा दए्यस्तत्सोदयं भवेत् ।
अथ कार्यविपत्तिस्तु तस्यव स्वामिना;भवेत् ।
अप्राते वै स काञे तु दाप्य स्त्वर्ध॑शृतेपि तत् ॥ ६०९॥
यो याचितकमादाय न ददात्मतियाचितः।
स निगह्य बङाद्ाप्यो दण्ड्यश्च न ददाति यः ॥ ६१०॥
ज
609 वि. २. }. 92
609 -604 स्पतिच० (1. 0 426, परा. भा. 111. 7, 256, वि. र. ए. 98
(6९१8 परिनिष्ठितैः ), व्य. म. 1. 198 ( 96 ०प]ङ़ 608 8०0 ८५४08
परिनिष्ठितैः 84 देवाद्रतेपि तं ), बीर ० ए. 370 (तदू स्थापयन् सिस्पौ 94
देबाद्रतेपि तम् )
605 स्थ्रतिच० 711. 7. 4; परा. मा. 71. 2. 289 ( २6४५8 जिद्पेनापि )
वीर० . 870 ( 88611068 ४० भनु &० कालायन ); वि. २. . 98
606 ४ 1. 2. 427, परस, मा. 1. 2 289, वि. र. ए. 98, वीर ०
. 81},
607 स्मरृतिच °. ए, 428, परा. मा. 2. 771. 1. 290 (९४१8 तस्मिन्न मते)
वि. चि. {. १4, वीर° 1. 57]
608 स्म्रतिच ° 1. 9. 49 | | |
609 स्मतिच ° [11. 428, परा. मा. 771. 7. 290, चि. र. ए. 98 ( २४५8
स्वकठे }, बीर० . 872 0 6:
610 अपराकं ‰ 664 ( ५6968 1881 7848 88 दण्डन च ददाति यः ) स्पृतिच१
वा. ए. 429, वि. र. ए. 92, वीर . 872. | |
76
भलुमागेण कायेषु अन्यरिमिन्वचनैन्मम ।
दद्यास्त्वमिति यो दत्तः स इदान्वाधिखुच्यते ॥ ६११॥
(अस्वःमिविक्य् |
अस्वामिविक्रय दानमाधि च विनिवतेयेत् ॥ ६१२॥
आभेयोक्ता धनं कयौत्यथमं लातिषिः स्वकम् ।
पश्चादात्मविद्ुध्यथं कयै केतः स्ववन्धुभिः ॥६१३॥
नाष्िकस्तु प्रकुबीत तद्धनं शभिः स्वकम् । `
अदत्तत्यक्तविक्येतं इत्वा स्वं रभते घनम् ॥६१४॥
प्रकाश्चं वा यं कुयान्म टं वापि समपेयत् ।
मूखानयनकाटस्तु देयो योजनसंख्यया ॥६१५॥
वकार च ये इ्ुयौत्ताघुभिशतिभिः स्वकैः ॥
न तत्रान्या क्रिया प्रोक्ता दैविकी न च मानुषी ॥६१६॥
यदा मृसुपन्यस्य पुनवांदी ऋथं वदेत् ।
आहरेन्मूरमेवासो न ऋयेण प्रयोजनम् ॥६१७॥
असमाहायंमृटस्तु कयमेव विरोधयेत्
बिरोधेते कये राक्ञा न वक्तथ्यः स किचन ॥६१८॥
611 वि. र. ?. 84 न:
619 मिता. ०४ या. {1. 168 { ८० 2806 }), स्यृतिच 171. 7. 499, वृश्च.
मा. 11}. }. 291, चि. र. {. 104, स. च. ए. 80
618 अपराकं 7. 7, स्मृक्तिच ० 1171. 1. 501 ( त 097 }, परा. मा. पा
ए. 800, वि. र. ‰. 106, वर ° }. 876 ( 95४ #[ } |
614 अप्राकं . 7१7 ( 76805 अदत्त लयत्त ०) , स्खतिच ० 11. 1. 509, परा. मा.
पा. ४. 29५ ( 05४ 0 ६०१ 26805 ज्ञातृमिः ), वि. र, 2. 10
वि. . 806, वीर ° }. 878
9
616 निता. ०० या. [. 170 ( ल{€8 का॥00प भपालाइ ०४6 शकते
16808 देयस्तत्राभ्वसंस्यया ), अपराकं }. 776 ( २९९५8 मूल्यं बरापि )
र. 0. 101, व्य. म्. }. 196 ( 1४67 ४४ ) |
616 अपर 171, स्दरतिच० 7. 7. ६08, परा. मा. 1. 7. 296 (१९४8 = |
साक्षि भिज्ञेतिभिः ); वि. र, ए. 106
61 अपराकं 7. १46 ( २९९० पूरवैवादी ), स्थतिच ° व. }. 504, चरामो. |
प्र. ए. 297 ( 16506 पूवेवादी ), वि. र. 101, वीर ° 2. 381
॥ 616 अधराक् ए. 777 ( णाक शप्रणैन पढ९); मिता. ०० या, 7.
` ` {10 ( तिष्9 पण क्प कपीन प४6); वि. र, ॐ, 106, |
स्मृतिच ° [{. ए, 504 { ८5 ॥४{ )
% ॥: 0
69462 अपराकं 7. 889. स्तिच० 111. ए. 481 ०० परा. मा.
॥॥
दि स्वं नैव कुर्ते ज्ञातेभिनाष्टिको धनम् ।
्ाविनिवुस्यथं चोरवदण्डमहति ॥द२०॥
वणिग्वीथीपरिगतं धिक्षातं राजपूरुषैः
अविज्ञाताश्चयात्कीतं विक्रेता यज्वा सतः ॥६२१
स्लामा दत्वाचसूल्य तु ब्रयज्ञात स्वक चनम् ।
अधं योर पहतं तत्र स्य!द्यवद्ारतः ॥६२२॥
अविज्ञातक्रया दोषस्तथा चापरिपार्नम् |
एतद्भय समाख्यात द्रनव्यहानेकर बुधः ॥६२३॥
(सम्भूयस्षपत्थानम्)
सभवेतास्त ये केचिच्छिस्पिनो वणिज्ोपि वा ।
अविभज्य प्रथग्भृतः प्राप्तं तत्र फर समम् ॥६२४॥ ॥
भाण्डपिण्डवययोद्ार्भारसाराथर्वाश्षणम्।
कुयुस्तेऽ्यभिचारेण समयन व्यवस्थिताः ॥६२५॥
घयोगं वेते ये तु देमधान्यरसादिना ।
समन्यूनाधिकैरंदो्छीभस्तेषां तथाविधः ॥६२६॥
बहनां समतो यस्त ददयादेको धनं नरः ।
ऋणं च कार्येद्धापिं सर्वैरेव कृतं भवेत् ।६२७॥
619 निता० ०० या. 1. 170 ( ७५68 88 मनु'8), वीर्> , 381, विं र, 2.
108, व्य. म, ए. 197, स्मृतिच० 117 ए. 504, परा. मा, 111. 0. 297
&1] ४688 63:66 ४४6 सिता ° 2861108 ४० काला |
६20 अपराकं 7५7 ( ज्ञातृभिः ०५ ज्ञातिभिः ); स्तिच° 1, 2. 505, वि. र,
ए. 105, परा, मा. 11. 2. 297
891-628 स्यरतिच ० 111. 2 507, 508, परा. भा. 11. 0. 297 &9० 800
वीर० 7. 380. अपराकं 1. 775 9860685 {1686 0 बस्ति; ४० भ्य,
1. 197 8त वुद्टक ० मनु. 8. 209 ४861106 691.628 ४
बृहस्पति
(+ ` %,
304 &8५ 068 625 ४० नारद ८ | ।
8696-680 अपराक 7 882 -888, 411 &18 ४8भ7160 ४० बृहस्पति ॐ वि. ब,
ए, 128; स्सृतिच ° 88011068 626, 627, 680 ४ बृहस्पति; घ, वि. ‰.
8
पिमो ५९..०५१०५०५ ५
्ञातिसंबन्धिसुटदा सरणं देयं सवन्धकम् ।
अन्येषां छश्नकोपेतं ठेख्यसाक्षियुतं तथा ॥६५८॥
स्वेच्छादेयं हिरण्यं तु रसा धान्यं च सावधि |
देरास्थित्या प्रदातव्यं व्रहीतव्यं तथेव च ॥६२९॥
समवेतैस्तु यदत्तं प्राथनीये तथेव तत् ।
न च याचेत यः कथिदाभात्स परिहीयते ॥६३०}॥
चरतः सकिखादस्चेदरेव्यं यस्तु समाहरेत् ।
तस्यांरो दशमो देयः सवेवादेष्वयं विधिः ॥६३१॥
शिक्षकाभिक्षकुराखा आचायेश्चेति शिट्पिनः ।
एकदिनिचतुभौोगान्दरेयुस्ते यथोत्तरम् ॥६३२॥
परराष्ाद्धनं यत्स्याचरैः स्वाम्धाक्ञयाहतम् ।
राज्ञो दहादामुद्श्रत्य विभजरन्यथाविधि ॥६३३ ॥
चोराणां मुख्यभूतस्तु चतुरोरांस्ततो हरेत् ।
शुसेशंख्ीन् समथो डौ शोषारस्त्वेकेकमेव च ॥ ६३४॥
तेषां चेत्पसृतानां यो ब्रहणं समवाघ्रुयात् |
तन्मोक्चणार्थं यदत्तं वहेयुस्ते यथांशतः ॥६३५॥ .
नतैकानामेष पव धमेः सद्धिरुदाहतः।
ताखक्ञो खमते त्यं गायनास्तु समांशिनः। _
प्रममखा इ्वरामहेन्ति सोयं संभूय दुवैताम् ॥६३६॥ `
79 98 627 प४ 61४68 20 28706; व्य, म्, [. 200 ४8608 697
४ बृदस्पति. परा. मा. 117. 7. 806 #66ो968 62 ४० 680 ४0
| बृहस्पति
। 69 स्सृतिच० ए. 2. 438, परा. सा. ना. 2. 306, वि. र. 1.114 ( स्व
ˆ ` द्रन्येष्वयं); स वि. . 278
689 भपराक 7. 888, स्मतिच ° 111. ?. 482, परा. मा. {11. 7 310 (२९५५३
शित्पाकरज्ञकुशखा & यथांशतः ), वि. र. }. 124, स. वि. ४. 8, ` `
| नीर० 1. 390 र
695-84 परा, मा. 1. ए. 811, स्मृतिच° [ा. 7. 440, वि. र. 7 125- _
। 196, वीर° 7. 391, स. वि, ए ‰76 ( णण ०७86 688 ) ५१
685 स्मृतिच ° 1. ए. 441, परा. मा. गा. ए. 311, स. तरि. ४. 276, व्य. म,
2. 200 बीर° ए. 891; वि. र, ए 196 (९४१8 तस्य कायौ समाक्रिया).
686 परा. मा. रा. ए. 312, जपराकै 8्प068 व कण कभा वप ४
बृहस्पति ४ 8० 00 वि. र. ए. 126, वीर° 7. 891, स. वि. [, 276
तिखारो द्धारः 79
1 कं च चोराणां हि्पिनां तथा ।
नियम्या शकवृणां सवषामेष निणैयः ॥६३७॥
( दुत्तानपाकमं दत्ताप्रदानिकं वा }
केकयं चेव दान च न नेथाः स्युरनिच्छवः ।
दाराः पुव्ाश्च सवैस्वमात्मनेष तु योजयेत् ॥६३८॥
आपत्काटे तु कतेव्यं दानं विक्रय एव वा ।
अन्यथा न प्रवतत इति राख्विनिश्चयः ॥६२९॥
सवैस्वगृहवजं तु कुटुस्बभरणाधिकम्
यदद्रव्यं तत्स्वकं देयमदेयं स्यादतोन्यथ। ॥६४०॥
अतश्च सुतदाराणां वरित्वं त्वनुशासने। `
विक्रये चेव दाने च वित्वे न सुते पितुः॥६७१,
स्वच्छया यः प्रतिश्चुत्य बाह्यणाय प्रतिग्रहम् !
न दयादणवदाप्यः प्रापरुयात्पूुवेसाहसम् ॥६४२॥
प्रतिश्चतस्यादानेन दत्तस्याच्छादनेन च ।
कस्पकोटिदातं मत्य॑स्तियेम्योनो च जायते ।६४३॥
अविज्ञातोपटन्ध्यथ दानं यत्र निरूपितम् ¦
उपरन्धिक्रियालन्धं सा शतिः परिकीर्तिता ॥६४४॥
687 परा, मा. 7, 812, वि. र. . 126, व्य. म. ‰. 201, वीर० ए. 391
स्मृतिच ° 111. ए. 441
688-689 ` अपराकं ए. 779, परा. मा. 711. ए. 815 ( आत्मन्येव ), वि, ₹.
128, 826 वि. चि. 2. 86 ( 0०४ "6४0 अत्मः येव ), स्म्रतिच ° 111
7. 445-446. = |
640 स्मृतिच० (11. ए. 445, परा. मा 171. 7. 214, वि. र. }. 199, वि. चि
9. 87, स. वि. 7, 288, वीर० 2. 395. 41] ७2०९७0४ स्पृ्िच° +58
सर्वस्वं गृदवर्जं
धा परा. मा. गा. 2. 315, सपृतिच ° 777. ए. 445 ( 98 स्सत्यन्तर ). |
` 649 स्यृतिच गा. 7, 449, वि. र. 7 182, व्य. म. ए. 208, वीरऽ 7. $
स. वि. 1. 285
क ५ 948 स. वि. 7. %85; वि. र 1. 18% 9660०९8 & 01086 शणाा9 १९86 #0 =
हारीत
644 स्यृतिच ० 771, 7. 449, पराकं 7. 781, वि. र. ए. 184, बीर °`» 897. +. ८
थल
भयत्राणाय रक्षा तथा कार्यप्रसाधनात्
अनेन विधिना कभ्धं विद्ास्प्त्युपश्षारतः ॥६७५१॥।
प्राणसंशयमापन्े ये मायुत्तास्येदितः।
सर्वस्वं तस्य द् स्यामीत्युक्तेपि न तथा मवेत् ॥\६७६॥!
कामक्रोधास्वतन्बातंङ्कीवोन्मत्तपरमोदितेः !
्यत्याखपरिदहाखाचच यदत्तं तत्वुनदेरेत् ॥६५७॥
या तु कार्यस्य सिद्धयथम॒त्तोचा स्यात्प्रतिश्चता ।
तस्मिन्नपि प्रसिद्धेथं न देया स्यात्कथंचन ॥६७८॥
2 अथ प्रगिव दत्ता स्यात्प्रतिदाप्यस्तथा बखाटः
9 | दण्ड चेकाददागुणमाहुगागध्यमानवाः ॥६७९॥
क स्तेनसादहसिकोदवृ्तपारजलाथिकषशं सनात् ।
द्दोनादुवुत्तनष्टस्य तथाखलव्यप्रवतेरात् ॥६५०॥
प्रा्मेतैस्तु याकेचित्तदुत्कोचाख्यञुच्यते |
न दाता तच्र दण्डयः स्यान्मध्यस्थञ्यैव दोषभाक् ६५१॥
नियुक्तो यस्तु कार्येषु स चेदुत्कोचमाघ्रयात् ।
स दाप्यस्तद्धनं छत्खं द्मश्यंकादशाधिकम् ॥६५२)
अनियुक्तस्तु कायाथमुत्कोच यमवा्रुयात् ।
कुतभ्रत्युपकाराथंस्तस्य दोषो न विद्यते ॥६५३॥
645 भपराकं . 781 (1७8० प्रतयुपकारकम्); स्मृतिच ° 771. ए. 450, वि. र.
184, चीर० 7. 398 ( २०९१5 भयत्राणोपरक्षा ° 9०१ कन्धं भथुत्राणद्किं =
धनम्).
846 अपराके ए. 181, स्मृतिच° 777. 450, वि. र. ए. 184
87-649 अपराकं ए. 781-189., स्खतिच० 771. } 452, परा. मा, गा. ए, _
| 819, वि. र. 7. 195-1386; व्य. म. 7. 205 ( २००१8 यस्तु &०१ उत्कोचः); `
बीर० }, 899 | |
` 660-651 भपराके 1. 782 ( "6808 पारजापिक ० ०१ धृतन्टस्य ), 3 तिन ॥
प्रा. . 482, परा. मा. 7. ए. 820 ( २५००8 पारदारिकि्गमात् ); वि. `
ई. 187 ( ८6908 पारदारिके° ), स. वि, 1. 286 (०४०१8 पारदारिकर ° 900
४०१ धुत्तनषटस्य ), वीर ° ए. 399-400, ष्य. म. ए. 205 6
८. ध 862-668 स. वि, ?. 286
स्वस्थनातेन वा दत्तं भावित घ्मकारणात् ।
अदत्वा तु सुते दाप्यस्तत्सुतो नाज संदायः ॥६५७॥
योगाधमनविक्रीतं योगदानप्रातिग्रहस् ।
यस्य वाप्युपधि पच्येत्तत्सवं विनिवतैथेत् ॥६५५॥
श्रतावनिश्ितायां तु द्दाभागमवाप्रयाव् ।
लछाभगोवीयैसस्यानां वणिम्गोपङ्कषीवल्छाः ॥ ६५६ ॥
| (तेतनस्यानपकम) `
कमौरम्भं तु यः कृत्वा सिद्धं नैव तु कारयेत् ।
बलात्कारयितव्योऽसावङ्कवैन्दण्डमहैति ॥६५७॥
विश्रयन्वाहको दाप्यः प्रस्थाने द्विगुणां मृतिम् ॥६५८॥
न तु दाप्यो हृतं चेरेदग्धभूढं जलेन वा ॥६५९॥
व्यजत्पथि सहायं यः श्रान्तं सोगातेमेव वा,
प्राघ्रयात्साहसं पुव ग्रामे अयहमपाख्यन् ॥६६०॥
यदा तु पथि तद्धाण्डमासिष्येत हियेत वा ।
यावानध्वा गतस्तेन प्राश्चयात्तावतीं भृतिम् ॥६६१॥
654 अपराके 1. 782, स्मृतिव° 1171. 2. 458, भेता ०० या, 77. 1१76, परा. मा.
रा. 7, 820, स. वि. 7. 987.
655 भपरके 1. 788; स. वि. ए. 28१7 8861068 ४0 नरद ; स्मृतिच° 1
ए 454, वीर ० 1. 400 ६४१ परा. मा. 111. 2. 8%0 ॐ8०५९© ४ मनु
( 1 18 मनु. 8. 165 )
666 स. वि, 7. 298. = _
687 स्मरतिच° 771. 2. 478, परा. मा. 171, ए. 325 ( २०४08 सर्वं {0 सिदध ),
धि. ₹. ए. 160 ( सव ), स. विं. ए. 999, वीर ° ए. 416 (८७०१8 सिधि)
658 स्मरृतिच° 71. 7. 475 ( (०४08 द्विगुण स्ख », परा. मा. 71. 2. 897
वीर @ ४. 41 8
689 स. वि, 7. 800, अपराकं ए. 799, स्मृतिच ° 111. }, &76 &०१ वीर ° ?. |
418 (४861068 ॥0 बृद्धमनु)
660 स्पतिच° 771. ए. 477, अपरा ए. 800, परा. मा. 7. ए. 839, षि. र.
ए, 165, बीर० }. 421
| . 2. 50, वीर 7. 419 ८
काल्यायनस्मृतिसारोद्धारः 81
व
82 ` कात्यायनरशतिसरोद्धारः
हस्त्यभ्वगोखरोष्दीन्ण्हयीत्थः पारद्न यः+
नाधयेत्छतङ्त्याथेः स त दाप्यः चभारख्कम्
गृहवायापणादीनि गदीत्थाः सटश्ञिनं यः।
क्षित्रारामाधिवीतेषु शुदेष पद्ध पि घु
ग्रहणं तत्पविष्ठा्बा वाडव शः दषस्यतिः ५६६४॥
अघमोत्तममध्यानां परां चेद चःडने ।
स्वामी तु विवदेयज दृण्ड तथच एकस्पयेत् ५६६५५)
अजतिष्येव सस्येषु कुथोदावस्णं महत्
दुःखेनेह निषायेन्ते छञ्यस्वादुरखा सगाः ॥द६द॥
दएपयत्पणपादं गां द्धौ पादौ मषीं तथा
तथाजा्ेकवत्सानां पाथो दण्डः प्रकीतिंतः ॥६६७॥
( समर्यस्यानपाकमे संदिदूव्यतिक्रमो वा )
समूहिनां तु यो चमेस्तन ध्मेणतेसदा। `
्रङ्यः स्वैकमाणि स्वघमेषु वयवस्थिताः ॥ ६६८ ॥
अषिरोधेन घमस्य निगेतं राजशासनम् ।
तस्थैवाचरणे पूवे कैव्यं तु बुपाक्ञया ५६६९ ॥ `
राजप्रवतितान्थमीन्यो नसे नादुपाख्येत्। `
ग्यैः स पापो दण्ड्यश्च छोपयन्यजरासनम् ॥६७०॥
ल सतकन ५ [ क
662-668 स्छतिच° [11. ए. 479, परा. मा. (1. 0. 380-31, वि. र, ए. = ॥
ई | 168-169, अपरके 7, 801 ( 663 ०] ) वीर् 9 1. 420. . १
664 स्यतिच० 1. 7. 48 वि. र. ‰. 241 , वि. चि. ‰. 69
666 स्खृतिच ° ए. 488, अपराकं }. 672, दि. र. 7. 241, वि. चि, 7. 69
666 स्पृतिचि° 7. 1. 488, अपरा्कं ए. 770, पर. मा. 7, 2. 88, कैर =`
1. 446 | 0
. 667 स्शकिच ° 111. }. 494 ( 048४ 1817 ), वि. र् ए. 285, वि. चि. 7. 8 | 1
ध हाना ), परा. मा. 1, ४. 358 ( 3180 समूहानां } 1
0 ५ 069-670 स्मरतिच० 14. छ 52४5236, वरि, र. }: 181, वीरण 1. 496
न 668. स्प्रतिच० 111. 9. 525, वि, र 1. 180 &८ वीर् ० 1. 426 ( 1884 वमू ॥ ५
धट (0 9 {5 ध है धु प
कात्यायनस्छतिलाले्रः
य॒न्तं च ये! इन्याह कुथ उनवकारदः
चतं चैव यो परते स दाप्यः दुवखाडसलम् ॥ ६७१ ॥
खाहसी मेद क्षास च गण््रव्यादिनाशक्छः ।
उच्छेद्यः खर्व एवते विख्याव्यैवं सुपे श्रुः ॥ ६७२ ॥
ककपात्ने च या फङ्कत्य संभोच्छा यस्य ये भवेत् ।
अदर्वसुतत्तथा दण्डवस्ट रथ दौषमदशयन् ॥ ६७३ ॥
गणसदिदय यार्किचित्छत्दर्म मद्धितं भवेत्!
आत्मा विदियुकतं बा देयं तेरेव उद्भवेत् ॥ ६७४ ॥
गणाना श्रेयं कदा ख्युयं तु मध्यताम् ।
द्राक्तनस्य चनर्णस्य सदः सदे पव ते ॥ ६७५ ॥
तथेव भाल्यवेभाव्यदानधयमक्ियास्ु च)
भूहस्थोरामागी स्यात्पमतस्त्वंशाभाङ्न्न तु ॥६७६॥
यत्तः प्रातं रश्धितं वा गण बा कणं कृतम् ।
राजप्रसादलन्ध च ख्वैषायेच तत्समम् ॥ &७७ ॥
| (नेगमादिधं्ञालक्षम्)
नानापौरससूडश्ठ नैगसः परिकौ
नानायुधधरा चातः सभदेताः धकीटि
न ण
671 अपराकं . 795, स्मृति ° 111. ए. 597, परा. मा. 1. ]. 954 (हन्यायः
कछार्यानवकाशदः ), वी₹० 1. 428६, वि. र. }. 179.
672 अपराकं ए. 693, स्मरृतिच ° {1 ‰. 580 (५6०९8 द्वैगुः 81 ००४६९68 _
४6 २०४१० द्वेश्खः ), वि. ₹. ¢. 188, वीर् ° }. 428.
678 अपरा 8. 794, वि. र. ए.185, वि. वि... 84 ख. वि. ए. 580 (७४8
पड्वत्यां वा न भोक्ता येन ये मवेत् । अकुवन् स तथा ). `
64 अपरा 7. 79 ( 1998 येः कैश्चित् }, स्पृतिच° (1. 7. 588, परा, मा.
7. 7859, स. वि. 7. 181, वि.र. ए. 18, वि.वि. 58. = `
` &675-676 अपराकै 9. 795 { ४००५5 सोज्यं वेभाज्यं धनं ), स्पृतिच ० आ. ए.
588 ( २९७५5 गथिनां क्चिल्षिवमोणां 825 (८4 ), परा. मा. {. ए).
` 859-860 ( ५९५8 प्ा्तनस्याधमणैस्य, भोजनैसव्यं ५०0 भगतस्त्व॑श्च- ` (
` मागभाक्), वि. र. एः. 187-188, वीर° ?. 489 ( २०४8 रेमन्य ४4
शराग्गतः).
6 ष.वि. ४. 380.
। 8682 वि. र. ए, 668.669; स्यृतिच 171. 2. 524 9यद् वीर० 2. 48 = `
` कत पस. मा. आ. 7, 352 ए. एणा म 68 कण्व प्छ
०. शक
॥
-------- नान
84 कात्यायनस्छतिसारेद्धारः
खमूहो बणिजादीनां पूगः संपरिकीर्तितः।
मवस्यावसिता ये तु पाषण्डाः परिकीतिताः ॥ ६७९. ॥
ब्राह्मणानां समस्तु गणः संपरिकी्तित
शिव्योपजीविनो ये तु रिच्पिनः परिकीतिंताः ॥६८०
आदहैतसौगतानां तु समूहः सङ्क उच्यते ।
चाण्डाङश्वपचादीनां समूहो गुदम उच्यते ॥ ६८१ ॥
गणपाषण्डपूगाख वाताश्च धरेणयस्तथा ।
समृषटस्थाश्च ये चान्ये वगौख्यास्ते बहस्पतिः ॥ ६८२॥
( कयविक्रयानुश्यः क्रीत्वानुरयो विक्रीय संप्रदानं वा)
करीत्वा पराप्त न गृहीयाद्यो न दद्याददूषितम् ।
स मूल्यादशमं भागं दसा खद्रव्यमाप्रुयात् \ ६८३ ॥
अप्राप्नेथक्रियाकाटि ते नेव प्रदापयेत् ।
पव धमां दराहात्तु परतोदुशयो न तु ॥ ६८४ ॥
भूमेदेशाडे विकरेतुसयस्तत्केतुरेव च ।
द्वादशाहः सपिण्डानामपि चाव्पमतः परम् ॥ ६८५ ॥
कीत्वाचुरायवान्पण्यं व्यजेदोद्यादि यो नरः ।
अदुष्रमेव काडठे तु स मृल्यादरमं वहेत् ॥ ६८६ ॥
क्रीत्वा गच्छन्नयुरायं थी हस्तदुपागते। `
षड्भागं त्न मूल्यस्य दत्वा कते त्यजेद् बुधः ॥६८७
अविज्ञातं तु यत्क्रीतं दुष्ट पश्चाद्धिभावितम् ।
क्रीतं तरस्वामिने देयं काटे चेदन्यथा न तु ॥ ६८८ ॥
0४] 0 680 ({ ४6 २७३१ कुखानां हि समूहस्तु ). स्पृतिच० [¶. 7
40 198 689, 12067 18] 07 678 8० ६४ 1891 > 680. `
688-684 स्छतिच° 7. ?.511, वि. र. ए. 191-192, परा. मा. 77. 7.86
` स. वि. ‰. 210 (६९०8 दशाहं तु), वि. चि- 56 (अग्रपतरथे क्रियाकोरे), वीर ०
0. 489 (अप्राप्य क्रियाकाले ), वि. र. 8180 २९४१8 अप्राते क्रियाकरे
089 प्रा. मा. 1. ए. 864. |
086 स्पृतिच° [ा. 7. 518, वि. २, ?. 197, स. वि. ए. 311 ( कीलप्यनुकञ-
| यात् ); बीर० . 485 ( 16808 क्रीत्वा चाजुशर्यं पश्वाच्यजेद्दोषाइते ) ५
687 स ° प्रा. ए. 512, वि. र. ए. 197 ( ९४१8 लजेद्धयुः), वीर० 7.
496. ५
688 स्तिच° 7]. 2. 58, परा. मा. [ा. 8. 361, वि, र, ए. 199
( २९७08 देयं पण्यं कलिन्यथान तु ), व्य. म. 2. शत, बीर० [. 488.
र स
8४
निर्दोषं दरौयित्या तं यः सदोषं प्रयच्छति ।
मूल्यं तद् इदेगुणं दाण्यो विनयं तावदेव च ॥६८९॥
उपहन्येत वा पण्यं दद्येतापदियेत का ।
विक्रेतुरेव सोनथा-विक्भयासंप्रयच्छतः ॥६९०
दीयमानं न गृङ्धाति कीतं पण्यं च यः क्रयी ।
विक्रीतं च तदन्यत्र केकेता नापराश्चयात् ॥\६९९॥
मन्तोन्मत्तेन विक्रीतं हीनमूल्यं भयेन वा ।
अस्वतन्त्रेण सुग्धेन त्याज्यं तस्य पुनर्भवेत् ५६९.२॥
ञय्हं दोह्य परीक्षेत पच्चाहाद्वाह्यमेव तु ।
मुक्तावज्प्रवाखानां सक्ताहं स्यास्मवीक्चषणम् ॥६९.३॥
द्विपदामधमासं तु वृंखा तद्विगुण खियाः।
दशाहं सवेवीजानामेकादं रोदवास्साम् ५६९०॥
अतोवोकपण्यदोषस्तु यदि संजायते कचित्
विक्रेतुः प्रतिदेयं तत् केता मूस्यमवाभ्ुयात् ॥६२५॥
पारेभुक्तं ठ यद्धासः छ्िष्टरूपं मलीमसम् ।
सदोषमपि तत्कीत विक्रेतुने भवेत्पुनः १६२६॥
साधारणं तु यत्कीतं नैको दद्या्नराघम
नादयान्न च गह्तीयाद्धेकीयाच्च न चेव हि ॥६९.७॥
ब्रीत्वा मूल्येन यत्पण्यं दुष्क्रीतं मन्यते क्रयी ।
[िकरेतः प्रतिदेधं तत्तरिमिनेवाह्यवीष्चितम् ॥६९८॥
689- 690 स. वि. ए. 811
691 स. वि. 7. 811, वि. चि. . 57 ( 00 ०8८6 व } |
692 स. वि, ए. 812; वीर० 441 ४ वि. चि. . 57 9801906 0 ब्हश्ति, `
` 698-.695 स. वि. 7. 816 ; वि. र. ए. 199. 8861088 716४ ४0 †0 नारद्
8\त 1117त ४० बृहस्पति; वि. चि. ए. 57 ‰€61068 880 ६7० ४० व्यास
४४१ नारद् ४४१ ४!€ ६५ ( 7. 58 ) ४० बृहस्पति ; परा. मा. (आ. 7
961 8861; 068 81] १166 ४0 व्यास ४० वीर ० 7. 488 88६61088 81}
४0 नारद्. 716 8८8४ प्र १७६68 876 कि89.08 12. 5-6
ध 696 प. वि. ए. 817 ; परा. मा. ए. 864 &10त् व्य. म. ]. 217 88106 1४.60 ध (५ |
नारद् ( 1# 28 नरद् 19. 7)
+ = 9699 स. वि. 2. आप; पर. मा, पा. ए. 368 ०७७८0०७ 698 ० नारद् `
दिशुणं तु ततीयेहि परतः तरेव तत् ५६९९॥
द्रव्यस्वं पञ्चधा कत्वा त्रिभागे मृस्यमुच्यते ।
लामश्चतुर्थो भागः स्यात् पञ्चमः सत्यमुच्यते ॥ ७०० ॥
सान्धेश्च परिद्घत्तिश्च विषमा वात्रिभोग्तः)
आक्ञयापि कयश्चापि दशाब्द विनिवतेयेत् ॥७०१॥
ज्ञायादीननयुज्ञाप्य सम्रीपस्णननिन्दितान् ।
क्रयावेक्रयधरभोपि भूमेनोस्तीति निणेयः ॥७०२॥
स्वग्रामे दशराञ् स्यादन्यश्रामे चिपश्चकम्
राश्रास्तरेषु षण्मासं भाषाभदे तु वत्सरम् ॥ ७०३ ॥
पलायिते तु करदे करप्रतिभुवा सह
करार्थं करदश्चे्ज विक्रीणीयुः सभासदः ५७०४
समवेतैस्तु सामन्तैरभिकतैः पापमीरभिः।
छ्षेचामगुहादीनां दिप च चतुष्पदाम् ॥७०५॥
करिपितं मूल्यमिव्याहुभौग कुत्वा तदष्टधा
एकभागातिरिक्तं वा दीन वाचुचितं स्मृतम् ॥७०६॥
समाः शतमतीतेपि सवं तद्धिनिचतेते। `
कऋयविक्रयणे क्यं यन्मूट्यं घभैतोहेति ॥७०७॥ `
तत्तयं पञ्चमे षष्ठे सप्तमंशेष्मेपिवा । `
ईीनोनि) यदि विनिवृत्ते कयविक्ायण सति ॥७०८॥
दहीनमूस्ये तु तत्सवं कुतमप्यकृतं भवेत् ॥ +
उक्तादर्पतरे हीने ऋये(यो ?) नैव प्रदुष्यति ॥७०९॥
तेनाप्यंदोन दीयेत मृल्यतः ऋयविक्रये ।
कतमण्यकृतं प्राहुरन्ये घमेविदो जनाः ॥७२०॥ `
( 1# 28 नारदं 12. £ )
700 स, वि. ‰. 818
70 ष. वि. 2. 820
4 {02-708 सं. षि |४ 929
` 70५ घ. ति. 2. 824 स
105--706 स. वि. ए. 825.
( १ ` व्णर-7ा0 ब्र.वि. ए 8%6-26
१,
मल्यार्स्वल्पभ्रदानेपि कयकिषद्धिः कृता भवेत् ,
वृद्धां प्रदातव्यं देयं तत्समयाते ५ ७१२॥
(अभ्युपेत्याञ्चश्रूषा)
यस्तु न ब्राहयेचिछिव्यं कमौण्यन्यानि कास्येत्
प्रापुयात्साहसं पूवं तस्माच््छिष्यो निवतेते ॥७१३४
शिश्छितोपि धितं काममन्तेवासी समाचरेत् ।
तजर कमे च यत्छुयादाचा्थस्येव तत्फलम् ॥७१४॥
स्वतन्घस्यात्मनो दानादासत्वं दारबद शगः
निषु वर्णेषु विज्ञेयं दास्यं विप्रस्य न कचित् ।७१५॥
वणांनामानुकाभ्येन दास्यं न प्रतिलोमतः ।
राजन्यवेदयद्युद्धाणां व्यजतां हि स्वतन्त्रताम् ॥७१६॥
खमवर्णोपि विग्रं घु दासत्वं नैव कारयेत् ।
व्राह्मणस्य हि दासत्वाज्चुपतेजो विहन्यते ५७१७५
थिर सूढधमेस्तु समवणं कदचन ।
कारयेद्ासकमाणि बाह्यणं न बहस्पतिः ।७१८॥
711 स. वि. ए. 826
712 स. वि. ए. 89 | |
715 अप्तकं 7. १90, स्छतिच० ए, 2. 467, परा. मा. (1. 388; विं. ₹. ए
| 141, बीर 1. 408, स. वि, 2. 290
14 स. वि. . 290, स्तिच° {11. . 457 ( शिक्षितोपि कतं कष्ठिमन्त० );
५ धीर ० . 4038 &श्धा1068 # नारद् ४०५ ८6868 &8 स्प्रतिच ० ५0९8,
715 अपरा 7. 788, स्पृतिच० 771. ए, 460; वि. र. ए. 152, व्य, ब. एए.
206-2047, वीर ० ए. 408
१16 अपराक ए. 788, स्पृतिच० 77. ए- 461 ( वणेक्रमलु° ), परा. मा, पा. ध
ए. 8, वि. र. . 159, स. वि. 2, 296 (२७९९8 ४८ प्छ त्रिषु कणु
82 वणानामु ° &8 016 ९९८86 }
11--718 अपरार्क 1. 789 ( एप+8 ९6186 718 06६९७ 16 #प्र0 091९888 । | ५,
ग 117), स्मृतिच ० 11. ए. 46162 ( ०४०8 समवर्णौपि }, पर. मा,
77. 7. 842 ( २५५5 असवे तु विप्रस्य ४०१ श्रुताध्ययनेसपन्नं }
४. 152 ( ण्न [्र७ पौ 79 अपरके); व्य. म, ए. 207 9४0 वीर् ° क
। ॐ. 4 ( णप ध"< ४२८ जाद्धणस्य हि &&. )
शीलाभ्ययनसंपन्ने तदनं कमं कामतः ।
तत्रापि ना्चुभं किचित्पङवींत दविजोत्तमः।७१९॥
विण्मू्रोन्माजेनं चेव नच्नत्वपरिमदेनम् ।
ध्रायो दासीखताः कुयुगंवादिश्रहणं च यत् ॥७२०
प्रनज्यावसिता यज्ञ अयो वणँ द्विजाद्यः
निवासं कारयेद्धिपरं दासत्वं क्षत्रविङ् सपः ॥७२९१॥
दद्र तु कारयेदासं कीतमक्रीतमेव वा ।
दास्यायैव हि खष्टः स स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥७२२॥
स्वदासरीं यस्तु सगच्छेसपसूता च भवेत्ततः ।
अवेक्ष्य बौजं कायौ स्यान्न दासी सान्वया तु सा॥७२३॥
दासस्य तु धनं यत्स्यात्स्वामी तस्य प्रयः स्मरतः `
प्रकारं विक्रयाचन्तु न स्वामी धनमहैति ॥#७२२४॥
दासेनोढा त्वदासी या सापि दासीत्वमाञ्ययात्।
यस्पाद्धता प्रथुस्तस्याः स्वास्यधीनः प्र्॒यैतः ॥७२५॥
आदद्याद् ब्राह्मणीं यस्तु विक्रीणीत तथेव च ।
राज्ञा तवङृत कायं दण्ड्या : स्युः स्वै एव ते ॥७२६॥
१19 स्छृतिच० 1. 461; वि. र. ए. 159, वि. चि. ए, 4
720 वि, र. ए. 144 |
१21 अपरा 7, 8, स्दतिच० 777. 2. 466 ( ८०७७ क्ष्रविद्शयुः ), परा, `
मा. (1. 2. 845 ( दासत्वे क्षन्रियं विशः ); स. वि. {. 298, विं. चि, ए, _
५ 48-44, व्य्. म. 201 (कषत्रियं श्रगु); वीर ° . 406 ( व्वरिड् मृगुः )
१४४. स. वि. ए. 296. (08 18 मनु. 8. 4198 ( फ} 16) २९७8 ब्राह्मणस्य
स्वयम्भुवा)
१28 स्मृतिच० 1. ‰. 468 (स्यान्न दासी); वि. र. 1. 148; व्य. म. ए. 210, _
१ | वीरण ५ 412 ४ |
` १24 स्तिच° 111. 2. 469 ( पड ए ); वि. र, . 150, वि. चि, ए. 46
( २७06 ग्रखादविक्रयातु ); व्य. म. ए. %11 प वीर० 418 ( प्ल `
पर्भत गणङ् )} 1
125 स्मृतिच° 111. ‰. 469, सर. वि. ए. 194 ( यद्तद्धतौ 8० प्रभुस्तयोः );
चि. 46, व्य. म. 8. 211, वीर० ‰. 412. |
1 १ ` 126-1%9 अपराकं ए. 789 (२९१०8 महूदासी {0 अदासी च ५०१ भक्तदासी )
स
89
तु खाश्रतां यस्तु दासी कुयात्कुरखियम्
सक्रमयेत वान्यत्र दण्ड्यस्तच्चाद्चतं भवेत् ॥ ७२७
बाकचाच्रीमदासीं च दासीमेवं भुनक्ति यः ।
परिचारकपत्नीं वा प्रा्ुया्पुवंलाहसम् ।॥७२८॥
विक्रोशसःनां यो मक्तां दासीं विङेवुभिच्छलि ।
अनापदिस्थः शाक्तः सन्पा याद् दिरातं दमम् ॥७२९॥
तवाहमिति चात्मानं योऽस्वतन््रः भयच्छति ।
न स तं भराघचुयात्कामं पू्ेस्वामी रमेत तम् ॥७३०॥
प्रवज्यावसितो दासो मोक्तव्यश्च न केनचित् ।
अनाकारथ्तो दास्यान्मुच्यते गोयुगं ददत् ॥७३१॥
( सौमाविवादः )}
आधिक्यं न्यूनता चांशचे अस्तिनास्तित्वमेव च ।
अभोगयुक्तिः सीमा च षट् भूवादस्य हेतवः ॥७३२॥
वस्मिन्भोगः प्रयोक्तव्यः सवंसाक्षिषु तिष्ठति ।
सेख्यारूढश्चेतरश्य साश्ची माग॑दयान्वितः ॥७३३॥
क्षे्वास्तुतडागेषु शूपोपवनसेतुषु ।
इयोषविवादे सामन्तः प्रत्ययः सवंवस्तुखु ॥७३४॥
साभन्तभावेऽ सामन्तैः छु्यौतक्षेजादिनिणैयम् ।
वि
५
२. 2. 154-155 ( ८०४48 मुक्तां {0 सक्तां ); वि. चि. 43 ब्ब, मं
208, वीर० ए. 418
780 स. वि. ‰. 294, वि. चि. ए. 44 (०० 286); वीर० }, 411 (#807])968
#0
नारद् )
781 ख बि. {. 298, 118 ६० 81९68 866 ४0 6 98 ० भशिता
४6868 |
189 यिता० ०४ या. 71. 180, स्यति ° 771. ए. ६44, वि, २, 7. 901 (अममे
मुक्तिः) वीर्° }. 451, अपराकं . 759 |
। 198 भपराकं 2. 759, वि. र. . 205 ( स च साक्षिषु }
ध {85 अपरां . 760, वीर० 2. 466 (समेतमावात्सामन्तेः); परा. मा. (1. क.४भ
( 29808 खीमान्तबाधिसामन्तेः )
ब्रामसीमाश्चु च तथा तद्धश्नगरदेशयोः ।
ग्रामो आमस्य सामन्तः क्षें श्चेभस्य की कितः म्
गहं हस्य निदै्ट समन्तात्परिरभ्य डि
तेषामभावे सामन्वमीखबृद्धोध्वु तादयः !
स्थावरे षट्ध्रकारेषि नान्न क्यो विचारणा 1७३७ `
सखक्छास्त्वथ सामन्तास्तत्संसक्तास्तथोत्तसः !
संसक्तसक्तक्तसक्ताः पद्माकारा प्रकीतिंताः ॥७६८॥
स्वा्थस्िद्धौ परदुषटेषु सामन्तेष्वथैगौरवात् ।
तत्ससक्तेस्तु कर्तव्य उद्धारो नाज सशयः ॥७२९॥
ससक्तसक्तदषे तु तत्संसक्ताः प्रकीर्तिताः ।
कतेग्या न प्रदुष्टास्तु राज्ञा धमं विजानता ॥७४०॥
नाक्ञानेन हि सुच्यन्ते सामन्ता निशेयं प्रति ।
भज्ानोक्तौ दण्डयित्वा पुनः सीमां विचारयेत् ।
कीतैते यदि भेदः स्यादण्ड्यास्तृत्तमसाह सम्॥७४१॥
स्यक्त्वा दुस्त सामन्तानन्यान्मोखादिभिः सह ।
संमिश्य कारयेत्सीमामेवं धमेविदो विदुः ॥७४२॥
196 स्पृतिच० 171. ए. 546, वि. र. ए, 20, अपरा 2. 759, वीर» 7. 489.
787 मिता ०४ या, 11, 169, स्पृतिच° 1. ए. ६५5, वि. र. 2. 206, वि, जि.
४, 83, बीर 9. 466
795 भिता० ०० या. 11. 159, अपक ए. 760, स्पूततिच ° 171, 7, &81-588
षश, मा. {1 0. 389, वि, र. 1. 218 ( २७०१ सक्तसक्तान्ताः ),
189-740 मिता० ०" या. 1. 152, अपराकं 2. 760 (०४08 तस्संसक्तेषु क्न्य);
स्यृतिच ० 11. 7. 588 ( ०66 1906 छरा ० 740 ), वीरण ५५ |
५६4-55; वि. र, ए, 07
‰41 मिता ०४ या. 71. 188, अपराकं ?, 168, वीर० 460 ( #& धक `
18466 ४1९88 ०णोङ ); परा. मा. पा. ए). 897-898 ( ¢्र० 19४४७
1981९68 ); वि. ₹, ए. 212
` . {42 मिता ०० या, 1. 158 अपरा . 760, परा. मा. श्रा 9. 396
{ चमरीस्य 0 समिध्य ); स्मृतिच° 711. ‰. 588 ( ७४१8 समहय ),
र्, 208 ( ८०808 समीक्ष्य ), वीर° 466. ` 1
ध . & र
ना
त्यायनस्दातिखासेदारः
(ऋ)
ये तश्च पूवं सान्ता: पथ्यादेशान्तरं गताः।
न्मूलत्वाशु ते मौरा ऋषिभिः सप्रकीतिताः ॥७४३॥
निष्पा्यमानं येदं तत्कार्यं कुगुणान्विततैः !
बडा वा यदि वाऽवुद्धास्ते वृद्धाः परिकीतैताः॥७७४॥
उपश्चवणसंमोगका्याख्यानोपचिहिताः
उद्धरन्ति ततो यस्माङुदधतास्ते ततः स्यतः ॥७४५॥
सामन्ताः साधनं पूवैमनिष्टोक्तो गुणान्विताः
दिगुणास्तृत्तरा शेया ततोन्ये चिगुणा मताः ॥७४६॥
दको यद्वन्नयेत्सीमासुभयोरीष्लितः कचित्! `
मस्तके क्षितिमासेष्य रक्तवासाः समाहिताः ।७७७१
भयवर्जिंतभूपेन सवौभावे स्वयंकृता ॥७४८॥
छ्षत्रकूपतडागानां केदारारामयोरपि ।
यष्पासादावस्षथच्पदेव गेषु च ।७७९॥
बहुनां तु गृहीतानां न सवं निर्णयं यदि ।
क्युभेयाद्रा रोभाद्रा दाप्यास्तृतच्तमसाहसम् ॥*७५०॥
सीमाचङ्क्रमणे कोरे पादस्पशे तथेव च ।
चिपश्षपल्ंसप्ताहं दैवराजिकमिभ्यते ॥७५१॥
148-746 भिता० ०० या. ए. 151 ( तदकणान्वितेः ), अपर 7. 789-760
स्मृतिच° 77. 9. 589, परा. मा. ए. ए. 890, ष. वि. }. 984, बीर»
ए. 456
746 मिता० ०४ या. 71. 152 (निर्दोषाः स्युयणा०), अपराकं ४. 760, श्मृतिच°
| प्ा. ए. 540, वि. र. ए. 208, बीर ° ए. 456 ( 9७0७8 &० मन्म },
747 भपराकं ?. 762
748 वि, इ. }. 216
। १५9 भिता० ०८ या. ए. 184, वि. र. ए. 218, बीर्° ए. 457 | |
750 भत्ता ०प या. 7. 1852 अपरकं ए. 768, परा. मा. 7. ए, शि,
स्मृतिष्व ° 111. ए. 546, व्य. म. ए. 292; वीर ० ए. 460
^ | 761 भिता ° ०४ या. 71. 152; अपराके ‰. 768, स्मृतिच° (71. ए. 548, ब्ब, ५
मर. ए. ४29, बीर° ए. 4&8
92
मेसलाश्चमनिष्कासगवाश्षान्नोपरोधयेत् ।
प्रणालीं गदवास्तं च पीडयन्द्ण्डभाग्मवेत् ५७५२५
९ अ क क्
निवेरासमयादुध्वं नेते योज्याः कदाचन
शष्िपात प्रणालीं च न इयात्परवेदयत्ु ५७५३
विष्मृजोदकवपं च वहिष्वश्रनिषेरानम्
अरात्निद्रययुत्खज्य परङुञ्यान्निवेरायेत् ॥७५७॥
सवं जनाः सदा येन प्रयान्ति स चतुष्पथः
अनिरुद्धो यथाकारं राजमार्गः स उच्यते ॥७५५॥
न तत्र रोपयेत्कचिन्नोपदन्यान्तु केनचित् ।
गुवाचार्यनुपादीनां मागांदाना्तु दण्डभाक् ॥७५६।॥
यस्तज सकरश्वश्रान्वुक्षारोपणमेव च ।
कामात्पुरीषं कुयौच तस्य दण्डस्तु माषकः ॥७५७॥
तटाकोद्यानतीथांनि योऽमेप्येन विनाशयेत् ।
अमेध्यं शोधयित्वा तु दण्डयेस्पू्ैसादसम् ॥७५८॥
दूषयेत्सिद्धती्थानि स्थापितानि महात्मभिः
पुण्यानि पावनीयानि प्राघ्रयात्पूलाहसम् ॥७५९॥
। 62-158 अपरा ए. 164-168, वि. र.7. 919 (गण४७ ४०७ प०निवेचार), =
, .; व्य. म. . 228, बीर० ‰, 463. स्पृतिच० 771. ए. 581 ४8 ¶5३ 8
१९४५8 टष्िप्रा्र
64 अपक ए, 168 (चकं च), सपृतिच° 171. ४. 561, परा, मा. [7. ?, 400
(16808 चक्रं च्), वि.र. ए. %20 (चक्र च), व्य.म. ए. १2५, वीर ° 12, 464
{66 स्छृतिच० [11. ए. 552.वि. र. 1. 221 { २७9१8 जनपदा ‰ यथाकामं ),
व्य. स. ए. २१५, वीर ° ए. 464 (अनिषिद्ध)
7166-7 वि. र. 221, अपराके 2. 165 प प्रा. मा. 7. 401 कष््मा6 ।
767 ४ बहति | ।
98-759 स्पतिच० 71. . 568, अपराकं ए. 165, वि. र. 2. ‰22 (26908 =
भान्यानि वापनीयानि ), परा. मा. 7. . 402, व्य. म. 1, 295, वीर त ५
काल्यायर्नरूधतिसषयोद्धारः `
लजाच्ल दुश्ाणां सेजयोष्येः
दुष्प च सामान्यं कछचे्रखामिषु निदिरोत् ॥७६०।
अन्यक्षेत्रे तु जातानां शाला यजास्यखंश्चिताः
इ्वाथिनं त विज्ानीयादस्य कषे सध्िताः ५७६१
अस्वास्यतुमतेनेव सस्कारं कुरुते तु यः
ग्रहोयानतखाकानां सस्कतां कमते न तु ॥७६२॥
ययं स्वामिनि चायाते न निवेद्य वपे यदि ।
जथाघेय परयु्छस्तु सदतं भते व्ययम् ॥७६३॥
भशाक्तितो न दद्या्चेत् खिखाथों यच्छतो व्ययः ।
तदण्भागदीनं तु कषकः फरुमाघ्रुयात् ५
` वर्षाण्यश्ठौ स भोका स्यात्परतः स्वामिने तु तत् ॥७६७॥
अशाक्तप्रेतनष्ेषु क्चेतिकेष्वनिवारितः ।
कषे चेद्विकृषेत्कथिदश्चुवीत स तत्फखम् ॥७६५॥
विङृष्यमाणे श्चे्े च कषे्नि कः पुनरावजेत् ।
रीरोपचार(खिरापफचारः) तत्स्व दसा क्षे्नमवाभ्रुयात्॥७६६॥
लदष्टभागापचयाद् यावत्सक्त गताः समाः ।
समाेष्टमे घें युक्तक्षेञ्े रभेत सः ॥७६७॥
| ( वाक्पारुष्यम् } |
.. इङ्ारः काखनं चेव रोके यच्च विगर्हितम् ।
अनुङुयादचन्रयाद् वाक्पारुष्यं तदुख्यते ॥७६८॥
स र
<
व थव य त त
160-761 अपराके 0. 766 (८6808 संस्थिताः 10" संश्चिताः 1" 00६ 110७8 )
स्एृतिच° 7. . 555, परा. मा.शाा. ए. 404, ति. र. ए. 228, व्य. स.
ए, 225, वीर > ए. 417 (४6६५8 यस्य क्षेष्रस्य)
762-768 अपराकं 7. {767 ( ८6०6 देयं स्वामिनि शत् कमते फलम् )
स्यृतिच० {11. ?. 558, वि.-र. 7, 925 ( ८668 देयं स्वामिनि ), परा
मा. 7. ए. 40, स. वि. ?. 340 ( ४98 00] 162 } |
764 अपराकं 2. 768 ( २७४०5 सेखर्थे च कतं व्ययं 9४१ क्षेकाठ्क० },
स्मृतिच 7171. 560, परा. मा. पा. ‰. 409, वि. चि. ए. 65, वीर० 7. _
| 470. स. वि. 7. 340. ` क
7656-6 स. वि. }. 340. परा. मा. (1. 02. 408-409) 8० स्पृतिष्ग् पा, =
| 2. 560 90४06 765-766 ४० नारद | ५
८ 768 अपराकं 1. 805, स्मृतिच° 771. ए. 18
निष्ठराश्छडितचित्वात्तदपि चिविधं स्तत्
आक्षेपो निष्ठुरं छेयम-शछीरं न्यङ्संकितम्
वतनीगेरुपाकोकलेस्तीवमाहु्मनीषिणः ।।७६९,
यस्वखत्संक्चितेरङ्ेः परमाक्षिपति काचित्
अभूततै्वाथ भूतेष निष्टुस वाकरण्ता बु षैः ॥७७०॥
न्यग्भावकरणं वाचा कोघाच्तु रुते यदा ।
चृ्तदेशङुकादीनामग्छीला सा बुधैः श्त ॥७७१५.
महापातकयोक्वी च रागद्रेषकसी च या ।
जतिश्चदाकरी वाथ तीवा सा प्रथिता तु वाक् ॥७७२॥
योऽगुणान्कीतेयेत्कोधालिशणे वा गुणन्ञताम् ।
अन्यसंज्ञाजुयोगी वा वाग्दुष्ठं तं नरं विदुः ॥७७३।॥
अदुष्टस्यैव यो दोषाल्कीतैयेदोषकारणाद् ।
अन्यापदेशवादी च वाग्दुष्टं तं नरं विदुः ॥७७४॥
मोहात् प्रमादात्सङ्कषात् प्रत्या चोक्तं मयेति यद् ।
नाहृमेवंःपुन्व॑क्षये दण्डार्धं तस्य कर्पयेत् ॥७७५॥ वि
यञ्च स्यात्पारेहारार्थं पतितस्तेन ( पतितस्वेन ? ) कीतैनम्। `
घयमात्तत न स्यात्तु दोषो यच्च विभावयेत् ॥७७६॥
अन्यथा तुस्यदोषः स्यान्मिथ्योक्तौ वृत्तमः स्तः ॥ ७७७ ॥
{69 अपराकं ए. 808
170-7728 अपरके 1. 805-806 (८6१५६ न्यङ्घवगूरणं 94 राजदवेष 9 †05 रागं
द्वेष ०), स्मृतिच” 111. एए. 12-18 (७8०8 अङ्कः 9 वुततर्दश °), परा. मा. `
11. ए. 429 ( २९४०8 परस्याक्षिपति, अमूङेवाथ मूरेवौ 800 वृततर्देश ° )
वि. ₹, ए. 248 ( ८९०08 न्यङ्गावगूरण वाचा ), वीर ० ‰. 482 |
7१४ वि. ₹. 0. 244 820 वीर० ए. 484 ( ८०४१8 अन्यसंन्ञानियोजी ) |
774 ति, र, 7. ‰45 ; स्छृतिच ° 111. 1. 760 &8611068 ४० नारद् (४ 18808 (८
दष्स्येव तु ) ५ |
(75 वि. र. ए. 246 ४०१ वि, चि. ए. 70 (४861096 ४० उशनस् &16 कात्यायन)
` स्मृतिच * 111. ए. 769 &०4 व्य. म. ए. 2४9 &861}05 ४० उशनस्
776 स्मत्तिच° . ‰. 760, वि. र. ए. 2६8, वीर ए. 484. `
(वि. 2. -268, ,. -.
ध्यं रावितं शाजा प्रयत्नेन विचारयेत्
अनतास्यानरीखानां जिह्वाच्छेदो विशोधनम् ५७७८।
( दण्डपाडष्यम् )
हेत्वादिभिने प्येश्वेदण्डपारुष्यकारणम् ।
तच्च स्ाश्षिक्ृतं चेव दिभ्यं वा विनियोजयेत् ५७७२.
आभीषणेन दण्डेन प्रहरेद्यस्तु मानवः
पूरवे चापीडितो वाथ स दण्डयः परिकीर्तितः ॥७८०॥
कर्णोष्टघ्राणपादाक्षिजिडाशिदनकरस्य चं!
डेदने चोत्तमो दण्डो भेदने मध्यमो शगुः ॥७८१॥
मयुष्याणां पद्ूनां च दुःखाय प्रहते सति ।
यथा यथा भवेद् दुःखं दण्डं कुयौत्तथा तथा ॥७८३॥
अस्पुदयधूतेदासानां स्टेच्छानां पापकारिणाम् ।
प्रतिखोमधसूतानां ताडनं नाथता दमः ॥७८३॥
छर्दिमूढपुरीषायैरापाद्यः स चतुशुणः।
षड्गुणः कायमध्ये स्यान्सूर्धिं व्वष्टगुणः स्स्रतः ॥७८५७॥
इद्ररणे तु हस्तस्य कायां इादशको दमः
स एव द्विगुणः भोक्तः पातनेषु स्वजातिषु ॥४८५॥
पि 1 1)
778 वि. र. 2. 958, वीर ° 2. 488 ( 188४ ४8४]! )
9 अपरा 2. 811, वि. र. 2. 974, वि. चि. ए. ११, वीर» }7. 481.82
780 अपराकं 2. 812, परा. मा, 771. ?. 412 ( २०४०७ अभीषणेन }, वि. र, ‰,
96, वि.चि. ९.7. ;
¶81 अपराके 7. 815 (८0 शपः ०४०6१ ; २6808 गुरः †07 भगः), स्मृतिच 9
पा. 2. 769, वि. र. ए. 965 (5०१8 श्राणनासाक्षि०), परा. मा. शा
. ( पादादिजिह्ठानासाकरस्य )› वि. चि. 2.74 व्य. भ. 1. 96, चीरं
ए. 414 क
782 पराः मा. 7. ए. 417, वीर° ए. 45 (२6४०8 यथा महचतरं दुःख)
788 अपराके }. 818, वि. र. 9. 275, वि. चि. 7. 78 | |
184 अपरके 1. 818, परा. मा. [ा.. 418 (6९08 यैः पादादो च), वि.रं
४ ए. 269, वि. चि. ए. 79, व्य, म. 7. 230, बीर० 7. 478 (व्यैः स्पेने च) `
। 185 वि. र. 2, 269 ( २९०8 सजत्तिषु } परा. मा. 7. ए: 414 वि. चि.
१8, बीर ° ए, 478
96 कात्यायनस्द्तिसायोद्धारः
वाक्पारुष्ये यथेवोक्ताः प्रातिरोभ्या
तथेव दण्डपारुष्ये पाल्या-दण्डा यथाक्रमम्
देेन्द्रियविनाले तं यथा दण्डं प्रकल्पयेत् ।
तथा तुष्टिकरं दें सश्चुत्थानं च पण्डितैः ॥
समत्थानव्ययं चासो दद्ादा्रणयेपणात् ५७८७
वाग्दण्डस्ताडनं चेव येषृक्तमपयधिदु
हृतं भ्रं प्रदाष्यास्ते रोध्यं निःस्वेस्वु कमणा ५७८८५
भ्रान्तांस्तृबातस्ध्रुधितानकाङे वाहयेन्नरः
खरगोमदिषेषठार्दन्धुयात्पृवेलाहसलम् ५७८९॥
द्विपणे द्वादशपणो वधे तु स्रगपद्चिणास् ।
सप॑माजोरनकुरभ्वस्यूकरवधे णाम् ॥७९०॥
गोकुमारीदेवपद्युशुश्चाणं वृषभं तथा ।
वाहयन् साहसं पूवं प्राुयाद्ुत्तमं वधः ॥७९१॥
प्रमापणे प्राणभृतां दद्यात्तखतिरूपकम् ।
तस्यानुरूपं मस्य वा दद्ादित्यव्र्बीन्मयुः ॥७९२॥
वनस्पतीनां सवेषासुपमोगो यथा यथा ।
तथा तथा दभः कार्यो हिसायातिति धारणा ॥७९३॥
शिष्यं कोधेन हस्यष्चेदाचार्यो खता विना!
` येनात्यथं भवेत्पीडा वादः स्याच्छिष्यतः पितुः ॥७९७॥
॥७८६॥
86 स्मूतिच° [1, 1. 762, परा. मा. (1. 2. 418, वि. र. ए. 269. सरवि.
` ‰. ५8], व्य. म. 2. 281, वीर० ए. 416. _
784 स्मृतिच० 11. 2. 765, अपराकं ]. 816, परा. मा. 1, 70. 419-420,
व्य. म्र, 2, १82, वीर ° 7}. 416-ए
{88 अपराकं ए. 816, वि. र, 0. 270
789 भपरारकं 1. 818, वि, र. }. 280
190 परा. मा. 7. ‰. 424 वि. र. 1. 279 ( 6808 त्रिपणो }, वीर
479 ( २५९०6 नङ्ुरुसूकर्ववधे ) |
191 वीरम ए. 49 ; परा. मा. 7. 2. 424 ( प्ड्यमक्षमं वृषभं ४०१ अधे ) `
98671068 ४0 मनु ॥ |
792 प्रा. मा. आ. 2. ५25, वि, र. . 98५ ( प्रतिसूपं ठु दापयेत् )
{98 वि. र . 284 ४
भसति. 2.५. ` ` 4
य
म
प9 स्परतिव° 17. 2. 729, परा. मा, 1, 458
801 स्वतिच० (1. 2. 130, व्व. म, 7. 280
| = 802-808 स्मृतिच० न. 1. 781, व्य. म. }. 241
। 804 स्मृति °. 0. (भु
| | 1
1
9?
सहसा यत्तं कथे तत्साहससुदाहतम् ॥७९५॥ ०.
सान्वयस्त्वपदहाये यः प्रश्वद्य दश्णं स थत् । (^ +
साहस च भवेदेवं स्तेयसुक्तं विनिद्धवः ५७९६॥
विना विहैस्वं यत्काय साहदा(ख्यं अवते
दापथेः स विशोध्यः स्यात्छर्ववदेेढ्वयं विधिः॥७९७॥
पकं चेद्रहवो इन्युः सर्याः पुषं नराः ।
म्मघातो ह यस्तेषां सं घातक इति स्मतः ॥७९.८॥
व्यापादनेन वत्कारी वथ चित्रमवाञ्चयात् ।
विनारदेतुमायान्तं दन्यादेवाविचार्यन् ॥७९९.॥
उद्यतानां तु पापानां हन्वुदांषो न विद्यते ।
निवृत्तास्तु यदारस्भाद् ग्रहणं न वघः स्सरतः ॥८००॥
आतताथिनि चोच्षटे दपःस्वाप्ययजन्मतः।
वधस्तच्र तु नैव ्यात्पे ईति वधेः सुगु; ॥८०१॥
उद्यतासिषिषाश्चिश्च चापोद्यतकरस्तथा ।
आथवेणेन हन्ता च पिद्धनश्यैव राजनि ॥८०२॥
भार्यातिक्रम कारः च रल्धान्वेवणतत्परः ।
एवमाद्यान्विजानीयात्सवोमेवातक्तायिनः ॥८०३।!
यश्षोवद्टहरान्पापानाडुधंमाथहारकान् ।
अनाक्षारितपू्ौ यश्त्वद अवतेते ॥
्राणद्रव्यापहारे च तं विधाद्ाततायिनम् ॥८०४॥
&
स ==
१965 प. षि. ए. 451
796 स्प्रतिच ° [[. . 788, वि. र. 7. 287 { ७१०8 सान्वयस्तु प्रहरो ),
वि. ए. 457 ( ८७४१5 विहवे )
798 स्मृतिच ° 1. ए. 728, परा. म, 1. 2. 454, वीर० ए. 501.
799 ति. र. ए. 871 ( ४७४ #धो? जर }, स्ृतिच० 1. ए. 797 (1४४४
४४] ००] ); ४6 ४० ॥91९68 876 87६8 0 ०१106606 रना868,
800 स्म्रतिच ° {171. ]. 729 त
98.
परा्ुयःस्लाहसं पुतं दव्यमःकस्वाम्युदाहतः ।८०७॥
हरेद्धिन्याद्हेद्यायि देशा तिमा यदि
तद्गृहं चेव यो भिन्यःव्वाञ्चुयात्पूवैसाहखम् ।८०८॥
प्राकारं भदयेद्य्ठु पातयेच्छातयेत्तथा ।
वभ्नीयादस्भसो माग प्रायुयात्पूवेसाहसम् ॥८०९॥
(स्तेयम्)
प्रच्छन्न वा प्रकार वा निशायामथवा दिवा,
यत्परदरव्यहसर्णं स्तेय तत्परिकीर्तितम् ॥८१०॥
अस्यहस्तात्परिखष्टमकामादुद्धतं भुवि ।
चोरेण वा परिषि छोष्ं यत्नात्प्ीश्चयेत् ॥८११॥
तुलखामानथतिमानपतिरूपककुश्चितैः ।
चरत्नरश्चितेवौपि पा्रुथत्पूवेलादखम् ॥८१२॥
गृहे तु पवितं राजा चौरम्रा्ास्व॒ दापयेत् ।
आरक्षकाश्च दिक्पालान्धदि चौरो न रभ्यते ॥८१३॥
805 स्पृतिव० 171. 7, 782
806 बिश्वङ्प ०० या. 71. 281
807 अपराकं }. 820, वि. र्. 7. 858, वि. चि. ए. 97-98
808 यप्राक ए. 892, स्टतिच० 771. 7. 767, वि.र₹, 7. 364, विं. चि, 7
| 801 ( ०९9०७ छिन्धात् {०४ भिन्वात् ), स. वि. }. 474
809 भि. र. 7. ४6
810 दायम् }. 224 |
811 अपरा ‰. 841, मिता० ०४ या. [. 268 ( 88०६068 ४० नारदं ), श्रि
॥ १. ए. 387, परा. मा. 1, ४. 497 (9६०४०९४ ४० नारद)
| कवि. 7. %9६बि. षि. १. 80 1 ४
र ५ ` 818-814 अपराके ?. 844 ( ५९४१७ अरक्षकान् ), वि, २. 848, 345 ( 6808
स्वदेरो यस्य यत्किचिद् शतं र्थं दवेम
यात्तत्स्वयं नष प्राक्तमन्विष्य पथिवः ॥८१५॥
चोरेहेतं प्रयत्नेन स्वरूपं पर्िरादयेत्
तदभावे तं पद्यं स्यादन्यथा किरट्विषी बुवः ५८१६॥
छन्धेपि चोरे यदि ठु मोषस्तस्साज्च छभ्यते ।
दद्ात्तमथवा चौरं दापये यथेष्टतः ॥८१७॥
तस्मिश्हाप्यमानानां भवेदोषे तु सशयः ।
मुषितः राप्थं दाघ्यो बन्धूभिवां विशोधयेत् ॥८१८५
यस्मादपहताट्वन्धं दव्यात्स्वसयं तु-स्वामिना ।
तच्छेषमाघ्रयातच्स्मास्पलयये स्वामिना ते ॥८१९॥
स्वदेशघातिनो ये स्युस्तथा मागेनिसेधकाः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा रे निवेशयेत् १८२०॥
अचोरादापितं द्रव्ये चौरान्वेषणतत्परेः।
उपलर्च्ये ख्मेरंस्ते द्वियणं तज दापयेत् ॥८२१॥
येन येन परदो् करोव्यज्खेन तस्करः!
छिन्यादङ्गं नृपस्तस्य न करोति यथा पुनः ५८२२॥
पुषे वारुके द्वे तु पञ्चाघ्नं पञ्चदाडिमम् ।
खज्रवदरादीनां मु गहन दुभ्यति ॥ ८८२ अ ॥
मानवाः खय एवाहुः सहोडानां वरवासनम् ।
(क
गोतमानामनिष्ट यत्पाण्युच्छेदाद्विगर्हितस् ॥८२३।॥
म्रामान्तेष 2.2 त्ववीतके ), बि. चि. ए . 9५-95 (68१8 ममान्ते ४० चौरो-
दला विवीतक्ष )
816-817 अपशकं 1. 844, वि. र, . 845 ( ८५१65 नरः {0 चपः ); वि, चि.
2. 98 ( 1४5 815-516 )
818-819 अपराक .844, वि. र. [0.845-5 46 (&8७] 868 ४67 ४० ब्द्धमनु)
820 अपराक् 1. 845, वि. र. . 817 ({ &86५् 88 # न (रद &ते काल्यायन )}
81 नि. र. ए. 388
822 अपशके ए. 845 ( ८6४१8 करोप्यक्षेम ), वि. २. ए. 329. वि. लि, }. 91
५ | | 892 ^. गृहस्थरत्नाकर (४4108 ४0 बृहस्पति 8०५ कात्यायन)
+ 828 वि. र₹्. ए. 882
छ
री, 10 स वा न क र [अ
य
100 कात्यायनस्स्रतिस
सहोढमखदोदं वा तत्वागमितसादसः
पगृह्याच्छिन्नमवे्च सरवस्वै्वधयोजयेत् ॥८२
अयःसन्दानगुप्तास्तु मन्दभक्ता बखाल्वि्ताः
कुः कमोणि नपततेखस्त्योरिति कौशिकः ` ॥८२५।
परदेश्ादधुतं दरव्यं वेदेध्येन यदा भवेत्
गृहीत्वा तस्य उड्न्यमदण्ड तं धिस्जंधेत् [८२६
चोराणां भक्तदा ये स्य॒रस्तथाग्न्युदकदययक्षः
कतारश्येव भाण्डानां प्रतिग्राहिण एवच ।
समदण्डाः स्ता छेते पे च प्रच्छादयन्ति तान्॥८२७॥
अविद्रान्याजको वा स्यात्पवक्छा चानवस्थितः ।
तावुभौ चोरदण्डेन विनीय स्थापयेत्पाथि॥८२८॥
` (खीसंग्रहणम् )
दृतोपचारयुकूशेदवेखास्थानसषस्यत्तिः ।
कण्ठकेराशअटनत्राहः कणेनासाकशराहिघ्ु ।
तकस्थानाखनाहायः स्रो नद्या स्मतः ॥८२२॥
ख्मीषु वुत्तोपभोगः स्यात्पसद्य युख्षो यद्
वधे तत्र पवेत काथातिक्रमणं हि तत् ॥८३०॥
कामात खोर्णी या तु खयमेव परकाययेत्।
राजादेरोन मोक्तव्या विख्याप्य जनसंनिधो ।८३९॥
824 अपराकं 849, वि. ₹. . 882 ( २७०05 संगृह्य चिहमवेय ...र्विनियोजयेत् ),
वि. चि. 2. 92८ 2७8९ सर्ैस्वेन व्रियोजयेत् )
826 अपराके ए. 849, वि. र्. ए. 889, वि. चि. . 92 ( ०४९8 मम्दभक्त-
. शणाचित्तः }.
826 अपराकं ए. 849, वि, २. ]. 888 ( "९दप स्वदेशेयः समाहेरेत् ).
थ परा. भा. (1. 7. ५46; वि. र. . 840, वि. घि, 98 ( २688
करतारवोरभाण्डानां 210 1188 188 ४0 19 1९68 001४); वीर. 1. 498
8%8 विश्वरूप ०" या. 111. 252 |
829 स्भृतिच० 71. 7. 11-18 | | ५
880 स्यतिच० [. 7. 142; व्य. म, 2. 244. ( 2०१8 कृतोषभोगः ); `
881 अपरा 7. 860
न
य
++) स्थतिसायेद्धरः ि 1
आरम्मङ्त्वदायश्च तथा बागनुदेरकः
दापदेराकश्चैव तद्धिनाशप्रदसैकः ।
उपेश्चाकाययुक्तञ्चं दाषदक्जसुशोदवकः ॥८२३॥
अनिषद्धाश्चमो यः स्यात्सर्वं तत्छनार्थक्ारिणः।
खथाराक्त्यचरूपं त॒ द॑ण्डमेषां प्रकल्पयेत् ॥८३७५
( स्रीपुधमः )
पत्या चाप्यवियोगेन्या शुश्रुष्योध्चर्विनीतया ।
सौभाग्यवदवैधव्यकास्यया भरठभकतया ॥८३२५॥
पतिदयुभरूषयैव खरी सवौन्कामान्समश्चुते ।
दिवः पुमरिहात्राता इुखानां रेवधिभवेत् ॥८२६॥
सते भतेरि या साध्की वह्मचयँ व्यवस्थिता '
साखन्यतीखमाचासय बद्मलोक द्यीयते ॥८३७॥
( दायविभागः )
सकर द्रव्यजातं यद्धागेगहणन्ति तत्समः !
पितसे आतर्श्चेव विभागो चस्य उच्यते ॥८३८॥
पैतामहं समानं स्यात्पितुः पुरस्य चोभयोः,
स्वयं चोपार्जिते पिणा न पुत्रः स्वास्यमदति ५८३९॥
पेतामहं च पिभ्य च यश्ान्यत्स्वयमार्जितम् ।
दायादानां विभागे हु सवेभेतद्धिभज्यते ॥८४०॥
4 ~
(1
|
॥।
६)
।
ध.
= ----------------------~----~---------------------~-------- ~~~
882-884 अपराकं . 821 ( ०कायंयुक्तस्य ), परा. मा. 1. 2. ५65
( 6908 धमोनुदेश्चष्ः, तदिनाशप्रवतकः, वक्ताजुमोदकः ); वि. र. ए. 875
( ८९९08 दोषवक्तानु° ), वरि. चि. ‰. 107 ( युक्च्योपदेशकग्चैव वथा नाश-
भवतेकः 86 द्ोषवन्तानु° ), स॒. वि, 2. 464 € ०४७ ४०७ 1०5 भनि-
षेध &८.), वीर ० ए. 501 (७०५३ दोषवक्ताुदेशकः 24 दोषवक्तानुमोदकः )$ `
स्डतिच० 1. 7. 728-724 86608 ४0 9४17006 88%-888 #
५ बृहुस्पति &१ ५४68 884 98 स्मुलन्तर
` 885-887 स्यरतिच० 17. 7. 589, 591, 596
888 स्मृतिच० 71. 1. 608, सष. वि. ए. 854, व्य. म. ‰. 98, वीर ० }. 571
| ( ८७४8 पितरौ ) ॥ |
। 899 समृतिच° 7. ए. 648 ४०१ 650 | ८
| ` 840 दायभाम ए. 105, स्मृरतिच० 17. 0.6955, पस.मा, 1, 0 5४6,
; भ. धि. ए. 367, वि. चि, 7. 184, वि. र. 496 |
(क
हश्यमानं विभज्यत गृहं क्षेत्रं चतुष्पदम् ।
गृढद्रभ्याभिशङ्कायां प्रययस्तश्न कीतिंतः ॥८४२॥
गृहोपस्करवाह्याञ्च दोद्याभरणकर्मिणः
इद्यमाना विभज्यन्ते कोहो गृदेनवौडधगुः ॥८४२॥
जीवद्विभागे ठ पिता नेकं पुं विशेषयेत् ।
निभौजयेन्न चैवैकनक ससःत्कारणं विना ॥<८७३॥
संप्राप्तव्यवहाराणां विभागश्च विधीयते ।
पुंसां च षोड्ये वषै जायते उयवहारिता ॥८४४॥
अप्राप्तव्यवदहाराणं च धने उ्ययविवाजंतम् ।
न्यसेयु्बन्धुमिनरेषु प्रोषित(नां तथेव च ॥८४५॥
मोषितस्य तु यो भागो रश्चेयुः सवे एव तम् ।
ाटपुतरे स॒ते रिकथं रक्षय तत्तन्तुवन्धुभिः(रक्षितव्यं तु बन्धुभिः?)
पौगण्डाः परतस्तं तु विभज्ञरन् यथांशतः ॥८८५॥ अ.
श्चात्रा पिदठव्यमादभ्यां कुटुम्बाथेध्रुणं कृतम् ।
विभागकाले देयं तदिक््थिभिः सवमेव तु १८४६)
तदृणं धनिने देयं नान्यथेव परद्एपयेत् ।
भाविते चेत्पमएणेन वियेधात्पश्तो यदा ॥८७७॥
धौ प्रीतिदत्ते च यदणे स्यान्नियोजितम् ।
तद् ह्यमानं विमजेन्न दानं पेतुकाद्धनात् ॥८४८॥
841 अपराकं 7. १28, स्पतिच० 111. 2. 645 ( 85४ ४६] ) #त }. 686
| ( 18167 09 ), वि, र. 0. 498 कः |
842 अपराकं ए. 728 ( ८७९०8 °कर्मेणः, दृश्यमानं विभाज्यं तु ), स्मृतिच० [7ा.
` ए. 688, परा. मा. 7. 2. 557, वि, र. 1. 498 |
849 वीर ० . 559, दायभाग 7; 56
844 पराकं 1. 1{%2 |
845 दायमाम् 1. 69, वीर० }. 587
846 & वि. ₹. . 599
846 अषरकं ‰. {22 हरदत्त ०0 आप. ध. सु. 11. 6. 14. 1. स्यति 11. ए. “
` 616, व्य. म. 2. 129 ख.वि.. 356, बि.र. 496. 0५५
847 अपरार्कं 2. 729, वि. र. 7. 497
848 स्दतिच० 77. 2. 617, जपराकं ?. 728 ५१ स. वि. ए. 56, विर ए |
497 ( २७४ स्वनियेजितम् )
म व
पिच्यणखद्याद्धमव्मीय चात्मना इतम् ।
रणमेवविधं रोध्यं विमागे वन्धुः सह ॥८४९॥
ऋणं प्रीतेषदान च दच्वा शेष विभाजयेत् ॥८५०॥
द्यं रहसेधेहरो वा पुत्रावित्ताजेनात्पिता । `
मातापि पितरि प्रेते पुच्रतुल्यांशभाभिनी ॥<८५९॥
यथा यथा विभागाक्चं घनं यागाथेतामियात् ।
तथा तथा विधातव्यं विद्धद्धिभ गगौरवम् ॥<८५२॥
खोके रिक्थविभागेपि न कश्ित्पथुताभियात् ।
ओग एव तं कतेव्यो न दानं न च विक्रयः ५॥८५३॥
विभक्ता अविभक्ता वा दायादाः स्थावरे समाः ।
पको हछनीशः सवत्र दानाघधमनविक्रये ५८५७
अविभक्त युज प्रेते तत्खतं रिक्थभागिनम् ।
कुर्वीत जीवनं येन कन्ध नैव पितामहात् ॥८५५॥
छुभेताह स पिच्य त॒ पितृष्यात्तस्य घा सुतात् ।
स एवां शस्तु सर्वेषां श्नात्रणां न्यायतो भवेत् \
ङभेतं तत्सुतो वापि निवृत्तिः परतो भवेत् ॥८५६॥ `
849 अपरा 7. 728, स्खतिच० 11. 1. 685 (णलः एषा ), परा. मा
ना. 2. 567 ( [द्यः एणा); वि, र. . 497 %1 व्य. म, 7. 189
(पित्यणसंबद्धम्)
850 प्रा, भा. [11. 7. 557, स्खतिच० 711. ए. 685, व्य. म. }. 222, बि. र,
7. 496 ( 29878 रिक्थ प्रीतिभ्रदत्तं तु दत्वा शेषं विभाजयेत् ) .जचनतुभौचु
तद्भ्राह्यं कमेणेव तु तस्सुतैः ) |
851 दायभाग 7. 49, मीर ° 7. 566
882 स्मृरतिच० 7711. 7. 618, परा. मा. [11. ए. 490
१ 883 स्पृष्ठिदण ॥88। [५ 646
8६4 मितार ०४ या. 1. 114 ( का ्०्पः 29006 ), अपराकं . 757, बीर°
7. 396, वि. चि. 7, .161 ( भा्ठप ०४6 ). दायभाग 1. 84
88611068 0 ग्याक्ष
` 85-856 अपर 7. 9, परा. मा. [ा. ए. 495-96, वीर ए. 5१8,
स. षि. {. 878, वि. चि. 0. 101; व्यम. 2. 101, वि. र. }. ५8६ ।
( ५७08 भते पुत्रे )
उत्पन्ने चौरे पुज चतुरथशष् राः सुताः ।
सवण असकवणोस्तु ग्रासलाच्छादनभाजनाः ॥८५७॥
कन्यकानां त्वदत्तानां चतुथ भाग इष्यते ।
पुत्राणां तु चयो भागः ख्यं त्वस्पधने स्घतम्॥८५८ ॥
क्षेभिकस्य मतेनापि फरमुत्पदये्त यः
तस्येद भागिनो तो तु न फलं हि विनैकतः ॥८५९॥
ङ्कीब विद्य पतितं या पुनरेमते पतिम्
तस्यां पौनर्भैवो जातो व्यक्तयुत्पादकस्य सः ॥८६०॥
न मूत्रं फेनिठं यस्य विष्ठा चाण्ड निमज्ञति
मेद्श्चोन्मादश्युक्राभ्यां दीनः कवः सं उच्यते ।८६१
अक्रमोहढास्ुतश्चैव सगा्राचयस्तु जायते ।
प्रचरञ्यावसितश्चैव न रिक्थं तेषु चाहंतति ॥८६२॥
अक्रमोढासुतस्त्वुक्थी सवणेश्च यदा पितुः ¦
मसवणप्रसूतश्च कमोढायां च यो भवेत् ।॥८६३॥
प्रतिरोमप्रसूता या तस्याः पुत्रो न रिक्थभाक् ।
प्रासाच्छादनमत्यन्तं देयं तद्रस्धुभिमेतम् ॥८६६॥
867 भिता० ०० या. [1{. 182, अपरकं 0. 788, परा. मा. (1, ए. 515, स. वि
ए. 898; वि. चि 2. 150 ( ५५४§ तृतीयां चह्राः ०४ °च्छादनमागिनः ),
बीर° 1. 615, दायमाग . 148 ( ५९९१6 तृततीयांशद्राः &५१ भागिनः
{ण भाजनाः }); मद. पा. ए. 658 |
858 दायभाग ए. 69, स्परृतिच० (71. ॥. 626, वीर० 1. 582, बि. र.
ए. 94
869-60 वीर ° 2. 604, 608, वि. र. 564 ( १४8 860 छण }. वि. र, .
$587 088 8 ₹6186 8001187 ६0 859, टौ 1४ 88610६8 0
नारद 8" काल्यायन. {४ 18प्षेतरिकाञुमते बीज यक्ष्य क्षेत्रे प्रजायते । तदपत्यं
तयोरेव बीजिक्षेलिकयोर्मैतम् ॥ |
861 दायमाग 7. 109. | न
862 हायमाग 108, अपरां 0. 750, स्पृतिच० [11, ए. 630, परा. मा. 7.
7. 546; व्य. म. . 168, वि, चि. 0. 188, वीर० }. 1198
वि. र. 7. 491 ध ¢
868-864 दायभाग 7. 108 (८७४१8 प्रति लामप्रसूतै यः ४० ग्राक्षाच्छादनमा्रं तु );
` व्य.म. 0. 164, वीर. 712; पि.र. ए. 4५91, वि.चि. ए. 184
( 198 868 ) 1
( अविमाञ्यानि)
त नष्ट खयमा्त च यद्भवेत् ।
एतत्सव . पिता पुतेर्घेभागे नैव द्;प्यते ॥८६३॥
परभक्तोपयोगेन विद्या पाक्तान्यतस्तु या
तया प्राक्च घनं यत्तु विचाप्रा्तं तदुच्यते ।८६७\
उपन्यस्ते तु यह्टन्धं विख्या पणपूचेकम् ।
विद्याधनं तु तद्धिदयाद्धिभागे न विभज्यते ॥८६८॥
शिष्याद्ात्विज्यतः प्रश्नात् सदिग्धभश्चनिर्ण॑यात् ।
स्वन्लानदसनद्वाद्दव्धं घ्राध्ययन।चच यत् ॥
विद्याघनं तु तत्धाहुर्विंभागे न विभज्यते ५ ८६९ ॥
रिद्पिष्वपि हि धमौयं मूल्यायच्च,धिकं भेत् ॥ ८७०
परे निरस्य यल्लब्धं विद्यातो दूतपूवेकम् ।
विद्याधनं तु तद्धिद्याच्न विभाज्यं बहस्पतिः ॥ ८७१ ॥
चिद्याप्रविज्ञया रन्धं रिष्यादात्त च यद्भवेत् ।
ऋत्विङ्न्यायिन यद्न्धमेतद्धियाघनं भृगुः ॥ ८७२ ॥
868 ष्छृतिच शा. 2. 6352, दायभाग ‰. 108 ( २०848 स्वपिश्यं तद्धनं )
बीर० [; 71 ( 26808 स्वपिन्यं तद्धनं पप्तं), वि. इ 2. 49}
| ( अषिध्यं तद्धनं }
866 भवराकै 7, 128, स्टतिच० 1. ४. 651, परा. मा. [. 2. 498
0 ( ०७8०8 हृतं द्र्य }
867 भिक्ठा* ०० यः. [. 118-119, पराक 0. 724, हृरद ०४ आप्. धृ. शु
1. 6, 14. 1. कुहक ०४ मनु 9. 206, स्यतिच० पा. . 689, परा. का
{. ‰. 659, मद. पा. 1. 685, =
866-810 दायभाग 7. 122-128 ( 15४05 शिस्पेष्वपि ), अपराकं ए. १४
| परा. घा. 1. 0. 559, वि, २. 509 ( 6६08 प्ररभक्त्रदानेन ४०५
शिस्पेष्वपि ) वि. वि. 7. 186, स. वि. ए. 868, इु्धूक ¢ मनु 9. 206
( ४४6 868-69 ), स्मृतिच ° व, {. 687
शा-69 अपराकं . १24, वि. र. 2. 502, स्दतिचन 1. 2, 6894, परा. मा,
प्रा, 2. 559 ( २७०8 दिघातेष्धुतपूक्छम् ४४ 1४8 गणो श), ८
व्य भ. [, 126, दायभाग }. 128 (४४8 871 मम). न्पराः मान
सृति ° ४०4 व्य, म, 26०१ 8170 #४61 82
14 ।
विदयावररूतं चेव याज्यतः िष्यतस्तथा ।
एत द्वियाधनं धाहुः सासःन्यं यद्तोन्यथा \ ८७३
कुरे विनीतविद्यानां म्रावृष्पं पितृतोपि वा
रोर्यपरात्त तु यद्धितं विमःञ्थं तदुधदस्श्तिः ॥ ८७४ ॥
नाविद्ानां तु वयन दें किखाधयःत्कचित्
समावेद्य.धिकार्ना तु देयं वैचेन तद्धनम् ॥ ८७५ ॥
आरद्य संशयं यच्च प्रसम कमै वेते,
तसिमिन्कमेणि तुष्टेन भरलादः स्वामिना कतः ॥
तत्र छन्धं तु यत्किञ्चित् धनं शो्य॑ण तद्भवेत् ॥८७६॥
शोयैधाक्षं विद्यया च स्त्रीधन चैव यरस्मृतम् ¦
एतत्सर्वं विभागे तु विभास्य नेव रिकरिथभिः ।॥८७७॥
ध्वजाहतं भवेद्यत्तु विभाल्य नैव तत्स्रतम्।
सभश्रामादाहतं यन्त॒ विद्राव्य द्विषतां वरम् ।
स्वाम्यथं जीवितं व्यक्त्वा तद्ध्वजाहतमुच्यते॥८७८॥
यलुग्धं दानकाडे ठ स्वजात्या कन्यया सह ।
कल्यागतं तु तद्वित्तं शुद्ध वृद्धिकरं स्थतम् ॥ ८७९ ॥ `
वैवाहिकं तु तद्धियाद्धायेया यत्सहागतम् ।
धनमेवविध सर्वं विज्ञेयं धमसाधकम् ॥ ८८० ॥
878 अपरा 2. 724 ( ८९४५5 विद्योपणङ्त्वेव ), स्पृतिच° (7. ए. 6
परा. सा. [1. 2. 559, वि. २. ए. 502 ( ६९४५5 त्रिद्यापणकृतं चेव )
874 स्थरतिच० 711. ए. 638-59, परा. मा. 111. ©. 560, व्य. म. 2, 126,
ध तरि. चि. ए. 186
876 अपरके 0. १25, सख्तिच० 111, ]. 639, दायभाग . 108, व्य, भ, 0. `
126, वि. चि. ए, 186, पि. र. 0. 500, हरदत्त ०० अप. ध. षू
7. 6.14.1.
876 अपरा 0. 725, स्दतिच ° {71. 0. 689-40, दायभाग ए. 126, ब्य. म.
2. 127; वि. चि. ‰. 187 (५
ध्न परा. मा, 17. ए, 561. ध ५)
878 अपराके ए. 125, दायभागं ए. 126, स्खतिचः 7. 9. 640, परा, मा.
रा. ए. 561, व्य. म. ‰. 12, वि. चि. }. 18 | |
879-880 अपरक ए. 128-724 ( 16965 काभकाठे 07" दानक &7 बृतै-
करं 10" वृद्धिकरं ), स्पृतिच° [{. ए. 640-641, वि. चि. ». 187, `
भ्य, म. 1. 128 ( 16०८5 रप्रकङ़ ) | 1
1
धृतं बल्रमखकासे नाखुूप तु यद्धवेत् ।
यथा काटेपयोग्यानि तया योस्यानि बन्धुभिः॥<८८३॥
गेप्रचारश् रक्षा च क यल्यःङ्कयेःजितम् ।
प्रयोज्य न विभज्यत घएथ च वृहस्पतिः ॥ ८८७ ॥
देरास्य जातः सङ्गस्य ध्मा घास्य यो भुपुः।
उदितः स्यात् स तेरेव दायभागं परकस्पेयत् ॥८८४ अ
* ( प्रच्छादितसिथस्य पुनविभागः )
प्रच्छादितं यदि धनं पुनरासाद्य तत्समम् ।
भजरन्भ्रादभिः साथमभावे हि पितुः सताः ॥ ८८५ ॥
अन्येन्यापहतं द्यं दुविभक्तं च यद्धवत् ।
पश्चातपाप्तं विभज्येत सममागेन तद्मृगुः ॥ ८८६ ॥
विभक्तेनेव यत्प्राप्तं धनं तस्येव तद्भवेत् ।
हृतं नष्ट च यट्न्धं प्रागुक्तं च पुनभंजत् ॥ ८८७ ॥
बन्धुनापहतं दव्य बखान्नेव धदापयेत् ।
श्रनामाविभक्तानां भागे नेव प्रदापयेत् ॥ ८८८ ॥
881 अपराकं ए. 751 (जा #190प४ 806), स्खतिच ० 11. 7. 641.
889-884 अपराक ए. 725-726 ( ७०१ दारा {0 दास ), ब्य, भम. 9.
181 ( ४88 882-888 ), दायभाग ४४8 884 8 २७०३ रथ्या {0
रक्षा, प्रायेज्यं {० प्रयोज्यं ०१ रिल्षाथ ० धमसाथम्, वि. ₹. ए. 504
505 ( दारश्च {५८ दाप्तश्व ४४१ शिल्पाथ )
884८4 वि. र. ?. 508 | | |
885 -887 अपराक्र 79. 782-7353 ( ॥98 885, 9७४ ॥8] ° 886 ६०)
19067 १ 2 887), स्खनतिच० [11.ए४. 714-715 (४8 9] ४११66)
दायभागं 0. 221 { ॥४ऽ 885-8856 ४५१ 6४१६ प्रच्छादितं छु यदेनं पुन
रागलय त अभविेपरि हि तत्सुताः ), भि. चि. . 182 ( ॥४8 885-886 `
४20 १688 93 दायभाग ५०58 ), स. त्रि. ए. 488-459 { ॥४३ भा =
४९6 ), वि. र. 7. 526
| 888 दायमाग ए. ४, वि. चि. ए. 144 (क्तः ४61६) , वीर ए. ए, = `
बि, र, [. 526
कास्यायनस्यृतिसायेद्धारः
( बोः फलादि साधारणक्षत्रविभागः }
कषितं साधारणं स्यक्त्वा योन्यदेद समाथित
वद्ध॑द्यस्यागतस्थांश्ः थद्ातव्यो न सदयः ॥ ८८९ ॥
ततीयः पञ्चमे वापि सततमश्चापि यो भवेत् ।
ज्न्मनामपरिज्ञानि कमेतं क प्ागतम् ॥ ८९० ॥
थं परंपरया मोटा सामन्ताः स्वामिनं विडुः।
तदन्वयस्यागतस्थ दातन्या भोत्जेमेदही ॥ ८९१ ॥
विम॑क्ताः पि्तविताचिदकतर पतिवासिनः।
विभजेथुः पुनद्वर्थदी स छमेतोदयेः यतः ॥ ८९२ ॥
| ( विभक्तविहादि )
घसेयुरदैरा वषौणि परथग्धमौः एथक्क्रियाः ।
्ातरस्तेपि विज्ञेया विभक्ताः पैतकाडनात्॥॥ ८९३ ॥
( ख्ीधनलक्षणं चल्रीघनप्रकारश )
अध्यरन्यष्यावाहनिकं दत्तं च पतितः सिये
आ्तभावपितु प्राप्त षड्विधं लधन ईवत् ५८९७)
विवाहकाटे यत्छीभ्ये दीयते हथिसंनिधौ ।
तदध्यश्चिकृते सदधि: खयन परिकीर्तितम् ॥ ८९५॥
यत्पुनरभते नारी नीषमाता पिनुहात्।
भध्या्वहनिक चेव स्मीधनं तडदहतम् ॥ ८९६ ॥
889 -891 प्रि. धि... 152, व्य. म. ए. 101-102 (४०8 889, एष =
8688108 20 78116 810 २684३ गत्र साधारणं अप् 8861068 890 ४0 बहै- =
क्पति ) ; स्यरतिचण (1. 7. 719.718 980७8 9] 6 ४ `
दस्पति. ५. ८
899 दायमाग ए, 110 ५ = | ।
898 भूपराके %. 757 (16805 वेयु दशाब्दानि ४५१ विभक्ता जतरस्ते च विहय `
| पैतृके थे), स्पृतिच० 771. 9. 719, स वि. 9. 448 .
-894 दायभाग ए. 72 (४७०) 068 ४० सतु ४णत काद्यायन ) जवि. र. ए. #22 &०१ = `
` घि. चि. ४. 188 ( ४180 49 60}. 0
895-891 भिता. ०४ या. 11. 148, अपराक ए. 751 { ५७७७ पाद्कन्दनिकं तत्तु
लवण्याजितमुच्यते ), स्परतिच° 1. 2. 881, पर. मा. पा. ४. 54,
कुटकं ०४ मनु. 9. 194 ( १४ 895-896 ००१ ८७०९8 नीर्वै्नि ठै =
वैतृकात् )वि. र. ए. 524 8१ वि, चि. ए, 188 (८०४९8 यङविण्यार्नित `
ल = य
द
त्या दत्तं तु यत्कचित् श्वश्वा वा इवरुरेण वा
फादवेन्दनिकः चेव प्रीतिदत्तं तदुच्यते ॥ ८९७ ॥
गहोपस्करवाह्यानां दोद्याभरणकमिमाम् ।
मूय्यं खञ्च तु यत्किचिच्छुदकं तत्परिकीर्वितम्॥८२८१
विवाहात्परतो यन्तु र्यं भवैकुखरिल्िया
अन्वाधेयं तदुक्तं तु रुब्धे बन्धुकुलात्तथा ॥ ८९९. ॥
उध्वं कन्ध तु य्किचित् सस्कारात् प्रीतितः स्खिया ;
भवैः पिजेः सकादयाद्धा अन्वाधेयं तु तद्भगुः ॥ ९०० ॥
ढया कन्यया वापि भवैः पिदगदेऽपि चा
भ्रातुः सकाश्ालिन्नोवो लब्धं सोदाधिकं स्मुतम् ॥९.०१
( खछ्रीधने स्वाम्यादेकिवारः )
पिच्तमातरपतिशथ्ावुातिभिः स्रीधनं सिये
यथाराक्त्या दिसाहखाद्ातध्यं श्थावसादहते ॥ ९.०२ ॥
यत्तु सोपाधिकं दत्तं यञ्च योगवरेन वा ।
पिशा भ्नाजाथवा पत्या न तरल्लीधनसि्यते ॥ २०३ ॥
0
मुच्येत »४१ नीयमन हिं पैतृकात् ), मद. पा. ४. 671 दाय माग ए. 78
( 1४8 895-96 ४४१ 16848 नीयमाना हिं पैतृकात् )
898 दायभाग ‰. 98, अपराकं ए. १5२, स्यतिच० 111. ए. 652, व्य. म.
188, वीर ० ? 690; वि. र. ए. 525, सद्. पा. ए. 671
899-900 इायमाग 7. 71 ({ 88 0४१ ), वि. २. ए. 524 ( ४४ड 0६ 8०4
२७808 स्वकुरात्तथा); पय. षा. 111. . 5485 195 899 फत् पहकषदेऽ
कन्ध पितृकुङत्तथा, व्र. म. 7. 153 ४०१ वि. चि. 2. 189 ४6 899
छण ४१ ८58 यज्न्धं स्वकुरात्तथा, भिता० ० या 1. > 144 ख, =
वि. ४0.880 (४८७ 899 ४0 ऊन्धं पितृ कुकात्तथा), वीर ° .690 ॥#8 899
&०१ २6848 ४ऽ व्य्.म. १०5५8. अपराक् .752 ४०५ स्पते ° 11. 2.65.
८88 ०6 ए०8७ ४8 विवाहाः. ..खिया । सतः पित्रोः सकशाद्रा अन्वाधेयं तु
तद्भयु
901 मिता० ० या. ¶. 148, वीर० ४. 690, व्य. स. 158, प्रा. मा. या. 2
549, अपराकई 7. 751. दायमाग ए. 76 ८९०१ भः सकाशात्.
90 स्यृतिच ० [71. 7. 652, परा. मा. 711. ए. 548, व्य. म. ए. 364
ध ` 9 यतिच 111 ?. 658, परा. मा. 17. ए. 549, एष्य, म. एए. कठ्छकीर = |
सोऽ इर
प्रापतं रिव्वेस्तु यद्धितं भीत्या चेव यद्न्यतः |
भवैः स्वाम्यं तदा तञ देष तु खीधर्ग स्परत् ॥९
सीदाधेकं धनं प्राय सीणां श्वःतन्ञयिष्यं वि ।
यस्मात्तदानृदस्याथं तेदे्तद्पजःवनप् ॥
सोदाधेके सदा सीणां स्वातन्ब्यं पटिद्ध
विक्रये चेव दाने च थधेधं स्यःश्ररेष्बःि } ९०६ \
भतेदाय स॒ते पत्यो विन्थक्धत्छ्ी यथेष्व
विद्यमाने तु सरश्चेत् क्षये ्तत्छद्न्यथः ॥ ९०७ ॥
अथ चेत्स द्विमायेः स्यान्न च तां मजे पुनः ।
प्रीया निसष्टमपि चत्पतिद्ाप्यः ख तद्रखात् ॥ ९०८ ॥
ग्रासाच्छादनवाखनामाच्डेदो यञ्च योपितः।
स स्वमाददीतं खी विभागं रिकिन्धना तथा ॥ २०२॥
िखितस्पेति धर्मोय पराप्त मदु वक्तित् ।
व्याधिता परेतकाले तु गच्छेद्रन्धज्न ततः ॥ ९१० ॥
न भती नैव च सुतोन पिताश्रात्येनच)
आदाने वा विसये वा सीने प्रभविष्णवः ॥ ९११ ॥
यदि छेकतरोष्येषां खीधने भक्येद्रसात् ।
सबृद्धिकं प्रदाष्यः स्यादण्डं चैव समाभरुयात्।। ९१२॥
जयानि तात् पान कजमर०१७।
904 स्द्तिच ० 111. ए. 554, परा, मा. रा. ए. 550, भ्यं. त. ए. 154, कीर°
0. 689, दायसाग . 76 १
905 सपराकं ए. 758, स्प्रतिच ० (1. 9, 654, परा. भा. (आ. 7. 549, वि.
चि. ए. 189 ( २९०१8 दत्तं तल्मजौवनं ), वीर० 1. 691, दायभाग
76 ( "७४8 तेद॑त्ततत्परजीवनम् ) ५
906-907 स्मृतिच ° 111. . 655 (०४४); अपराक् 1. 752 (४४8 ०४] 906).
दायमाग ए. 76 ‰०१ 78. चि, 9. 189 -140 (188 00४} वीर ° 0.
691 8० व्य. स. 2. 155 ( 87७ ०] 906 ), वि. र. ए). 510
041. ^
908-909 अपराकं 1. 755 (०७५१३ अद्धीत), दायभाग 1.78 (८९०8 विवृष्टमपि),
` स्म्रतिच० आ. ए. 658, बीर ०.692.वि. र. 2. 514. |
910 भपराकं 2. 755 ( प्रप्णएा ०्ण) वरि. चि. 2. 141, वि. र. 7. 514
१ ( 088 1016 ₹€7:86 ) |
911-915 दायभाग 7. 18 8 अपराकं 1. 764 (164 मूखमव ४० यदासौ),
स्पृतिच ° 111. }. 666, म्य. मा. 1. 286 (४98 911-919), व्यम. ए.
क
धद्यसुल्ान्य् नदर तददक्म् ।
मूर्यमेव प्रदाप्यः स्यस्दश्च गे चनवान्भवेत् ॥ ९१३ ॥
हयाप्थितं व्यसनःथं च धनि वौपपीडितम् ।
ठात्व निस यट द्यादात्यड्छया व खः।९१७॥
जीदन्त्याः पतिवुषास्चु देदसः पिद्वास्धकाः।
अनीलाः दथीःथव्य ख दण्ड-ास्त्वपद्टरन्ति ये ॥९.१५
मत्री प्रतिशतं देधश्रणवत्स्यीवनं छुततैः ।
तिष्ठद्वैकटे थात न सा पिचु वसत् ॥९१६।
| ' खता; शखिया यनाधिकारिणः )
भभिन्यो बान्धवैः साधं विमजेरन्भवैकाः।
सख्ीधघनस्येति घचमयं चिभागस्तु प्रकदिपतंः ॥ ९९.७॥
दुहितृणाममाबे तु रिक्थं पुरेषु तद्धयेत् ।
वन्घुदस्तं तु चन्धरनामभवे मतुगानि तत् ॥ ९१८ ॥
पितृभ्यां चेव यदृद्ं दुहितुः स्थावरं चनम्
अप्रजायामर्वाता्खा ख्रातुमाभि तु सवेदा ॥ ९१९ ॥
आडसदिषु यह्कभ्धं खलीघनं पेतुकं खिया ।
अभवे तद्पत्यानां मातःपिषेस्तदिष्यते ॥ ९९० ॥
ता
155-56, वीर० ?. 692, उ. पि. ए. 880 ( ४७ 012-918 }, वि. र.
हि ए. 518
914 भपरके ए. 756, स्पृरतिचः 11. ?. 658, वि. चि. }. 141; बि. र.
20.518. |
915 अपर के 2. 752 | ५
916 स्पूतिच° 0.111. 659 ( 8८5६ एन ण्णु ); वि. चि. 0. 142, वि. र,
0. 514 { के जतु मया पितर). |
917 अपरके . 721, स्मुतिचः (1. 8. 66 9०१ 667, वि. वि. ए. 148
बीर° 9. 695 ( 8५5४ 081१ ), वि. र. ए. 518 | |
^, 918 अपराकं ए. 721 ४०१ 753, वि. चि. ए. 148, स्दृतिच ° आ. ‰. 664,
वीर् ° 0. 697 ( ४५६ ध78६ ध] जण पत् २6४06 पुत्रस्य ); बि. द,
६ 818, दायभागं , 95 ({ 19१६6? 9 ०४ ) | ॥
919 दायभाग ॥. 92 ( ०8८६1४58 ४ बृद्धकालयायन ), वीर ° ४. 1704 ( ८७९०७ (५
, भतीतायामग्रजि )} = त
90 द्यृतिच° (7. ए. 665, परा. मा. 77. 7. 554
( अपुव्रधने पल्यादयो धनाधिकारिणः )
अपुत्रा रायन जवैः फाटयन्ती गुरो स्थिता |
भुञ्ीतामरणारक्षान्ता दायादा ऊष्वमाश्चुयुः ।, ९२९ ॥
स्वयोते स्वामिनि स्न तु भाखाच्छादनभागिनी ।
अविभक्ते चतां तु चाभोत्यामस्णान्तिकम् ॥ ९२२ ॥
भोक्त॒मदेति छत्राय गुखुडयुश्रूषणे र्ता ।
न कुयौदयदि दुश्चूषां चैखपिण्डे नियोजयेत् ॥ ९२२ ४
मृते भतेरि म्र कमेत कुरूपाष्िका ।
यावर्जःच न हि स्वाम्यं दानाधमनविक्रये ॥९२७॥ `
घ्रतोपवासनिरता बह्मस्यं व्यवस्थिता ।
दृमदानरता नियम पुजापि दिवे बजेत् ॥ ९२५ ॥
पत्नी मतैथेनहयी या स्यादृव्यभिचारिणी ।
तद्भावे तु दुहिता यद्यनृढा मवेत्तदा ॥ ९२६॥
अपु्नस्याथ कुरुजा पत्नी दुहितरोपि वा
तद्भावे पिता माता भ्राता पुत्राश्च कीर्तिताः ५९२७१ `
विभक्ते सस्थिते द्यं पुजामवे पिता हरेत् ।
भ्राता वा जननी वाथ माता वा तत्पितुः कमाल् ॥
अपचारक्षियायुकता निरैज्ञा वाथनाशिका ॥ ९२८ ॥
` 921 दायक्षाण 2. 171, स्पतिचन 11. ४. 67, स.वि. ?. 410, वि. नि.
ए. 140, वीर° ‰. 677 |
` . 929-923 स््रतिच० (1. 0. 678-679, स. घि. ए. 4+10-411 ( ८७४8 =
अबिभक्तधनांशं ), व्य. म. ए. 189-140 (२७४8 चेलं पिण्ड), कीर ए.
654-655 ( ५०४५8 धनि तु ) |
92४-925 भ्य. म. 198, बीर ° . 626
५ २ 926 मित।० ०० या. 11. 135, स्दतिच° (क. ए. 686 ( ८०१4७ यंथनृढ प्र
तिष्ठता); मद. पा. 0. 672, परया. मा. [. 2. 524, व्य. म. फ. 1५,
स. वि: 0. ५12 वीर्° 2. 681. 0
997 मिता ० या. 11. 185 ( २०००8 अपुत्रस्याथेकुकजा ), स्ट्सिच्च° ए. ?.
898, षरा. मा. प्रा. 9. 526, व्य. म. ए. 141 ( अपुत्रस्यास्व ) |
ध 4 928 भिता ०४ या. 11. 185, अपराकं ए. 745. स्प्ृतिच° 7. 2. 690, षरा. /
भा, (ए. 2. 589, बि. च. 2. 154, बीर ° 2. 688
कात्यायनस्पुतिक्तासोद्धारः | 48
व्यभिचाररतायाच स्री धनेलान चाति ॥९२९॥ (0
नारी खस्वनुक्ञाता पित्रा भन्न सतेन बा । 4
विफङं वद्धबेक्तस्या यत्क सेव्यो ध्वैदेहिकम् ॥ ९३० ॥ 4.
अदायिकं राजगामि योषिद् मूत्योष्वैदेष्दिकम् ।
अपास्य धोभियद्रव्यं श्नोधियेभ्यस्तदर्षैवेत् ॥ ९३९१ ॥
संखष्टानां तु संखा; परथकस्थानां पुथकिस्थताः।
अभावेऽथदहरा ज्ञेया निबींजान्योन्यभागिनः ॥ ९.३२
( य॒तस्तमाहयां )
द्यतं नेवं तु सेवेत कोघलोमविवधेकम् |
असाधुजनन कूर नराणा द्रव्यनारानस् ॥ ९३३॥
धवं द॒तात्कलियेस्मादिष सपेयुखादिव ।
तरमाद्राजः निवतंत विषये व्यसनं हि तत् ॥ ९३४ ॥
चतेंत चेत्पकाशं तु द्ासवस्थिततोरणम्।
असंमोहा्थमायांणां कासर्येत्तत्करप्रदम् ॥ ९३५ ॥
सभिकः कारयेद् दतं देयं द्ात्स्वयं खपे ।
द्दाकं तु शते चद्धि गृह्णीयाच्च पराजयात् ॥ ९२६ ॥
जतदैथात्स्वक दध्यं जिताद्याद्यं त्रिपश्चकम् ।
खद्यो बा सभिक्तेनैव कितावानत्तु न संशयः ।। ९३७ ।
५१० मेधातिथि ० मन॒. 8. 28 (४5 स्मत्यन्तर), विं. चि. ए. 141, 274 व्य, म
1, 140 पत बीर्° १. 659 (76व्वं अपकार्०) परा. मा 111. 7 582
, 950 व्य. म. ए.. 113
981 परा. सा. 1. 2. 535, व्य. म. ए. 139
982 वि. चि. ‰. 160, वि. र. . 605 (०8 अभर्विदहय)
988-34 वि. चि. . 166; वि. र. ४. 611
985 वि. र. ४. 6131
936 अपरा्फ ए. 808 (२७०8 दरक ठु दातं), स्मतिच ° 777. ए. 769 (भ्ल
ध 1216 001). वि. र. 7. 612 (6845 तु शतं ...पराजये) |
937 अपराकं ४. 803 (688 जितंग्राह्म चिपक्षिकम् ), स्मृतिच ० 771. ए. 769,
विर. 2. 612 (२०६ व्रिपक्षकं 20 कितवादनसंशये), वीर० 2. 719.
(68 जितै... पक्षिकँ 270 वा करितवेनेव समिकात्त्), परा. मा. 7. ए
375 (८6208 28 अपराकं 0068) | ९
15
114 कात्यायनस्मतिसखासेद्धारः
पकरूपा द्विरूपा वा युते यस्याक्चदेविनः।
खदयते च जयस्तस्य यस्मिन् रक्षा व्यवार्थता ॥९३८॥
अथवा कितवो राज्ञ द्स्वा भाग यथोदितम् ।
प्रकारं देवनं ङथौदेवं दोषो नं विद्यते । ९३९ ॥
प्रसद्य दापयेदेथं तस्मिस्स्याने न चान्यथा ।
जितं वे खभिकरस्तच्र सधि परद्यया क्रिथा ॥ ९४० ॥
अनभिक्ञो जितो मोच्योऽग्रोच्योभिक्षो जितो रहः ।
सवैस्वे विजितेऽभिज्ञे न सर्वस्वं पदापयेत् । ९४१ ॥
विध्रदेथ जये छामे करणे कर्देविनाम् ।
प्प्राणं साभक्रस्तव्र इुचिश्च सभिको यदि ॥ ९७२ ॥
स्लेच्छन्बपाकधृूतानां कितवानां तपस्विनाम् ।
तच्छृताचारमेतृणां निश्चयो न तु राजनि ॥ ९४३ ॥
| ( प्रकीणकम् )
पूवाक्तादुक्तशेषं स्यादधिकारच्युतं च यत् ।
आहत्य परतन्त्रा थेनिबद्धमसमञ्जसम् ॥ ९५०४ ॥
इश्टान्तत्वेन शाख्ान्त धुनर्क्तक्रियास्थितम् ।
अमेन विधिना यच्च वाक्यं तस्यात्पकी्णैक्रम् ॥९४५॥
साजघमरस्वधयमश्च सं दिग्धानां च भाषणम् |
पर्षोक्तादुक्तरोषं च सवं तर्स्यात्प शीणेकम् । ९.४६ ॥
सद्धागकरश्ुस्कं च गतं देयं तथेव च ।
संन्नामयोरभेद्। च(दशः) परद्ाराभिपदेनम् ॥९४७
गोब्राह्यणनिधांसा च रास्यव्याघातक्ृत्तथा ।
एताद्दशपरधास्तु चूपतिः स्वय प्रल्विषेतत् ॥ ९७८ ॥
निष्डतीनामकरणमाज्ञासेयन्यतिक्रभः ।
बणोश्चरमति ठोपश्च प्रणेखङ्करलोपन च ॥ ९५९ ॥
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का(व्यायनस्यतिसारोद्धारः 11;
निधिनिष्फरूविन्त खं दरिद्रस्य धनागमः ।
एताश्चारे; सविदिताच् स्गयं यजा निवारयेत् ९५०।
अनाम्नातानि कायांणि क्रियावादांश्च वादिनाम् ।
प्रकतीनां अकोपश्च सङ्कतश्च परस्परम् |! ९५१ ॥
अद्याखविदिते यच्च प्रजायां सग्रवतेते । | 1;
उपायैः सामभेद्ाद्यरेतानि चमयेदपः ॥ ९५२ ॥ (4
घु प्रयुञ्जीत वाग्दण्डं धिक् तपरस्विनि। ५
यथाक्तं तस्य तन्कयादन्रुक्त साथु कट्पतम् ॥ ९५३ ।
प्राणन तु कूटेन मुद्रया वापि कूखया
कायं तु साध्येद्यो वैस दाप्यो दमञुत्तमम् || ९५७॥
राजक्रीडासुये खता राजन्रच्थुपजीविनः
अधियस्य च यो वक्ता वध तेषां प्रवतेयेत् ॥ ९५५ ॥
प्रतिरूपस्य कतारः वक्षाः घरकरश्च ये |
राजाथमोाषकाच्चव प्राप्युयुःवावेध वधम् ॥ ९५६ ॥
प्रतरञ्यावसितं शुद्र जपदहोमपर तथा|
वथेन शाखयेत्पापं दण्ड्यो वा दिगुण दमम् ॥९५७)
सचिहमपि पापं तु पृच्डेत्पापस्य कारणम्|.
तदा दण्ड प्रकस्पेत दोषमासेप्य यत्नतः ॥ ९५८ ॥
` सद्वृत्तानां ठ सवेषामपराघो यदा भवेत् । `
अवरोनव देवान्तं तत्र दण्ड न कल्पयेत् ॥ २५९ ॥
सम्बग्दण्डग्रगेतासो च्रुपाः पज्या; खुरेरपि
आरम्भे पथमं ददाद्पच्चौी भभ्यमः स्मतः॥
यस्य यो चिदिते दण्डः प्योप्तस्य स वे भवेत् ॥९६०॥
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वि, र. 9. 388, वि. चि. 2. 103, वीर० ए. 724
956 वि. चि. ४ 103 |
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116 क्ात्थायनस्यतिस्तासेद्धारः
राजानो मन्ञिणश्चैव विरषादेवमप्युयु
अकश्षासनाच्च पापाना नतानां दण्डघयारणात् ।। ९2९ ।।
परतन्श्राश्च ये केचिद्ासत्व ये च सस्थितः
अनाथास्ते तु निर्दिष्टास्तषां दण्डस्तु ताडनम् ॥९.६२
ताडनं बन्धनं चेच तथेव च विडम्बनम्
पष दण्डा हि दाखस्य नाथदण्डो विधीयते ॥ ९६३
सुवणेशतमेकं तु वधाद दण्डमहेति
अङ्कच्छेद तदर्धं तु विवासे पएश्चविशतिम् ।। ९६8
कुखीनायेविशिष्टेषु निङ्कटरेष्वनुसारतः ।
सवसव वा निषत्येतान् पुराच्छीघं पवा क्लयेत् ।९६५
निधना बन्थने स्थ्या वधं नैव प्रवतंयेत् ।
सवबा पापयुक्ताना विरेषाथश्च शाख्रतः॥ र्दद |
वधाङ्गच्छेदाहंविप्रो निःसङ्गे बन्धने विशेत् ।
तदकमेवियुक्तोसो चत्तस्तस्य दमे हि सः |! ९६७ ॥
कूटसाक्ष्यपि निवास्य विख्याप्य(ऽसत्पतिध्रटी ।
अङ्गच्छेद्ौ वियोञ्यः स्यात् स्वधम बन्वनेन तु11९६<८।]
पतेः समापराघानां तत्राप्येवं प्रकस्पयेत्।
बाङब्द्धातुरस्रीणां न दण्डस्ताडन दमः ॥ ९६९ ॥ `
खीधनं दापयेदण्ड घामिकः प्थिवीपतिः।
निधना पाप्तदोषा खली ताडनं दण्डमहति ।। ९.७० ॥
अन्यायोपाजित न्यस्त कोषे कोष निवेशयेत् ।
कायाथ कायनाराः स्याद् बुद्धिमान्नोपपातयेत्।।९.७१॥
दक्वा धन तद्धेप्रेभ्यः सव दण्डसमुत्थितम् ।
पुञ्े राज्यं समास्तस्य ङुर्वीत प्रायणं चने | ९.७२॥
एवं चरेत्सदा युक्तो राजा धेषु पार्थिवः।
| हितेषु चेव लोकस्य सर्वान् भ्र्यान्नियोजयेत्।(२७३।। `
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कुीदकृषिषाणिज्ये निसष्टाथस्तु स स्थरृतः॥ प्रमाण तच्छृतं सर्वै खामालाभन्ययोदयम् । स्वदे
| हो वास्वामातं न विसवदत् ॥ 4०४९0 1" स्मृतिच० 11. 9. 308. ४148
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